किताब इन सवालों की तह में भी जाने की कोशिश करती है कि क्या एक राष्ट्र के तौर पर अहिंसा के सिद्धांत ने भारत को कमजोर किया जहां सत्ता या ताकत को सामरिक भावना और बल से आंका जाता है? क्या महात्मा गांधी ने धर्म को राष्ट्रीय राजनीति से जोड़ा और इस प्रकार विभाजन की जमीन तैयार की जो दो सदियों के औपनिवेशक शासन के बाद आजादी की कीमत के रूप में चुकानी पड़ी? क्या सरदार वल्लभ भाई पटेल, जवाहरलाल नेहरू के मुकाबले आजाद भारत के कहीं बेहतर प्रथम प्रधानमंत्री होते ?
किताब मोहनदास करमचंद गांधी पर सवाल खड़े करने वाले दो प्रश्नकर्ताओं की पड़ताल से शुरू होती है। इनमें पहले थे गुजरात के आणंद के आध्यात्मिक नेता स्वामी सच्चिदानंद और दूसरे थे ब्रिटिश मार्क्सवादी इतिहासकार पैरी एंडरसन जो कि प्रख्यात इतिहासकार और राजनीति विज्ञानी बेनेडिक्ट एंडरसन के भाई थे और जिन्होंने ‘दी इंडियन आइडियोलॉजी’ किताब लिखी थी। इस किताब में उन्होंने अधिकतर महात्मा गांधी, नेहरू, भारतीय गणतंत्र की विचारधारा और स्वतंत्र भारत के विचार पर नकारात्मक विवेचना ही पेश की थी। लेकिन राजमोहन गांधी की जांच का दायरा केवल इन दो आलोचकों तक ही सीमित नहीं रहा है। बापू तथा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कद्दावर नेताओं जो आजादी के बाद मंत्री और सांसद बने, जैसे नेहरू, पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद आदि, उनकी विरासत की भी राजमोहन गांधी ने समीक्षा की है।
लेकिन सवाल ये हैं कि बापू पर स्वामी और एंडरसन ने क्या आरोप लगाए थे? राजमोहन गांधी हमें शुरुआत में ही बताते हैं कि महात्मा गांधी के खिलाफ एक का आरोप दूसरे के आरोप को प्रभावी तरीके से काटता है। इसलिए, स्वामी सच्चिदानंद सोचते हैं कि महात्मा गांधी आजादी मिलने के समय हिंदुओं के हितों को संरक्षित करने में विफल रहे जबकि एंडरसन दावा करते हैं कि ये महात्मा गांधी ही थे जिन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन में धार्मिक काल्पनिकता को डालकर सांप्रदायिक समस्या को बढ़ाने में योगदान दिया जिससे अंतत: उप महाद्वीप के विभाजन की नींव पड़ी।
और बात केवल यहीं खत्म नहीं हो जाती। दलितों के सवाल पर सच्चिदानंद जहां बापू के दिल के करीब रहे मुद्दे के तहत उन्हें पूरी तरह हिंदू समाज की मुख्यधारा में लाकर उनके सशक्तिकरण के विचार को बढ़ावा देते हैं तो वहीं एंडरसन महसूस करते हैं कि यह और कोई नहीं बल्कि महात्मा ही थे जिन्होंने 1932 में उस पूना समझौते को स्वीकार करने के लिए अम्बेडकर (बाबा साहेब) को ब्लैकमेल किया जो दलितों को हिंदू जाति के रहमोकरम पर छोड़ता था।
इन आरोपों का जवाब देते हुए राजमोहन गांधी हमें बापू की मानसिकता और उनकी विचार प्रक्रिया में गहरे तक ले जाने का प्रयास करते हैं ताकि वह आजादी और बापू के स्वतंत्र भारत के नुस्खे पर उनकी कार्ययोजना की कथित कमियों और निरंतरता के अभावों के आरोपों की व्याख्या कर सकें। बापू के लेखों और भाषणों को आधार बनाते हुए लेखक हमें बताते हैं कि महात्मा पूरे दिल से हिंदुओं के अधिकारों का बचाव कर रहे थे और मुस्लिमों की गलत बातों के खिलाफ खड़े थे।
और जहां तक एंडरसन की बात करें, उनके रिकार्ड की गहराई में जाते हुए राजमोहन गांधी पाते हैं कि इतिहास के प्रोफेसर ने बापू के खिलाफ बिना तारीख और स्थान के या उद्धृत टिप्पणियों के कई आरोप लगाए थे। उनकी एंडरसन से यह शिकायत रही है कि उन्होंने अपने दावों के समर्थन में अपनी किताब में कोई स्रोत नहीं दिया है, न तो विषय वस्तु के रूप में न ही टिप्पणी के रूप में। राजमोहन गांधी कहते हैं, हमें इस नतीजे पर पहुंचना होगा कि उनकी आलोचना को पूरी तरह गलत बताना बेहद उदार टिप्पणी है।
किताब में कहा गया है कि स्वामी और प्रोफेसर महात्मा गांधी के वैश्विक विचारों और कार्रवाइयों में विरोधाभास देखने की आदत से पीड़ित थे। राजमोहन गांधी लिखते हैं कि दोनों के ये विचार उनके महान पूर्वज के दर्शनशास्त्र के केवल आधे-अधूरे पाठन का परिणाम हैं। ऐसे अन्य आरोपों तथा कुछ समय से किए जा रहे दावों पर राजमोहन गांधी कहते हैं कि आज के मीडिया में नेहरू-पटेल मतभेद बहुत बढ़ाचढ़ा कर पेश किया जाता है, सामान्य रूप से राजनीतिक मकसदों के लिए।
लेखक यह दावा नहीं करते कि इन संस्थापकों पर किसी प्रकार की कोई उंगली ही नहीं उठायी जा सकती। हालांकि वह महसूस करते हैं कि आजाद भारत के जन्म के समय जो हालात थे उनमें यह कहना पड़ेगा कि हमारे नेताओं ने काफी अच्छा काम किया। लेकिन निष्कर्ष में वह टिप्पणी करते हैं कि वास्तविक मूल्यांकन के लिए, 1947-50 के दौर की ईमानदारीपूर्ण पड़ताल इस गहराई के साथ की जानी चाहिए कि जब हम आजादी की 100वीं वर्षगांठ मनाएं तो उस समय तक कैसे भारत को उसके सभी लोगों के लिए, खासतौर से सर्वाधिक कमजोर लोगों के लिए कैसे अनोखे तरीके से बेहतर बनाया जा सकता है।