पिछले दशकों में बंगाल ही नहीं कई राज्यों में सरकारों ने औद्योगिक प्रगति के लिए किसानों की जमीन अधिग्रहण की। उत्तर प्रदेश, हरियाणा जैसे प्रदेशों में प्रारंभिक दौर में मिले मुआवजे की रकम से किसान परिवार दो चार साल जीवन-यापन कर सके और बेरोजगारी तथा आर्थिक संकट में फंस गए। यही कारण है कि केंद्र सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण के लिए लाया गया कानूनी प्रस्ताव संसद में स्वीकृत नहीं हो सका और राज्य सरकारों को जिम्मेदारी सौंप दी गई। बंगाल में तीन दशकों से अधिक कम्युनिस्ट राज में उद्योगपतियों के विरुद्ध संगठनों के आंदालनों से बड़ी संख्या में उद्योग-धंधे अन्य प्रदेशों में चले गए।
बुद्धदेव भट्टाचार्य ने अवश्य थोड़ी उदारता दिखाई थी, लेकिन हड़तालों की बदनामी से नए पूंजी निवेशक नहीं पहुंचे। ममता बनर्जी के सिंगूर आंदोलन से टाटा समूह सर्वाधिक प्रभावित हुआ था। उसे अपना कारखाना गुजरात ले जाना पड़ा। लेकिन इसे राजनीतिक परिपक्वता एवं आर्थिक विकास के लिए प्रतिबद्धता कहा जाएगा कि ममता ने टाटा समूह को वैकल्पिक जमीन देने की घोषणा कर दी। यही नहीं बड़े पूंजी निवेश के लिए विदेशी दौरे में भी उद्योग समूहों के प्रतिनिधियों को ले गई। वर्तमान युग में गांवों के खेत लहलहाने के साथ युवाओं की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए चीन की तरह औद्योगिक विकास भी जरूरी है।