भाषा सिंह
हम दो हमारे कितने ? यह आज के दौर का एक जलता हुआ सवाल है। हालांकि अभी तक सरकार की आधिकारिक नीति में कोई परिवर्तन नहीं आया है, वह अभी हम दो और हमारे दो पर टिकी हुई है लेकिन सांसद हो या मुख्यमंत्री या धर्म के ठेकेदार, सब एक सुर में औरतों से ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करने की गुहार लगा रहे हैं। हिंदू औरतों से कोई चार बच्चे पैदा करने, कोई छह, कोई आठ तो कोई 10 बच्चे पैदा करने की बात खुलेआम कर रहा है। औरतों को बच्चा पैदा करने की मशीन बनाने की तेज बैटिंग के बीच ही जनगणना के धार्मिक आधार पर आंकड़े कुछ अखबारों की सुर्खियां बनते हैं, हालांकि अभी उन्हें औपचारिक रूप से जारी करना बाकी है। इन आंकड़ों को जिस तरह से पेश किया गया, उससे जो सनसनी पैदा की गई, उसका इस्तेमाल हिंदुओं के भयादोहन के लिए खुलकर किए जाने की प्रबल आशंका है।
2001 से 2011 के जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक भारत की आबादी में मुसलमानों की हिस्सेदारी बढ़ने की रफ्तार कम हुई है। हालांकि अभी भी हिंदू समेत बाकी समुदायों की तुलना में उनकी आबादी की वृद्धि अधिक है। वर्ष 2001 से 2011 के बीच आबादी में उनका हिस्सा 13.4 फीसदी से बढ़कर 14.2 फीसदी हो गया है यानी 0.8 फीसदी अंक की वृद्धि जबकि 1991 से 2001 के दशक में उनकी आबादी में 1.7 फीसदी अंक का इजाफा हुआ था। कुल मिलाकर देख जाए तो भारत में मुसलमानों की आबादी 24.4 फीसदी बढ़कर 13.8 करोड़ से 17.18 करोड़ हो गई। इस लिहाज से मुसलमानों की कुल आबादी बढ़ने की रफ्तार में भी काफी गिरावट हुई है। 1991 से 2001 के दशक यह 29 फीसदी की रफ्तार से बढ़ी थी। अब यह गिरकर 24 फीसदी हो गई है। यानी 10 सालों में 5 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है। जबकि हिंदुओं की आबादी की वृद्धि रफ्तार 1991 -2001 में 21.5 फीसदी थी जो 2001-2011 की जगनगणना में 4 फीसदी से कम की गिरावट दर्ज की गई है। इस बारे में सच्च समिति की सिफारिशों के असर का अध्ययन करने के लिए बनाई गई समिति के अध्यक्ष अमिताभ कुंडू ने आउटलुक को बताया कि यह स्वाभावित सा ट्रेंड है। इसमें कुछ भी हैरतअंगेज नहीं है और न ही इस पर कोई हंगामा खड़ा करने की जरूरत है क्योंकि जैसे-जैसे मुसलमानों में शिक्षा का प्रचार-प्रसार हो रहा है तथा उनकी आर्थिक स्थिति ठीक हो रही है, वैसे-वैसे उनकी प्रजनन दर में कमी आ रही है। मुसलमानों की प्रजनन दर की रफ्तार लगातार कम हो रही है, ठीक हिंदुओं तथा बाकी समुदायों की तरह, यह समझने की जरूरत है। यानी जिस तरह से देश भर में हम दो और हमारे दो के नीतिगत नारे को खत्म करके औरतों को बच्चा जनने की मशीन बनाने की खतरनाक कोशिश हो रही है, उसकी कोई जरूरत नहीं है।
इस भयोदोहन पर चर्चा करने से पहले जरूरी है कि 2011 के जनगणा के जो आंकड़े सामने आए हैं, उनका विश्लेषण कर लिया जाए। इस संदर्भ में यह बताना जरूरी है कि जनगणना के आंकड़ों का विश्लेषण सामान्य तौर पर तीन साल में आ जाता है, जो पिछले साल तक तैयार हो गया था। इन आंकड़ों पर भाजपा को फायदा होने के डर से पिछले साल कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त गठबंधन सरकार ने जारी नहीं किया था और इस साल जिस समय इन्हें मीडिया को उपलब्ध कराया गया है, उस पर भी सवाल उठ रहे हैं। इंस्टीट्यूट ऑफ ऑब्जेक्टिव स्टडीज से जुड़े तनवीर का कहना है कि इस समय जब दिल्ली में चुनाव होने हैं उस समय इसके कुछ अंश मीडिया के जरिए सामने आने में रिश्ता है। वह भी तब जब पिछले तीन-चार महीनों से मुस्लिम बढ़ती आबादी का हौव्वा खड़ा किया जा रहा है।
नए आंकड़ों के मुताबिक 2001-2011 के दशक में आबादी बढ़ने की रफ्तार का राष्ट्रीय औसत 18 फीसदी रहा। इन आकड़ों को इस संदर्भ में भी देखना होगा कि आबादी में मुसलमानों की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा असम में बढ़ी है (30.9 फीसदी से बढ़कर 34.2 फीसदी) जहां बांग्लादेशी प्रवासियों की आवक सबसे ज्यादा है। इसके अलावा जिन राज्यों में यह हिस्सेदारी बढ़ी है, उनमें उत्तराखंड (2 फीसदी), केरल (1.9 फीसदी), पश्चिम बंगाल (1.8 फीसदी), गोवा (1.6 फीसदी) और जम्मू व कश्मीर (1.3 फीसदी) हैं। इनमें से असम के अतिरिक्त जम्मू-कश्मीर (68.3 फीसदी) और बंगाल (27 फीसदी) में मुसलमानों की हिस्सेदारी आबादी में सबसे ज्यादा है।
2011 की जनगणना के मुताबिक जिन राज्यों में कुल जनसंख्या में मुस्लिमों की संख्या में सबसे ज्यादा बढ़ोतरी देखी गई उनमें केरल (24.7% से 26.6%), गोवा (6.8% से 8.4%), जम्मू-कश्मीर (67% से 68.3%), हरियाणा (5.8% से 7%) और दिल्ली (11.7% से 12.9%) शामिल हैं। इसमें निश्चित रूप से देश के भीतर मुसलमानों की आवाजाही और बांग्लादेश से मुसलमानों की आवक एक पहलू है।
इन आंकड़ों के मुताबिक भारत की आबादी में हिंदुओं की हिस्सेदारी में आजादी के बाद के किसी दशक में सबसे ज्यादा गिरावट हुई है। 2011 की जनगणना के अनुसार कुल 121.05 करोड़ की आबादी में हिंदू 78.35 फीसदी हैं जबकि 2001 में ये कुल आबादी का 80.45 फीसदी थे। कुल मिलाकर देखा जाए तो 2001 से 2011 के बीच में हिंदुओं की आबादी 14.5 फीसदी बढ़कर 82.75 करोड़ से बढ़कर 94.78 करोड़ हो गई।
वहीं, भारत की आबादी में ईसाइयों व सिखों की आबादी का हिस्सा लगभग 2001 के स्तर के ही बराबर— दो फीसदी प्रत्येक है। ये आंकड़े जनवरी 2015 में आए हैं, लेकिन पिछले कुछ महीनों से मुसलमानों की संख्या में बेहताशा वृद्धि और हिंदुओं के अल्पसंख्यक हो जाने का खतरा फैलाया जा रहा था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की यह अवधारणा बहुत पुरानी है लेकिन पिछले एक साल में इस दुष्प्रचार में तेजी आई है। संघ खेमा यह फैला रहा है कि 2035 तक मुसलमान भारत की आबादी का आधा हो जाएंगे। इस दावे को असली साबित करने के लिए भारत की आबादी को 2035 तक 198 करोड़ होना पड़ेगा। लेकिन ज्यादातर अनुमानों के मुताबिक 2050 तक भी भारत की आबादी 154 करोड़ ही हो पाएगी। संघ किस्म के सरलीकृत अनुमानों का विज्ञान में कोई आधार नहीं है। संघ के इस दुष्चार को सरासर गलत बताते हुए जनसंख्या विशेषज्ञ अमिताभ कुंडू कहते हैं कि शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ मुसलमानों में भी आबादी में इजाफे की रफ्तार घटेगी। ऐसा होना शुरू हो गया है। तभी 10 सालों के अंदर इसमें 5 फीसदी की गिरावट आई है। शिक्षा का स्तर जैसे बढ़ेगा, प्रजनन दर वैसे-वैसे नीचे आएगी। ऐसा हो रहा है, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़े यही बताते हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-(एनएफएचएस) 3 के अनुसार मुसलमनों की प्रजनन दर (3.1) है जो हिंदुओं की प्रजनन दर (2.7) से थोड़ी अधिक है। हालांकि मुसलमानों की प्रजनन दर में एनएफएचएस-2 की तुलना में यानी सात सालों में बहुत तेज गिरावट आई है। औसत मुस्लिम परिवार में औसत हिंदू परिवार की तुलना में एक बच्चा ज्यादा होता है। उत्तर पूर्व के राज्यों में आबादी बहुत अस्थिर रहती है। इसमें बांग्लादेश से होने वाले पलायन का गहरा हाथ है। इन तमाम तथ्यों को एक सिरे से नकार कर जनसंख्या नियंत्रण के बेहद जरूरी लक्ष्यों को दफन करने की कोशिश हो रही है। एक तरह से यह उन तमाम स्थापित मानदंडों, इतिहास में तय हो चुकी बहसों को नकारने की प्रक्रिया है, जो पूरे समाज के लिए बहुत घातक साबित हो सकती है।
जनसंख्या के ये धार्मिक आकड़ों के जरिए भाजपा तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके आनुषंसिक संगठन अपने हिसाब से लोगों के दिमागों में यह विचार ठूंसने की कोशिश कर रहे हैं कि हिंदुओं को ज्यादा बच्चे पैदा करने चाहिए, मुसलमानों की बढ़ती आबादी सबसे बड़ा खौफ है।
हिंदू नेताओं में तो होड़ लगी हुई है। कोई हिंदू औरतों को सलाह दे रहा है कि वे चार बच्चे पैदा करें तो कोई 10 बच्चे। वे अभी आपस में यह नहीं तय कर पा रहे हैं कि एक हिंदू औरत कितने बच्चे पैदा करे तो उनका धर्म बच पाएगा। भाजपा के सांसद साक्षी महाराज ने चार बच्चे पैदा करने को कहा और इसमें से एक को सेना तथा एक को साधुओं को देने को कहा। इसके बाद से तो जितने मुंह उतने बच्चे। वे अभी आपस में यह नहीं तय कर पा रहे हैं कि एक हिंदू औरत कितने बच्चे पैदा करे तो उनका धर्म बच पाएगा। इलाहाबाद में इसी साल जनवरी में माघ मेला को संबोधित करते हुए बद्रीनाथ के शंकराचार्य़ वासुदेवानंद सरस्वती ने कहा, अपना बहुसंख्यक दर्जा सुरक्षित रखने के लिए हर हिंदू परिवार को 10 बच्चे पैदा करने चाहिए। इसी में सुर मिलाते विश्व हिंदू परिषद के कार्यकारी अध्यक्ष प्रवीण तोगड़िया ने लखनऊ में हिंदुओं से ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करने का आह्रावन किया। तोगड़िया ने कहा कि दुनिया पर उसी का शासन चलेगा, जिसकी आबादी ज्यादा होगी। विश्व हिंदू परिषद द्वारा आयोजित इस हिंदू सम्मेलन में आए लोगों को यह शपथ दिलायई गई कि वे ज्यादा बच्चे पैदा करेंगे। अयोध्या के शीर्ष पुजारी कन्हैया दास ने कहा हिंदुओं को हम दो हमारे दो के नारे का त्याग करते हुए अब कम से कम आठ बच्चे पैदा करने चाहिए। वहीं पिछले साल तक विश्व हिंदू परिषद के नेता अशोक संघल अभी तक हिंदू औरतों को कम से कम पांच बच्चे पैदा करने की सलाह दे रहे थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने इस बीच खुलकर अपने पुराने नारे को दोहराया है कि भारत को एक हिंदू राष्ट्र बनाना है। पश्चिम बंगाल में भाजपा नेता श्यामलाल गोस्वामी ने कहा कि हिंदुओं को ज्यादा बच्चे पैदा करने चाहिए। उन्होंने कहा कि अगर हिंदू औरतें पांच बच्चे नहीं पैदा करती हैं तो सनातम धर्म की रक्षा नहीं की जा सकती है।
उधर, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने कहा कि ज्यादा बच्चे पैदा करने जरूरी है। उन्होंने इस बात पर अफसोस भी प्रकट किया कि उन्होंने सिर्फ एक ही बच्चा पैदा किया। उन्होंने कहा कि अगर ज्यादा बच्चे नहीं पैदा किए गए तो भारत की स्थिति भी जापान जैसी हो जाएगी, जहां बूढ़ों की संख्या ज्यादा है। इसके लिए उन्होंने एक जबर्दस्त तर्क पेश किया कि आंध्रे प्रदेष में सालाना नौ लाख बच्चे पैदा होते हैं और विभिन्न कारणों से नौ लाख लोग मरते हैं। दुनिया की सबसे आधुनिक राजधानी बनाने के लिए आधुनिकतम तकनीक का इस्तेमाल करने और उस पर अरबों खर्च करने वाले मुख्यमंत्री नायडू ने नौ लाख मौतों को घटाने के बजाय जनसंख्या बढ़ाने, ज्यादा बच्चे पैदा करने का तर्क देकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और दूसरी हिंदुत्वादी संगठनों को खुश कर दिया है। परिवार नियोजन के खिलाफ खुलेआम अभियान चलाने वाले वह भारत के संभवतः पहले मुख्यमंत्री हैं।
ये सारा विमर्श खतरनाक ढंग से महिला विरोधी, प्रगतिगामी और एक समुदाय विशेष के खिलाफ नफरत फैलाने वाला है। इस बारे में समाजविज्ञानी सतीश देशपांडे का जनगणना के आंकड़ों की तर्कसंगत व्याख्या करने के बजाय खौफ उकसाने की कोशिश की जा रही है। दुनिया भर में अल्पसंख्यकों की आबादी बहुसंख्यक का आबादी से तेज रफ्तार से बढ़ती है। इसकी बहुत बड़ी वजह इस समुदाय का पिछड़ापन होता है। भारत में भी यही प्रवृत्ति है। आप देखेंगे कि जहां पर मुसलानों की आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति ठीक हुई है, वहां उनकी आबादी में वृद्धि दर कम है। दक्षिण भारत के कई राज्यों में मुसलमानों की आबादी की वृद्धि दर उत्तर भारत के हिंदुओं की आबादी की वृद्धि दर से कम है। मेरा मानना है कि आबादी में वृद्धि का मसला कौम या धर्म से नहीं बल्कि भौतिक स्थितियों से ज्यादा जुड़ा हुआ है और इसे इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।
सेंटर फॉर वुमन एंड डेवलपमेंट स्टडीज की मेरी ई. कौम ने आउटलुक को बताया कि जिस तरह से सारा विमर्श हिंदुत्ववादी ताकतें बढ़ा रही हैं, वह लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक है। पहले से ही सामाजिक, आर्थिक और अब राजनीतिक रूप से हाशिए पर ढकेले गए मुसलमानों की बाड़ेबंदी और बढ़ जाएगी। लेकिन फिर भी मुझे नहीं लगता है कि इन तमाम नेताओं द्वारा ज्यादा बच्चे पैदा करने की अपील करने से लोग ज्यादा बच्चे पैदा करने लगेंगे। सांप्रदायिक एजेंडा कोई अंधा एजेंडा नहीं होता। वैसे भी यह सोचने की बात है कि जिस देश में परिवार को छोटा रखने के लिए करोड़ों बेटियों की गर्भ में हत्या हो रही हों, वहां लोग परिवार बड़ा सिर्फ और सिर्फ धार्मिक नेताओं के कहने पर परिवार बड़ा कर लेंगे। हां, इन तमाम बयानों से माहौल जरूर खराब होगा। ये सारी बातें आग लगाने के लिए, लोगों को भड़काने के लिए हैं। सामाजिक कार्यकर्ता शबनम हाशमी का कहना है कि आबादी का खौफ पैदा करके ध्रुवीकरण करना, संघ और भाजपा का पुराना एजेंडा है। जनगणना के आंकड़े जो दिखा रहे हैं, उनसे बिल्कुल उलट बाते हो रही है। सिर्फ मुसलमानों में ही नहीं आदिवासियों, दलितों में भी आबादी की वृद्धि दर अधिक होती है, क्योंकि वे भी पिछड़े हैं। ये सारी बातें आ चुकी हैं, सच्चर समिति की पूरी रिपोर्ट ये सब तथ्यों के साथ नकार चुकी है। इसके साथ ही हिंदू औरतों को बच्चे पैदा करने की मशीन की तौर पर पेश किया जा रहा है और कहीं से भी इसके खिलाफ मजबूत आवाज न उठना खतरनाक है।
खबर यह है कि इस दुष्प्रचार में जल्द ही तथाकथित धार्मिक-आध्यात्मिक-योग गुरुओं की शिरकत होने जा रही है। इसे राष्ट्रीय स्तर पर एक सुगठित अभियान के तौर पर शुरू करने पर विचार चल रहा है। शायद तब ये ताकतें इस पर किसी निर्णय पर पहुंच जाएं कि हिंदू औरतों को चार, छह या दस बच्चे पैदा करने चाहिए। शहरी और जनसंख्यात्मक मामलों के विशेषज्ञ अनंत कृषणन का मानना है कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए आबादी की वृद्धि दर पर राजनीति की जा रही है। लोकविमर्श को जहरीला बनाने और लोगों के मानसिकता को बदलने के लिए किया जा रहा है। इसे हल्के में नहीं लिया जा सकता।