इसमें कोई शक नहीं कि औद्योगिक प्रदूषण रोकने के काम में प्रशासनिक लापरवाही बढ़ती गई है। यों भारत ही नहीं जर्मनी की राइन और ब्रिटेन की टेम्स नदियों में औद्योगिक प्रदूषण की समस्या लंबे अर्से तक गंभीर रही और फिर सरकारों के कठोर निर्णयों के बाद अब आज उन नदियों का पानी घरों में पीने लायक हो चुका है। भारत में गंगा-यमुना का बहता पानी तक प्रदूषित और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो गया है। वाराणसी और इलाहाबाद में पूजा के बाद आचमन करते समय भी थोड़ी हिचकिचाहट होती है। उत्तराखंड तक तो गंगा-यमुना बहुत हद तक पवित्र रहती है, लेकिन उत्तर प्रदेश, दिल्ली, बिहार के रास्ते गंगा सागर तक बेहद प्रदूषित हो जाती है। लगभग आठ सौ उद्योग उत्तर प्रदेश में ही गंगा को प्रदूषित करते हैं। निरंतर चेतावनी के बावजूद इन उद्योगों ने अपनी गंदगी साफ करने वाले संयंत्र नहीं लगाए। दूसरी तरफ पुराने विश्वास के कारण अंतिम संस्कार के अवशेष और कई स्थानों पर शव भी नदियों में प्रवाहित होने की समस्या का निदान समाज और सरकारें नहीं निकाल सकी हैं।
असल में जल संसाधनों को राजनीतिक व्यवस्था ने कभी महत्व नहीं दिया। जल संसाधन मंत्रालय को निहायत ‘सूखा’ माना जाता रहा। मंत्री या उनके अधिकारी यहां ‘कमाई’ के रास्ते नहीं निकाल पाते। इसे राजनीतिक सजा का मंत्रालय तक माना गया। बहरहाल, मोदी सरकार ने सुश्री उमा भारती को गंगा के उद्धार की खास जिम्मेदारी सौंपी। लेकिन नौकरशाही और राज्य सरकारों के सहयोग के बिना भावना और प्रार्थना कितनी काम आएगी ? यह धारणा भी गलत है कि अभी तो साढ़े तीन वर्ष हैं। चुनाव के अंतिम क्षणों का इंतजार करने पर गंगाजल अधिक विषैला होता जाएगा।