डॉक्टर बनना भारत जैसे देश में एक बड़ा सपना और कुछ हद तक समाज की सेवा के लिए समर्पण भाव का संकल्प होता है। पिछले दो दशकों में मेडिकल की पढ़ाई और फिर डाक्टरी एक वर्ग के लिए मोटी कमाई का माध्यम बन गई। फिर भी 12वीं तक की पढ़ाई करने वाले बच्चों के मन में मूलतः कमाई नहीं अच्छा डॉक्टर बनकर गौरव के साथ काम करने की महत्वाकांक्षा होती है। इसमें कोई शक नहीं कि संयुक्त परीक्षा से देश भर में समान प्रतियोगिता और अवसर बन सकते हैं। इससे निजी कॉलेजों में प्रबंधन के कोटे के नाम पर पक्षपात एवं अनुचित ढंग से मोटी रकम ऐंठने की प्रवृत्ति पर अंकुश लग सकता है। लेकिन विभिन्न राज्यों में पाठ्यक्रमों की विविधता एवं भारतीय भाषाओं में पढ़ाई की व्यवस्था से नई कठिनाई भी सामने आ रही है। यही कारण है कि करीब 15 राज्यों ने मेडिकल की संयुक्त प्रवेश परीक्षा पर अपनी आपत्ति दर्ज कराई। इसके पीछे कुछ राजनीतिक नेताओं द्वारा निजी कॉलेजों के साथ रिश्तों को भी जोड़ा जा रहा है। कुछ राज्यों में नेताओं और उनके परिजनों ने पिछले 20-25 वर्षों के दौरान अनेक मेडिकल-इंजीनियरिंग कॉलेज खोले हैं या कुछ निजी कॉलेजों ने राजनीतिक दलों को चंदा देकर अनुग्रहित किया है। इससे सरकारों की राजनीतिक हितों का मुद्दा उठ गया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। इस समय लाखों छात्र परीक्षा के बाद प्रवेश के दरवाजे पर खड़े हैं। अनिश्चितता से उनका भविष्य खतरे में पड़ रहा है। शिक्षा के क्षेत्र में राजनीतिक खींचातानी, पूर्वाग्रह, भ्रष्टाचार पूरी व्यवस्था के लिए कलंक की तरह है। मेडिकल ही नहीं प्राथमिक कक्षा से उच्च शिक्षा तक के पाठ्यक्रमों में बार-बार बदलाव, निजी-सरकारी कॉलेजों में बड़ी असमानता, प्रवेश से परीक्षा तक धांधली से दुनिया में भारत के काबिल युवाओं की छवि भी धूमिल होती है। बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ के बजाय सरकार ही नहीं सभी राजनीतिक दलों और समाज के विभिन्न वर्गों को राष्ट्रीय स्तर पर शैक्षणिक अवसर एवं स्तर की समानता के लिए सर्वानुमति बननी चाहिए।
चर्चाः शिक्षा में खिलवाड़ न हो | आलोक मेहता
एक बार फिर मेडिकल प्रवेश परीक्षा पर गंभीर विवाद। पहले सुप्रीम कोर्ट का फैसला। फिर केंद्र सरकार द्वारा अध्यादेश का निर्णय। इसके बाद खबर मिली कि 24 जुलाई को पूर्व निर्धारित संयुक्त प्रवेश परीक्षा को टाला जा सकता है। मेडिकल-डेंटल कॉलेजों में प्रवेश के लिए लाखों बच्चे हर वर्ष परीक्षा देते रहे हैं।
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