कट्टर रुख और अपना वर्चस्व थोपने के लिए जम्मू-कश्मीर में महबूबा मुफ्ती को भाजपा मजबूर नहीं कर सकती है। कश्मीर में पीडीपी, नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस पार्टी की जड़ें गहरी रही हैं। भाजपा को जनता के बीच स्वीकार्यता के लिए कम से कम दो-चार वर्ष प्रयास करके विश्वास अर्जित करना चाहिये था। कुछ हद तक महबूबा मुफ्ती का अड़ियल रुख भी समझौते में बाधक माना जा सकता है। लेकिन जर्मनी जैसे लोकतांत्रिक देशों में भी प्रादेशिक स्तर पर राष्ट्रीय दल को क्षेत्रीय दल के प्रभाव को स्वीकारना पड़ता है। कांग्रेस हो या भाजपा, प्रादेशिक राजनीति में मायावती, नीतीश कुमार, देवेगौड़ा जैसे नेताओं की पार्टियों को मंझधार में छोड़ने का इतिहास रहा है। यही नहीं उन्होंने अपने क्षेत्रीय नेताओं को भी अधिक शक्तिशाली नहीं होने दिया। नरेंद्र मोदी एकमात्र अपवाद कहे जा सकते हैं।
बहरहाल, अंतरराष्ट्रीय राजनीति में चीन और पाकिस्तान के साथ मधुर संबंधों की शहनाइयां बजाने के बाद सरकार का एक वरिष्ठ मंत्री या भाजपा के नेता इन देशों को दुश्मन करार देने लगते हैं। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और विदेश सचिव जयशंकर पाक नेताओं और अधिकारियों के साथ बातचीत के जरिये तार जोड़ते हैं, तो दूसरे केंद्रीय मंत्री विपरीत बयान देकर तार उलझा देते हैं। प्रधानमंत्री सूफी सम्मेलन में सांप्रदायिक सौहार्द्र की बात करते हैं और उनकी पार्टी के नेता मंदिर निर्माण, भारत माता की जय जैसे मुद्दे पर अल्पसंख्यकों को अपने रास्ते पर लाने वाले बयान देने लगते हैं। यह रस्सी पर खड़े होकर तमाशा दिखाने जैसा है। दो कदम गलत हुए और करतबी जमीन पर। जिम्मेदार सरकार और पार्टी सोच-समझकर दूरगामी हितों को ध्यान में रखते हुए कदम बढ़ाएंगे, तो देश को विकास और सफलता की मंजिल पर ले जाने वाले कदम उठा सकेंगे।