अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गंभीरता के साथ कुछ प्रस्ताव आगे बढ़ाया है। इस प्रस्ताव के तहत लोक सभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव साथ कराए जाने के लिए व्यापक सहमति एवं संविधान में संशोधन की आवश्यकता होगी। यों यह सुझाव भाजपा गठबंधन की अटल सरकार के दौरान तत्कालीन उप राष्ट्रपति भैरों सिंह शेखावत एवं कुछ अन्य नेताओं ने भी दिया था। लेकिन उस समय बात आगे नहीं बढ़ पाई। इसमें कोई शक नहीं कि पिछले वर्षों के अनुभव के अनुसार वर्तमान व्यवस्था के तहत राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियां लगभग हर साल किसी न किसी प्रदेश के चुनाव में व्यस्त दिखाई देती हैं। क्षेत्रीय दल भी लोकसभा चुनाव में हर संभव प्रतिनिधित्व की कोशिश करते हैं। चुनाव प्रचार अभियान एवं मतदान से मतगणना तक की व्यवस्था में घोषित-अघोषित रूप से कई हजार करोड़ रुपये खर्च हो जाते हैं। इस लिए एक समय पर ही लोकसभा और विधानसभा के चुनाव होने से खर्च पर नियंत्रण होने के साथ चुने हुए अथवा प्रतिपक्ष के दलों को पांच वर्ष काम करने का पर्याप्त अवसर भी मिलेगा। लेकिन चुनाव के वर्तमान चक्रव्यूह को कौन और कैसे तोड़ सकेगा?
पहली मुश्किल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वयं स्वीकारी है। उनका मानना है कि यदि सरकार इस प्रस्ताव को आगे बढ़ाएगी, तो इसे भाजपा का मानकर प्रतिपक्ष के विरोध का सामना करना पड़ सकता है। यों राजनीतिक दल इस समय भी अनौपचारिक रूप से एक साथ चुनाव की उपयोगिता को मानते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि लोकप्रिय नेता वाले बड़े राष्ट्रीय राजनीतिक दल को प्रस्तावित चुनाव प्रक्रिया से एकछत्र राज करने का लाभ भी हो सकता है। आजादी के बाद नेहरू के सत्ता काल में कांग्रेस को इसका लाभ मिला था। कुछ अन्य लोकतांत्रिक देशों में दो या तीन प्रमुख राजनीतिक दल होने से विकल्प बदलने के बावजूद व्यवस्था में स्थायित्व दिखता है। भारत जैसे विशाल देश में प्रदेशों, क्षेत्रीय दलों और राज्यों की प्राथमिकताएं एवं उपेक्षाएं भी बहुत हैं। उन्हें चक्रवर्ती राजा जैसी स्थिति में तानाशाही का खतरा महसूस होता है। सबसे बड़ा संकट यह है कि फिलहाल जिन राज्यों में चुनाव हुए हैं या अगले एक दो वर्षों में हो जाएंगे, क्या वे 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान फिर विधानसभा चुनाव के लिए तैयार होंगे? यही नहीं छोटे राज्यों में दलबदल अथवा स्थिति बिगड़ने पर विधानसभा भंग होने पर क्या लंबे समय तक राष्ट्रपति शासन रखा जाना उचित माना जाएगा? मतलब चुनाव के नए नियम-कानूनों पर पहले संविधान संशोधन सहित विधेयक संसद में पारित करना होगा। इसलिए प्रस्ताव पर सार्वजनिक चर्चा जारी रखनी होगी। हां, इससे पहले चुनावी खर्च एवं उम्मीदवारों की आचार संहिता एवं महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण के निर्वाचन आयोग के विचाराधीन प्रस्तावों पर तो राजनीतिक सर्वानुमति बनाई जाए।