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चर्चा : ‘बंधु’ देखते रहे, दादाओं ने कब्जा जमाया। आलोक मेहता

राजनीति में चेहरे बदल जाते हैं, चरित्र नहीं बदल पा रहा है। इस बार राज्य सभा चुनाव के ‌लिए प्रदेशों से विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा चुने गए कुछ विवादास्पद उम्मीदवारों से यही साबित हो रहा है। विशेष रूप से राजनीति में सबसे हटकर ‘चाल-चरित्र’ का दावा करने वाली भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवारों को लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से पार्टी के ‌लिए समर्पण भाव से काम करने वालों को तकलीफ हो सकती है।
चर्चा : ‘बंधु’ देखते रहे, दादाओं ने कब्जा जमाया। आलोक मेहता

पिछले दस पंद्रह वर्षों से संघ और भाजपा के लिए प्रादेशिक एवं राष्‍ट्रीय स्तर पर सक्रिय संघ के समर्पित स्वयंसेवक ठगा सा महसूस कर रहे हैं। वे बंद कमरों में दूसरी पंक्ति के नेताओं के समक्ष अपना रोष भी व्यक्त कर रहे हैं। बिहार में 28 आपराधिक मामलों में फंसे एक बुजुर्ग को पार्टी ने उम्मीदवार बना दिया। मध्य प्रदेश से बिहार मूल के पुराने कांग्रेसी तथा पूर्व संपादक को अल्पसंख्यक तुष्‍टीकरण के नाम पर उम्मीदवार बना दिया। संघ पृष्‍ठभूमि वाले अनुभवी महासचिव कैलाश विजयवर्गीय अथवा युवा मोर्चे से पार्टी के पदाधिकारी शाहनवाज हुसैन तक के नाम ठुकरा दिए। युवा चेहरों की दृ‌‌‌ष्टि से दो-तीन तेज तर्रार प्रवक्ता भी प्रतीक्षा सूची में चले गए। दलबदलुओं और भ्रष्‍टाचार के आरोपों को नज़रअंदाज कर अवसर दे दिया गया।

लगभग यही स्थिति कांग्रेस पार्टी की रही। उसने गंभीर विवादों और चुनावी विफलताओं वाले पी. चिदंबरम एवं कपिल सिब्बल को उम्मीदवार बना दिया। जिन घोटालों से पार्टी की नैया डूबी, उनसे जुड़े लोगों को फिर पतवार संभलवा दी। समाजवादी पार्टी ने तो कमाल ही कर दिया। अमर सिंह पार्टी से बाहर होने के बावजूद मुलायम सिंह और शिवपाल यादव से रिश्ते जोड़े हुए थे। इसलिए उनकी घर वापसी पर कोई आपत्ति नहीं कर सकता था। लेकिन बेनी प्रसाद वर्मा ने समाजवादी पार्टी को लात मारकर जितनी गालियां दी और कांग्रेस की सत्ता के मजे लूटे, उन्हें समाजवादी पार्टी ने 6 साल के लिए फिर से सत्ता के दरवाजे पर भेज दिया। मतलब, अब पार्टी के सिद्धांतों, आदर्शों, मूल्यों के बजाय अवसरवाद और तात्कालिक उपयोगिता को ही तरजीह मिल रही है।

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