इस पार्टी में नरसिंह राव, नारायण दत्त तिवारी, शंकरदयाल शर्मा से लेकर वर्तमान कोषाध्यक्ष मोतीलाल वोरा तक विधान सभा-लोक सभा-राज्य सभा के सदस्य और महत्वपूर्ण पदों पर रहने के बावजूद अंतिम क्षणों में चुनावी टिकट से वंचित हो गए। लेकिन उन्होंने जीवन पर्यंत पार्टी नहीं छोड़ी और वफादारी लिखकर नहीं देनी पड़ी। कहने को एनडी तिवारी ने पार्टी छोड़ी और तिवारी कांग्रेस बनाया मगर तब भी गांधी परिवार के प्रति उनकी वफादारी कम नहीं हुई।
यूं सोनिया गांधी के वफादारों की संख्या अब भी पार्टी में कम नहीं है। लेकिन राहुल गांधी के युवा सलाहकार अथवा कांग्रेस चुनाव प्रबंध के लिए आई पी.के. की कंपनी को स्वयं अपने पर भरोसा नहीं होता। फिर उन्हें उ.प्र. और पंजाब में कांग्रेस के निष्ठावान एवं जनता के बीच सक्रिय स्थानीय नेताओं की जानकारी नहीं है। इसलिए उन्होंने फरमान जारी करवा दिया है कि पार्टी का उम्मीदवार बनने के इच्छुक वफादारी का शपथ पत्र लिखकर दें और यह भी स्पष्ट शब्दों में लिखकर दें कि टिकट नहीं मिलने पर भी वह निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव मैदान में नहीं उतरेंगे और अधिकृत कांग्रेसी उम्मीदवार का समर्थन करेंगे। सवाल यह है कि हलफनामा देने वाले यदि विद्रोही होकर पार्टी ही छोड़ दें और निर्दलीय उम्मीदवार बन गए तो पार्टी क्या महीनों-वर्षों तक उसके विरुद्ध अदालत में मुकदमा लड़ेगी? निजी कंपनियों में नौकरियों के लिए बांड भरवाए जाते हैं और कंपनी छोड़ने के बाद तत्काल एक-दो वर्ष किसी प्रतियोगी कंपनी में नौकरी नहीं की जाने की लिखित गारंटी देते हैं। इस तरह की शर्तों पर कुछ विवाद अदालत पहुंचे हैं और अदालत ने कर्मचारी के पक्ष में फैसले दिए हैं।
इसलिए पार्टी के लिए दिए जाने वाले हलफनामे कानूनी दहलीज पर कितने दिन टिक सकेंगे, यह बताना अभी मुश्किल है। फिलहाल इस अविश्वसनीयता के मुद्दे पर इंदिरा से सोनिया गांधी तक वैचारिक आधार एवं व्यक्तिगत सम्मान-निष्ठा रखने वाले कांग्रेसी विचलित हैं। जब पार्टी उन पर भरोसा ही नहीं करेगी तो वे पार्टी पर कितना भरोसा करें? कभी ट्विटर-फेसबुक के फालोअर की संख्या का सवाल उठना, कभी शिक्षा-जाति-धर्म का विवरण मांगना और फिर वफादारी का शपथ-पत्र मांगा जाना कांग्रेस पार्टी की कमजोरी ही प्रदर्शित करता है।