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कराहते गांव, सिसकते शहर: खांसी-बुखार-सांस में तकलीफ से लोग तोड़ रहे दम, लेकिन जांच के अभाव में ‘कोरोना से मौत’ में गणना नहीं

“खांसी, बुखार और सांस में तकलीफ से लोग दम तोड़ रहे, लेकिन जांच के अभाव में ‘कोरोना से मौत’ में उनकी...
कराहते गांव, सिसकते शहर: खांसी-बुखार-सांस में तकलीफ से लोग तोड़ रहे दम, लेकिन जांच के अभाव में ‘कोरोना से मौत’ में गणना नहीं

“खांसी, बुखार और सांस में तकलीफ से लोग दम तोड़ रहे, लेकिन जांच के अभाव में ‘कोरोना से मौत’ में उनकी गणना नहीं”

मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले का ब्लॉक सोहागपुर। राजधानी भोपाल से सवा सौ किलोमीटर दूर। अप्रैल के आखिरी और मई के पहले हफ्ते यहां का मंजर भयानक था। गांवों में आधे लोग खांसी-बुखार से पीड़ित थे, लेकिन किसी की जांच नहीं हो रही थी। ऐसे दिन भी बीते जब जिला सरकारी अस्पताल में एक दिन में 50 लोगों ने दम तोड़ दिया। जांच हुई नहीं तो रिकॉर्ड में ‘कोविड से मौत’ नहीं लिखा गया, पर लक्षण कोविड के ही थे। लोग टायफाइड और न्यूमोनिया की दवा खाते-खाते चल बसे। सोहागपुर, मध्य प्रदेश के उन इलाकों में है जहां कोविड-19 का कहर सबसे अधिक रहा। अब जरूर मौतों की संख्या कम हुई है, लेकिन यह बताता है कि महामारी की दूसरी लहर ने किस तरह ग्रामीण इलाकों में मौत का तांडव मचा रखा है। सिर्फ मध्य प्रदेश में नहीं, बल्कि हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक, बिहार... चारों दिशाओं में। स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार 5-11  मई के दौरान देश के 528 यानी 71 फीसदी जिलों में संक्रमण की दर 10 फीसदी से ज्यादा थी। एक्टिव केस 13 राज्यों में एक लाख से अधिक और छह राज्यों में 50 हजार से एक लाख तक थे। राष्ट्रीय स्तर पर पॉजिटिविटी रेट 21 फीसदी है और 42 फीसदी जिले राष्ट्रीय औसत से ऊपर हैं। एसबीआइ की एक रिपोर्ट के अनुसार 48.5 फीसदी नए मामले ग्रामीण जिलों से आ रहे हैं।

लेकिन यहां होने वाली ज्यादातर मौतें बेहिसाब हैं। बिना जांच गिनती कैसे होगी। आउटलुक ने कई राज्यों में ब्लॉक और पंचायत स्तर के शासकीय अधिकारियों से बात की। सबने वास्तविकता तो बताई लेकिन यह भी कहा कि उन्हें हकीकत न बताने का हुक्म मिला है। मौतों की हकीकत जाननी हो तो स्थानीय अखबारों के श्रद्धांजलि कॉलम देखिए। जयपुर के एक अखबार में एक दिन में सात पन्नों में श्रद्धांजलि छपी। गुजरात के भावनगर के एक अखबार में एक दिन में 200 श्रद्धांजलि प्रकाशित हुईं, जबकि उस दिन पूरे प्रदेश में मरने वालों का सरकारी आंकड़ा इससे कम था।

ऐसे हालात में केंद्र सरकार के मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार के. विजयराघवन ने यह कह कर चिंता बढ़ा दी कि कोरोना की तीसरी लहर भी आएगी। उन्होंने इसका समय तो नहीं बताया, लेकिन वायरोलॉजिस्ट डॉ. वी. रवि का मानना है कि सरकारों को अक्टूबर से दिसंबर के बीच इससे निपटने की तैयारी रखनी चाहिए। बच्चों को अभी वैक्सीन नहीं लग रही है, इसलिए उनके संक्रमित होने की आशंका अधिक होगी। डॉ. रवि कर्नाटक की कोविड-19 टेक्निकल एडवाइजरी समिति के सदस्य भी हैं। उनका मानना है कि भारत ने पहली लहर से तो अच्छे से निपटा, लेकिन दूसरी लहर की चेतावनी को नजरअंदाज किया गया। हालांकि विजयराघवन के अनुसार दूसरी लहर के इतने घातक होने की आशंका नहीं थी।

हालात इतने बुरे हैं कि आज वह व्यक्ति अपने आपको भाग्यशाली समझता है जिसके परिवार में कोरोना से एक भी मौत न हुई हो। आइसीएमआर के महानिदेशक डॉ. बलराम भार्गव के अनुसार वायरस युवाओं को भी संक्रमित कर रहा है, लेकिन ज्यादा उम्र वाले अधिक प्रभावित हो रहे हैं। दोनों लहरों में 70 फीसदी से अधिक मरीज 40 साल से अधिक उम्र वाले हैं। दूसरी लहर की गंभीरता, खास कर गांवों में बढ़ते मामलों को देखते हुए उन्होंने कहा है कि रैपिड एंटीजन टेस्ट बढ़ाने की जरूरत है, ताकि शुरू मंे ही मामलों का पता चले। अभी 70 फीसदी आरटी-पीसीआर और 30 फीसदी रैपिड एंटीजन टेस्ट होते हैं।

गांवों के हालात

अभी जिन राज्यों में संक्रमण बढ़ रहा हैं, उनमें उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों की स्थिति ज्यादा खराब लग रही है। पिछले दिनों ललितपुर जिले के अनेक गांवों में खांसी-बुखार और सांस की तकलीफ से मरने वालों की संख्या अचानक बढ़ गई। स्थानीय लोगों का कहना है कि पहली बार मलेरिया और टायफाइड व्यक्ति से व्यक्ति में फैल रहा है और वे मर रहे हैं। जाहिर है, ये लक्षण कोरोना के ही हैं। देवरिया जिले की बरहद तहसील में रमेश श्रीवास्तव की मौत के बाद परिजन दाह संस्कार के लिए गए तो उन्हें 41वां नंबर मिला। उस दिन 60 से भी ज्यादा नंबर दिए गए थे। यानी एक-दो दिन में इतनी मौतें तो हुई ही थीं। गोरखपुर जिले के कुछ गांवों में रैपिड रिस्पांस टीम ने सिर्फ तीन दिन में बुखार के पांच हजार मरीजों की पहचान की। यहां हर दूसरे घर में बुखार के मरीज हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार के सीमाई इलाके में गंगा में करीब 100 लाशें तैरती पाई गईं। बिहार के बक्सर में 71 और उत्तर प्रदेश के गाजीपुर में 25 शव मिले। बक्सर पुलिस का कहना है कि ये शव गाजीपुर की तरफ से आए हैं। उन्नाव में अनेक लाशें रेत में दबा देने का मामला सामने आया है।

प्रदेश में कई सांसदों-विधायकों की मौत हो चुकी है। भाजपा नेता मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से शिकायत कर रहे हैं कि उनकी बात भी सुनी नहीं जा रही है। इस बीच, अलीगढ़ में लोग किसी बड़ी अनहोनी की आशंका में सहमे हुए हैं। यहां के एएमयू में तीन हफ्ते में 17 प्रोफेसरों की मौत हो चुकी है। दूसरी लहर में इन्हें मिलाकर करीब 50 एएमयू कर्मियों की मौत हो चुकी है।

यूपी पंचायत चुनाव के बाद वहां से लौटने वालों के कारण मध्य प्रदेश के सीमाई जिलों में कोरोना तेजी से फैल रहा है। सिंगरौली में संक्रमण दर 35.9 फीसदी है। यूपी से लगने वाले दूसरे जिलों में भी रोजाना अनेक नए मामले आ रहे हैं। प्रदेश के 45 जिलों में संक्रमण दर 10 फीसदी से अधिक है। फिर भी विकास एवं पंचायत विभाग के प्रमुख सचिव उमाकांत उमराव कहते हैं, “शुरू में ही बाहर से आने वालों की पहचान कर अलग करने लगे। इससे अनेक गांवों को संक्रमण से बचाने में कामयाब हुए।”

हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री और नेता प्रतिपक्ष भूपेंद्र सिंह हुड्डा कहते हैं, “रोहतक के गांव टिटौली में चार दिनों में 42 लोगों की मौत से स्थिति यह हो गई कि खेतों में अंतिम संस्कार करना पड़ा।” भिवानी जिले के गांव मुढाल खुर्द में एक हफ्ते में 25 जानें चली गईं। सरपंच विजयपाल सिंह रोहिल्ला ने बताया, “15,000 की आबादी वाले गांव से 11 किलोमीटर दूर तक कोरोना जांच की सुविधा नहीं है।” मुढाल खुर्द पूर्व उपप्रधानमंत्री देवीलाल की ससुराल रही है। स्वास्थ्य मंत्री अनिल विज खुद कहते हैं, “कोरोना बुलेटिन में गांवों के आंकड़े शामिल नहीं हैं।” सरकारी आंकड़ों मुताबिक 23 अप्रैल से 8 मई तक, 15 दिनों में 1.90 लाख संक्रमित हुए और करीब 2000 लोगों की मौत हो गई। ग्रामीण इलाके भी शामिल किए जाएं तो यह आंकड़ा कई गुना बढ़ सकता है।

हरियाणा के गांव टिटौली में चार दिनों में 42 लोगों की मौत से स्थिति यह हो गई कि खेतों में उनका अंतिम संस्कार करना पड़ा

पहली लहर में काफी हद तक सुरक्षित रहे पंजाब के ग्रामीण इलाकों में इंग्लैंड के वैरिएंट से मातम पसरा है। फरवरी और मार्च में पंजाब लौटे एनआरआइ की वजह से यहां 80 फीसदी संक्रमितों में इंग्लैंड का स्ट्रेन मिला। एनआरआइ बेल्ट दोआबा में फरवरी से हुई कुल मौतों में से 60 फीसदी ग्रामीण इलाकों में हुई हैं। अप्रैल के दूसरे हफ्ते से माझा और मालवा के ग्रामीण इलाकों में भी संक्रमण और मौतें तेजी से बढ़ी हैं।

बिहार में कोरोना विस्फोट तो पहले हो चुका था, पर सरकार की नींद टूटी हाइकोर्ट के तेवर से। कोर्ट ने कहा, सरकार लॉकडाउन पर निर्णय करे वर्ना हम करेंगे। पटना का एम्स हो, आइजीआइएमस, पीएमसीएच, एनएमसीएच या दूसरे अस्पताल, हर जगह बेड और ऑक्सीजन के अभाव में लोग दम तोड़ते रहे। हद तो तब हुई जब मुख्य सचिव अरुण कुमार सिंह की भी कोरोना से मौत हो गई। नेता भी अछूते नहीं रहे। भाजपा एमएलसी टुन्ना पांडेय, हरिनारायण चौधरी, जदयू एमएलसी तनवीर अख्तर, जदयू विधायक मेवालाल चौधरी नहीं रहे। दूसरी ओर, सरकार की खामियां बताने वाले नेता पप्पू यादव को 1989 के एक मामले में गिरफ्तार कर लिया गया।

आकार और आबादी के हिसाब से छोटा प्रदेश होने के बावजूद झारखंड में संक्रमण की तीव्रता तीखी है। अस्पताल परिसर में लोग दम तोड़ते नजर आए तो बेड, दवा, ऑक्सीजन और एंबुलेंस की धड़ल्ले से ब्लैमार्केटिंग भी होती रही। रांची, धनबाद, जमशेदपुर, हजारीबाग में संक्रमण का प्रभाव ज्यादा ही है। प्रदेश के 15 जिलों में संक्रमण की दर 15 फीसदी से ज्यादा है।

छत्तीसगढ़ में कोरोना 10 हजार से अधिक लोगों की जान ले चुका है। इनमें से 5,000 मौतें अप्रैल मध्य के बाद हुई हैं। रायपुर और भिलाई के बाद बस्तर और दूसरे ग्रामीण अंचलों में महामारी फैल रही है। राजस्थान में जयपुर के बाद बीकानेर और राजसमंद जिले सर्वाधिक प्रभावित हैं। यहां तो संक्रमण दर 50 फीसदी से भी ज्यादा है। उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल में भी रोजाना 100 से ज्यादा लोगों की कोविड-19  से मौत हो रही है।

गुजरात की राजधानी गांधीनगर के लोग 16 अप्रैल की तारीख कभी नहीं भूल पाएंगे, उस दिन एक साथ 89 शवों की अंत्येष्टि हुई थी। सूरत में करीब 1,900 मरीजों की जान जा चुकी है। राजकोट में दो हफ्ते में 650 से ज्यादा मौतों की खबर है। इसी तरह भावनगर जिले के चार सर्वाधिक प्रभावित गावों में दो महीने में 225 जानें जा चुकी हैं। लेकिन सरकार अपना रिकॉर्ड खराब नहीं करना चाहती। मुख्यमंत्री विजय रूपाणी ने 8 मई को सार्वजनिक बयान में कहा कि राज्य के किसी अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी नहीं है, न ही ऑक्सीजन की कमी से मौत हुई है। जबकि उन्हीं की सरकार ने कोर्ट में कहा, “ऑक्सीजन की कमी से पूरा सिस्टम भीषण दबाव में है। 23 अप्रैल से 7 मई के बीच रोजाना औसत मांग 1,232 टन की रही।”

नए मामलों और मौत दोनों में कर्नाटक, महाराष्ट्र के करीब पहुंच गया है। यहां दैनिक संक्रमण की संख्या 40,000 और मृतकों की 600 के पास पहुंच गई है। महाराष्ट्र में 12 मई को 793 मौतें हुईं। दिल्ली में संक्रमण तो घटा है, लेकिन अब भी हर दिन 300 से ज्यादा मौतें हो रही हैं। वैसे यहां भी आंकड़ों की बाजीगरी हो रही है। अप्रैल के आखिरी हफ्ते में यहां रोजाना 700 से अधिक शवों का अंतिम संस्कार कोविड प्रोटोकॉल के साथ किया गया, लेकिन किसी भी दिन मौतों की संख्या इतनी नहीं बताई गई। मई के दूसरे हफ्ते में रोजाना करीब 450 शवों का अंतिम संस्कार कोविड प्रोटोकॉल के तहत किया जा रहा है, जबकि मौतें 300 से कुछ अधिक बताई जा रही हैं। यहां 29 अप्रैल को सबसे अधिक 717 शवों का अंतिम संस्कार कोविड नियमों के साथ किया गया था। 

बेफिक्र सिस्टम

देश में रोजाना चार लाख से अधिक संक्रमण और चार हजार से अधिक मौतें हो रही हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि सरकारें क्या कर रही हैं। सरकारों की भूमिका अदालतों की टिप्पणियों से जाहिर हो जाती है। पहले तो दिल्ली में ऑक्सीजन की कमी पर दिल्ली और केंद्र सरकार के बीच कई दिनों तक जुबानी जंग चलती रही और लोग मरते रहे। तब हाइकोर्ट ने दोनों से कहा कि आप शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर गड़ाए बैठे हैं, पर हम ऐसा नहीं कर सकते। बिहार के हाल से खफा पटना हाइकोर्ट ने नीतीश सरकार से कहा कि हमने आप पर भरोसा करके गलती की, हमें बहुत पहले स्वास्थ्य व्यवस्था सेना के हाथों में सौंप देना चाहिए था। इलाहाबाद हाइकोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार को फटकार लगाते हुए कहा कि ऑक्सीजन की कमी से मौत नरसंहार से कम नहीं।

पहली लहर के दौरान मौतें बीमारी से हुई थीं, लेकिन दूसरी लहर में मौतें खासकर ऑक्सीजन के अभाव में हो रही हैं। सरकारों की बेफिक्री देख सुप्रीम कोर्ट को राज्यों को ऑक्सीजन के आवंटन के लिए टास्क फोर्स का गठन करना पड़ा।

वायरस का नया रूप

विशेषज्ञ कह रहे हैं कि वायरस पर नियंत्रण का एकमात्र उपाय जल्दी टीकाकरण है। जितनी देरी होगी, वायरस उतने नए रूप लेगा और तब उस पर टीका बेअसर हो सकता है। यह अंदेशा सच साबित होने लगा है। दिल्ली के सरोज सुपर स्पेशलिटी अस्पताल के डॉ. अनिल कुमार रावत की 8 मई को कोविड से मौत हो गई। उन्होंने वैक्सीन की दूसरी डोज मार्च की शुरूआत में ही ली थी।

भारत में कोरोनावायरस के चार म्यूटेंट ज्यादा सक्रिय हैं। ये इंग्लैंड, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका और भारत के स्ट्रेन हैं। सबसे घातक भारतीय स्ट्रेन बी.1.617 (डबल म्यूटेंट) ही है। यह सबसे पहले महाराष्ट्र में पाया गया था। जीआइएसएड के अनुसार डबल म्यूटेंट वायरस शुरुआती कोविड वायरस की तुलना में 2.6 गुना और इंग्लैंड के स्ट्रेन के मुकाबले 60 फीसदी अधिक संक्रामक है। डॉ. रवि के मुताबक कर्नाटक में मार्च के अंत में 5 से 10 फीसदी सैंपल में यह स्ट्रेन था, अब 45 फीसदी सैंपल में यह पाया जा रहा है। यहां इंग्लैंड का बी.1.1.7 वैरिएंट भी तेजी से फैल रहा है। पश्चिम बंगाल, गुजरात, छत्तीसगढ़, झारखंड और उड़ीसा में भी इससे काफी लोग संक्रमित हो रहे हैं। इंग्लैंड का वैरिएंट पंजाब, दिल्ली और तेलंगाना में भी पाया गया। चिंता की बात है कि भारतीय वैरिएंट के तीन नए रूप सामने आ चुके हैं- बी.1.617.1, बी.1.617.2 और बी.1.617.3। इनके ज्यादा संक्रामक और घातक होने की आशंका है।

सरकार की किरकिरी

प्रधानमंत्री ने इस साल 28 जनवरी को वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की बैठक में दावा किया था कि भारत ने कोरोना पर नियंत्रण करके दुनिया को बड़ी त्रासदी से बचाया है। इसके बाद 7 मार्च को स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने भारत में कोरोना का ‘एंडगेम’ बताया। शीर्ष पद पर बैठे लोगों के ऐसे बयानों के कारण ही लोग वायरस को हल्के में लेने लगे। अब जब हताश-परेशान लोग अपने प्रियजनों को बचाने के लिए सोशल मीडिया पर गुहार लगा रहे हैं तो सरकार नाकामी छिपाने के लिए उस पर भी शिकंजा कस रही है। अंतरराष्ट्रीय जगत में भारत सरकार की तब काफी किरकिरी हुई जब मेडिकल पत्रिका द लांसेट ने लिखा कि “प्रधानमंत्री मोदी की सरकार कोविड महामारी से निपटने से ज्यादा ट्विटर से अपनी आलोचनाएं हटवाने में तत्पर है। यह अक्षम्य है।” एक रिपोर्ट के हवाले से पत्रिका ने लिखा है कि 1 अगस्त तक भारत में कोविड से मरने वालों की संख्या 10 लाख हो जाएगी।जिम्मेदार कौनः बिहार के बक्सर में 70 से ज्यादा लाशें नदी में तैरती मिलीं

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आइएमए) के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डॉ. नवजोत दहिया ने कुंभ मेला और राजनीतिक रैलियों को अनुमति देने के कारण प्रधानमंत्री को कोरोनावायरस का ‘सुपरस्प्रेडर’ कह दिया। कभी भाजपा की सहयोगी रही शिवसेना ने तो अपने मुखपत्र सामना में लिखा है कि 70 वर्षों में नेहरू, शास्त्री, इंदिरा, राजीव गांधी, नरसिंह राव और मनमोहन सिंह ने जो काम किया उसी की बदौलत आज महामारी से लड़ पा रहे हैं।

वैक्सीन (राज) नीति

प्रधानमंत्री ने 6 मई को कहा कि राज्यों को टीकाकरण की गति धीमी नहीं करनी चाहिए। लेकिन यह हो कैसे? सभी राज्यों में वैक्सीन की कमी है। कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में सलाहकार रह चुके जाने-माने अर्थशास्त्री डॉ. संतोष मेहरोत्रा इसके लिए वैक्सीन नीति को जिम्मेदार मानते हैं। अमेरिकी सरकार ने अगस्त 2020 में वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों में करीब 45,000 करोड़ रुपये का निवेश किया था और 40 करोड़ डोज के ऑर्डर दिए थे। यूरोपियन यूनियन ने नवंबर 2020 में 80 करोड़ डोज के ऑर्डर दिए। भारत ने पहला ऑर्डर जनवरी 2021 में दिया, वह भी सिर्फ 1.6 करोड़ डोज का। वे सवाल करते हैं, “सरकार ने बजट में वैक्सीन के लिए 35,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है। यह रकम कब इस्तेमाल होगी?”

नई नीति के अनुसार आधी वैक्सीन केंद्र सरकार खरीदेगी और आधी राज्य तथा निजी अस्पताल खरीदेंगे। जब केंद्र सरकार सीरम इंस्टीट्यूट से 150 रुपये में खरीद रही थी, तब भी कंपनी को फायदा हो रहा था। केंद्र ने कीमत की खुली छूट दे दी तो कंपनी ने राज्यों के लिए 300 रुपये कीमत तय की। जब हर शख्स को टीका लगाने की जरूरत है तो बेहतर होता कि केंद्र टीका खरीद कर राज्यों को देता। मेहरोत्रा कहते हैं, “केंद्र की वैक्सीन नीति में राजनीतिक अवसरवाद झलकता है।” अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज भी कहते हैं, “सरकार ने देशवासियों को दो कंपनियों के रहमों करम पर छोड़ दिया है। अगर कंपनियों को निजी अस्पतालों से अधिक कीमत मिलेगी तो वे राज्यों को वैक्सीन बेचने में क्यों रुचि दिखाएंगे?”

1 मई को नई नीति लागू होने के बाद टीकाकरण कम हो गया है। अभी रोजाना 15-16 लाख टीके लग रहे हैं, जबकि पहले 30-35 लाख टीके लग रहे थे। अभी तक 9.6 फीसदी आबादी को एक डोज और 2.5 फीसदी को दो डोज लगी है। तुलनात्मक रूप से देखें तो 30 अप्रैल तक अमेरिका में 50.4 फीसदी, इंग्लैंड में 43.3 फीसदी और जर्मनी में 26.7 फीसदी लोगों को टीका लग चुका था। भारत में निजी अस्पताल वैक्सीन की कीमत 700 से 1500 रुपये तक ले रहे हैं। यह न सिर्फ दुनिया में सबसे अधिक है, बल्कि भारत उन चुनिंदा देशों में है जहां लोगों से वैक्सीन की कीमत वसूली जा रही है।

वैक्सीन नीति पर सुप्रीम कोर्ट ने भी सख्त आपत्ति जताई है। उसने भी सुझाव दिया कि केंद्र निर्माताओं से तय कीमत पर वैक्सीन खरीदे और राज्य को उपलब्ध कराए। जवाब में केंद्र ने आग्रह किया है कि कोर्ट इसमें दखल न दे। केंद्र ने 28 अप्रैल को सीरम इंस्टीट्यूट और भारत बायोटेक को 16 करोड़ डोज के लिए 2500 करोड़ रुपये दिए हैं। इनकी सप्लाई मई से जुलाई के बीच होगी।

अप्रैल में सीरम और भारत बायोटेक की रोजाना उत्पादन क्षमता 25.3 लाख डोज की थी। इस गति से देश में सबको टीका लगाने में डेढ़ साल लग जाएंगे। इसलिए विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार को कंपलसरी लाइसेंसिंग करते हुए बड़े पैमाने पर वैक्सीन उत्पादन करवाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट भी यह बात कह चुका है। दरअसल, पेटेंट कानून के तहत विशेषाधिकार का इस्तेमाल करते हुए सरकार दूसरी कंपनियों को वैक्सीन बनाने का अधिकार दे सकती है। दूसरा उपाय यह है कि वह कंपनी से पेटेंट अधिकार खरीद ले, और दूसरी कंपनियों से भी वैक्सीन बनाने को कहे।

विशेषज्ञ भले वैक्सीन को एकमात्र इलाज बता रहे हों, इसका उत्पादन बढ़ाने पर सरकार अभी तक चुप है। जब बेड, दवा और ऑक्सीजन की मुंहमांगी कीमत देने के बावजूद लोग अपने प्रियजनों को नहीं बचा पा रहे हैं, तो रोजाना हजारों मौतों का जिम्मेदार आखिर कौन सा ‘सिस्टम’ होगा?

(साथ में चंडीगढ़ से हरीश मानव, भोपाल से शमशेर सिंह, रांची से नवीन कुमार मिश्र)

टीके के बाद मौत की आशंका

80 फीसदी कम

पब्लिक हेल्थ इंग्लैंड नाम की संस्था का दावा है कि एस्ट्राजेनेका का पहला टीका लगाने के बाद मौत की आशंका 80 फीसदी कम हो जाती है। भारत में सीरम इंस्टीट्यूट यही टीका बना रही है। संस्था के मुताबिक फाइजर का पहला डोज लेने के बाद मौत की आशंका 80 फीसदी और दूसरे डोज के बाद 97 फीसदी घट जाती है।

‘एबी’ और ‘बी’ ब्लड ग्रुप वालों में संक्रमण ज्यादा!

सीएसआइआर का कहना है कि ‘एबी’ और ‘बी’ ब्लड ग्रुप वालों में कोरोना संक्रमण की आशंका ज्यादा और ‘ओ’ ब्लड ग्रुप वालों में सबसे कम होती है। ओ ब्लड ग्रुप वाले संक्रमित होने पर भी लक्षण हल्के रहते हैं। सीएसआइआर ने देश के 10,000 लोगों का सैंपल लेकर यह अध्ययन किया है। इसमें 140 डॉक्टरों ने हिस्सा लिया। अध्ययन में यह भी पता चला कि मांसाहारी लोगों में संक्रमण की आशंका कम होती है।

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