केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने ही बताया है कि संपूर्ण भारत में दिल्ली-गुड़गांव-फरीदाबाद सर्वाधिक प्रदूषित हैं। इस क्षेत्र में एयर क्वालिटी इंडेक्स चार सौ से अधिक हो चुका है। आंखों में जलन और सांस लेने में रुकावट के साथ खांसी और शारीरिक कष्ट ने हजारों लोगों की हालत खराब कर दी। चिकित्सा विशेषज्ञों ने हाल में एक शोध के बाद यह भी बता दिया है कि जहरीले प्रदूषण से केवल श्वास-तंत्र ही प्रभावित नहीं होता, वरन हड्डियों को भी क्षति पहुंचती है। दमा की तरह हड्डी रोग भी जीवन पर्यंत तकलीफ दे सकते हैं। एशिया के कुछ अन्य देशों में भी प्रदूषण एक बड़ी समस्या है, लेकिन भारत की स्थिति सबसे बदतर है। चीन, जापान या थाईलैंड में औद्योगिक प्रदूषण है, लेकिन नव वर्ष या अन्य उत्सवों के दौरान भी इतनी भयावह जानलेवा आतिशबाजी से वातावरण प्रदूषित नहीं होता। भारत के किसी ग्रंथ में इतने बड़े पैमाने पर बारूद से पटाखों के उपयोग की आवश्यकता नहीं बताई गई है। विजयादशमी से दीपावली और उत्तर भारत के पर्व, छठ के अवसर पर प्रकृति-नदी के जल, सूर्य, वायु और अग्नि के देवताओं की आराधना का प्रावधान परंपरा में है। लेकिन प्रगति के साथ पटाखों के वैध-अवैध कारखाने बन गए हैं। ऐसे कारखानों में बाल-मजदूरों के जरिये बारूद से बम बनवाने का गंभीर और घृणित अपराध चल रहा है। लेकिन केंद्र या राज्य सरकारें कागजी या डिजिटल अपीलों के अलावा पटाखों पर अंकुश के लिए कोई कदम नहीं उठातीं। हर साल पटाखों के किसी न किसी कारखाने में दुर्घटना से लोग मरते हैं। स्वयंसेवी संगठनों की आवाज नहीं सुनी जाती। शराब की तरह पटाखों के धंधे से होने वाली अरबों की कमाई का एक हिस्सा टैक्स के नाम पर सरकारी खजाने में पहुंचता है। लेकिन इस आतिशबाजी के प्रदूषण और अन्य क्षति से जनता ही नहीं सरकार को चिकित्सा व्यवस्था में करोड़ों रुपये खर्च करने पड़ते हैं। राष्ट्रीय खतरे की इस स्थिति में सरकारों, संसद और समाज को भविष्य की लक्ष्मण रेखा तय करनी चाहिए।
जहरीले धुएं का अभिशाप
दुनिया के शीर्ष देशों में गिने जाने वाले भारत की राजधानी अपने ही कर्मों से शापग्रस्त लग रही है। संस्कृति और संपन्नता के उल्लास में करोड़ों रुपयों की आतिशबाजी और सफल पड़ोसी कृषि राज्यों में खेतों की सफाई के लिए लगाई जा रही आग के धुएं से लाखों दिल्लीवासी सांस में जहरीली हवा ग्रहण कर रहे हैं।
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