यही कारण है कि बी.सी.सी.आई. ने कल खिलाड़ियों की पांच सदस्यीय चयन समिति में दो ऐसे नाम रखे हैं, जिन्होंने अपनी जिंदगी में एक भी टेस्ट मैच तक नहीं खेला है। सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस आर.एस. लोढ़ा कमेटी ने अपनी सिफारिश में कहा था कि ‘टीम चुनने के लिए तीन सदस्यीय पैनल रखा जाए और इन चयनकर्ताओं के लिए टेस्ट मैंचों का अनुभव अनिवार्य हो।’ बी.सी.सी.आई. अनियमितताओं, घोटालों, मैच फिक्सिंग के आरोपों को लेकर पिछले वर्षों के दौरान संसद के अंदर-बाहर, अन्य सार्वजनिक मंचों और मीडिया के साथ अदालतों तक मामले पहुंचे हैं। लेकिन बोर्ड में विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं का वर्चस्व होने के कारण कोई कड़ी कार्रवाई नहीं हो पाती है। क्रिकेट के धंधे में राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता ताक पर रखकर गले में हाथ डाल सीटियां बजाते हुए करोड़ों रुपये खर्च कर दिए जाते हैं। क्रिकेट के खिलाड़ी, अंपायर के चयन में भी मनमानी चलती है। कीर्ति आजाद जैसा कोई पुराना क्रिकेट चैंपियन गड़बड़ियों को उजागर करे, तो उसे राजनीतिक मैदान से भी आउट घोषित कर दिया जाता है। अब तो इंतिहा हो गई है। जस्टिस लोढ़ा कमेटी की सिफारिशों को मानना तो दूर रहा, उनके नाम का दुरुपयोग कर बी.सी.सी.आई. के सचिव ने एक मनमानी टिप्पणी सहित पत्र जारी कर दिया। इस पर मानहानि का प्रकरण भी बन सकता है। कमेटी की सिफारिशों पर पुनर्विचार के लिए अलग से अभियान छेड़ दिया गया है। बोर्ड ने अपनी वार्षिक बैठक की रिपोर्ट भी अब तक जारी नहीं की है। बोर्ड के वर्तमान अध्यक्ष अनुराग ठाकुर और आई.सी.सी. के प्रमुख शशांक मनोहर के बीच टकराव की सूचनाएं भी चर्चित हैं। मतलब, हर स्तर पर अस्तित्व की लड़ाई है। वैसे भी दुनिया के कितने देशों में क्रिकेट खेला जाता है? क्रिकेट टीम के जितने खिलाड़ी होते हैं, उतने देशों में ही दादागिरी से धंधा तो जारी रह सकता है।
क्रिकेट के ‘दादाओं’ को परवाह नहीं
अरबों रुपयों के साम्राज्य पर बैठे क्रिकेट के दादाओं को किसी सरकार, पार्टी ही नहीं सुप्रीम कोर्ट की ओर से नियुक्त पूर्व वरिष्ठ न्यायाधीशों की किसी सिफारिश, सलाह, निर्देश की परवाह नहीं है। मुंबई में सड़क पर खोमचा लगाकर डोसा-भेल बेचने वाले से सरकार टैक्स वसूलने के लिए कदम उठा रही है, लेकिन क्रिकेट के खेल के नाम पर अपना धंधा चला रहे बी.सी.सी.आई. का बाल भी बांका नहीं कर सकती।
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