“गणतंत्र दिवस की घटना और सरकार के रवैए से किसान आंदोलन अब खासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, राजस्था न के साथ देश के कई अन्य हिस्सों में आन-बान-शान का मुद्दा बना”
“उस शाम भगवान, अल्लाह, वाहे गुरु इसी मंच पर मौजूद थे। पानी बहा, अगर आग भड़कती तो क्या होता!....आज गांधी जी का शहीदी दिवस है, क्या शांति दोगे...300-400 किलोमीटर चारों ओर के लोग दिल्ली को कोली भर लो, छोड़ना नहीं। तभी यह सुधरेगी।“
राकेश टिकैत, राष्ट्रीय प्रवक्ता, भारतीय किसान यूनियन, गाजीपुर बॉर्डर, 30 जनवरी
इस बयान में कई समीकरणों के बनने-बिगड़ने के संदेश छुपे हो सकते हैं, बशर्ते कोई पढ़ना चाहे। और दिल्ली-उत्तर प्रदेश की सीमा पर गाजीपुर में एनएच-24 पर 28 जनवरी की उस गहराती शाम पर गौर करें तो पल भर में कैसे वर्षों के बने समीकरण उलट-पुलट जाते हैं, यह भी राजनीति और समाज शास्त्रियों के लिए विचार का विषय हो सकता है। वह शाम नतीजे में क्या लेकर आई! और ठहरिए, वह सिर्फ राकेश टिकैत के आंसुओं से नहीं, बल्कि सरकार और सत्तारूढ़ दल की कार्रवाइयों से भी व्यापक असर पैदा कर गई। फिर तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा से लोगों के काफिले चलने लगे और उजड़ता गाजीपुर बॉर्डर धरनास्थल रातोरात गुलजार हो गया। अगले दिन से महापंचायतों, पंचायतों, खाप पंचायतों, सर्वखाप पंचायतों, जाति पंचायतों, सर्व जाति पंचायतों का सिलसिला पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब और राजस्थान में शुरू हो गया। मध्य प्रदेश के ग्वालियर में किसान पंचायत तक से दिल्ली कूच करने के फैसले आने लगे।
लिहाजा, गणतंत्र दिवस को किसान ट्रैक्टर परेड में आइटीओ चौक और लाल किले पर निशान साहेब फहराने की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं, जिसे किसान आंदोलन के नेता साजिशन कार्रवाइयां बता रहे हैं, के बाद किसान आंदोलन की मंद पड़ी आंच फिर लहलहाने लगी। 28 जनवरी की रात पहली आनन-फानन पंचायत राकेश टिकैत के गांव, उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के सिसौली में हुई। अगले दिन मुजफ्फरनगर में महापंचायत हुई, जहां नए सामाजिक-राजनैतिक समीकरण का आगाज दिखा। उसमें 2013 के बाद पहली दफा बड़ी संख्या में मुसलमान भी जुटे और रालोद के जयंत चौधरी से लेकर कांग्रेस और सपा के नेता भी पहुंचे। स्थानीय जाट नेताओं के साथ मंच पर इलाके के अहम मुसलमान नेता गुलाम मुहम्मद जौला भी मौजूद थे। जौला ने कहा कि 2013 के दंगों में उनके समुदाय को गहरे दाग लगे। फौरन बाद, राकेश टिकैत के भाई नरेश बोले, भाजपा के साथ जाना बड़ी गलती थी। उन्होंने दंगों की कड़वाहट फैलने और अजित सिंह की हार के लिए भी अफसोस जाहिर किया। इन दोनों ही बातों में पुराने घावों के भरने और नए रिश्ते बनने का संदेश था।
यह भी कहा जा सकता है कि 2013 के दंगों के पहले के हालात लौटने की सुगबुगाहटें शुरू हो गई हैं। दरअसल, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों और मुसलमानों के रिश्ते उसके पहले तक साझा हुआ करते थे। इन्हीं समीकरणों के सहारे न सिर्फ पूर्व प्रधानमंत्री चरण सिंह ने अपनी सियासी जमीन तैयार की थी, बल्कि अस्सी के दशक में महेंद्र सिंह टिकैत ने भारतीय किसान यूनियन बनाई। बिजली की दरों, गन्ने की कीमतों और बीज-खाद की समस्याओं को लेकर पहले मेरठ में लगभग महीने भर और बाद में दिल्ली के बोट क्लब पर हफ्ते भर का ऐतिहासिक धरना बहुत लोगों को याद होगा। उन रैलियों और धरनों में नारे लगा करते थे, ‘हर हर महादेव, अल्ला ओ अकबर।’ यानी वह सांप्रदायिक सौहार्द ही जाटों की ताकत का बड़ा आधार रहा है।
1988 की यादः बोट क्लब पर महेंद्र सिंह टिकैत
मोटे तौर पर जाट कभी भी कांग्रेस या भाजपा के मुरीद नहीं रहे हैं। उनका फैलाव भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश से लेकर हरियाणा, राजस्थान और जट्ट सिखों के रूप में पंजाब में प्रभावी संख्या में है। उनकी सियासत उत्तर प्रदेश में चरण सिंह, हरियाणा में देवीलाल जैसे बड़े नेताओं के इर्द-गिर्द घूमता रहा है। पंजाब में अकाली दल का आधार मोटे तौर पर जट्ट सिख ही रहे हैं। राजस्थान के भी बड़े जाट नेता कांग्रेस में रहे हैं। 2014 में मोदी के नेतृत्व में भाजपा के उदय के बाद यह समीकरण जरूर बदला। लेकिन किसान आंदोलन ने नई आलोड़न पैदा कर दी है। उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर के बाद बागपत, बड़ौत, मथुरा, बिजनौर जैसी कई जगहों पर पंचायतों का सिलसिला जारी है। हरियाणा में जींद की महापंचायत के पहले सोनीपत, भिवानी, रोहतक के अलावा लगभग हर इलाके, गांव में पंचायतें हो रही हैं। पंजाब में भी ये पंचायतें जारी हैं। राजस्थान में नागौर, सिकर, चूरू, दौसा में पंचायतें हुईं। वहां सिर्फ जाटों की नहीं, बल्कि मीणा और अन्य जातियों के अलावा सर्व जाति पंचायतें भी हुईं। राजस्थान में जाट आबादी लगभग 9 फीसदी है। उनकी ताकत का अंदाजा इससे लग जाता है कि वहां छह जाट सांसद हैं, जिनमें पांच भाजपा में और एक हनुमान बेनिवाल हैं, जिनकी पार्टी ने किसान आंदोलन के पक्ष में एनडीए से नाता तोड़ लिया है।
इन सभी राज्यों में भाजपा के नेताओं पर काफी दबाव है और वे अपनी दिक्कतों का इजहार भी कर रहे हैं, क्योंकि लगभग हर राज्य में भाजपा नेताओं –कार्यकर्ताओं का हुक्का-पानी बंद करने के फैसले पंचायतें कर रही हैं। भाजपा नेताओं ने अपनी परेशानी पार्टी नेतृत्व से भी साझा की हैं। राजस्थान के एक सांसद कहते हैं, उन पर कांग्रेस में शामिल हो जाने का दबाव बन रहा है क्योंकि लोग अब भाजपा को पसंद नहीं कर रहे हैं।
लेकिन भाजपा नेतृत्व को अब भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भरोसा है। हालांकि 26 जनवरी की घटना के बाद सरकार और सरकारी पैरोकारों के हौसले बुलंद थे। उनमें किसान आंदोलन के मुद्दों से नहीं, बल्कि तिरंगे के अपमान की फिक्र के सहारे तीन विवादास्पद कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन को खत्म कर डालने का जोश मिल गया था। लाल किले की घटना के लिए 37 किसान नेताओं समेत तकरीबन 200 लोगों के खिलाफ एफआइआर दर्ज की गई और बाद में लुकआउट नोटिस जारी कर दी गई, जिसके तहत पासपोर्ट जमा करना है। इनमें वे सभी नेता हैं, जो सरकार से 13 दौर की बातचीत में शामिल रहे हैं। इसका फौरन असर भी दिखा। दिल्ली धरने से लौट रहे असम के दो किसान नेताओं को गुवाहाटी हवाई अड्डे पर गिरफ्तार कर लिया गया। अलबत्ता धाराएं लगाई गईं कोविड आपदा से संबंधित।
जाहिर है, इसका मकसद किसान नेताओं की देश में आवाजाही पर रोक लगाना हो सकता है। तीनों कृषि कानून जब 5 जून को अध्यादेश की शक्ल में आए, तो उनके खिलाफ सबसे पहले बिगुल बजाने वाले पंजाब के बुजुर्ग किसान नेता, भारतीय किसान यूनियन (राजेवाल) के अध्यक्ष बलबीर सिंह राजेवाल कहते हैं, “पहले एफआइआर दर्ज कर ली, लुकआउट नोटिस जारी कर दिया। फिर कारण बताओ नोटिस दिया जा रहा है। सरकार की मंशा स्पष्ट है, लेकिन हमारा आंदोलन शांतिमय तरीके से तब तक चलता रहेगा, जब तक तीनों काले कानून रद्द नहीं किए जाते और एमएसपी पर कानून बनाने के साथ हमारी बाकी मांगें नहीं मानी जातीं।”
यूं तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद के बजट सत्र के पहले सर्वदलीय बैठक में कहा, “किसान नेताओं से सरकार की बातचीत बस एक कॉल दूर है।” हालांकि उन्होंने अगले दिन यह भी कहा, “तिरंगे का अपमान बर्दाश्त नहीं होगा।” उनकी दोनों ही बातों पर किसान नेता सवाल उठा रहे हैं। एक तो वे लाल किले की घटना को साजिश बता रहे हैं, दूसरे, राकेश टिकैत ने कहा, “वह फोन नंबर सरकार सार्वजनिक कर दे, जिससे बात हो सके। मेरा तो नंबर सार्वजनिक कर दिया गया है, जिस पर तरह-तरह की गालियां दी जा रही हैं।”
उपद्रव और सख्ती का गवाह दिल्ली का लाल किला
जाहिर है, सरकार के तेवर स्पष्ट हैं। सो, 27 जनवरी से ही सख्ती शुरू हो गई। सबसे पहले हरियाणा के सभी टोल प्लाजा को पुलिस और भाजपा समर्थकों के बल पर खुलवाया गया। फिर पलवल बॉर्डर पर मध्य प्रदेश और आसपास के किसानों के धरनास्थल को कथित स्थानीय लोगों ने पुलिस की मदद से खाली करवाया। उसके बाद गाजीपुर बॉर्डर पर तकरीबन 3,000 पुलिस बल पहुंची, जहां से किसानों की ट्रैक्टर रैली बैरिकेड तोड़कर आइटीओ और लाल किले की ओर बढ़ चली थी और उत्तराखंड के एक किसान युवक की मौत से धरनास्थल पर मायूसी पसरी थी। पहले वहां बैठे राकेश टिकैत गिरफ्तारी देने को भी तैयार हो गए थे। लेकिन पुलिस ने घेराबंदी और गश्त शुरू कर दी और इसी दौरान उत्तर प्रदेश के लोनी से विधायक नंदकिशोर गूजर अपने कुछ सौ समर्थकों के साथ वहां पहुंचकर नारेबाजी करने लगे। बस क्या था, टिकैत ने मंच से कहा कि अब कोई गिरफ्तारी नहीं दी जाएगी... पुलिस घेरकर हमें भाजपा के गुंडों से पिटवाएगी? यहां खून बहेगा तो उसकी जिम्मेदार सरकार होगी। उसके कुछ पल बाद उनके रोने के दृश्य और गांववालों से पहुंचने की अपील वायरल हुई।
हालांकि इससे पुलिस और भाजपा समर्थकों के रवैए में फर्क नहीं आया। 29 जनवरी को टिकरी बॉर्डर और सिंघू बॉर्डर पर नारेबाजी हुई। सिंघू बॉर्डर पर किसानों के उसी स्वर्ण सिंह पंधेर गुट पर हमले हुए, जिसने संयुक्त किसान मोर्चे और दिल्ली पुलिस के बीच ट्रैक्टर परेड के तय रूट से अलग हटकर 'परेड रोड, रिंग रोड' का नारा दिया था और रैली भटक गई थी। उसमें कई किसान घायल और गिरफ्तार किए गए। कथित तौर पर पुलिस संरक्षण में आए नकाबपोश प्रदर्शनकारियों की रिपोर्ट करने के लिए दो पत्रकारों को भी गिरफ्तार कर लिया गया, जिसमें एक को तो अदालत से जमानत लेनी पड़ी। पत्रकारों पर 26 जनवरी को आइटीओ पर कथित तौर पर ट्रैक्टर पलटने से मौत की खबर को प्रदर्शनकारियों के हवाले से पुलिस की गोली का शिकार बताने के लिए भी राजद्रोह के मुकदमे जड़ दिए गए, जिसकी पत्रकार संगठनों और एडीटर्स गिल्ड ने आलोचना की।
लेकिन पुलिस की सख्ती की कहानी सिर्फ इतनी भर नहीं है। गाजीपुर, सिंघू और टिकरी बॉर्डरों पर 12-13 कतार की बैरिकेडिंग लगाई गई। उन पर कंटीले तारों का गुच्छा ठीक वैसे ही बिछाया गया, जैसा एलओसी पर देखने को मिलता है। सीमेंट की बैरिकेड के बीच मोटी कंक्रीट की दीवार बना दी गई। सड़क पर 10-11 फुट गहरी खाइयां खोद दी गईं और सड़क पर मोटी-मोटी कीलें बाकायदा सीमेंट-गारे के साथ गाड़ दी गईं। जब यह सब सुर्खियों में छाया तो दिल्ली पुलिस के आयुक्त एस.एन. श्रीवास्तव ने कहा, “मुझे हैरानी है कि जब ट्रैक्टरों में बैरिकेड तोड़ने के उपाय लगाए लगाए गए तो सवाल नहीं उठा।” जाहिर है, रवैया सख्ती का ही है।
गाजीपुर बॉर्डर पर किसानों को रोकने के लिए लगीं कीलें
लेकिन यही सख्ती किसानों में शायद दमखम भर रही है। राजेवाल कहते हैं, “केंद्र में सत्तासीन भाजपा और आरएसएस किसान धरनास्थलों पर हमलों के लिए सीधे जिम्मेदार हैं। किसानों के साथ आम लोग भी इस साजिश को समझ चुके हैं। देश के विभिन्न राज्यों के 700 जिलों में किसान आंदोलन तेज हो रहा है।” किसान मोर्चे ने 6 फरवरी को देशभर के राजमार्गों पर तीन घंटे चक्का जाम का ऐलान भी किया है। राजेवाल उस विवादास्पद पंजाबी ऐक्टर दीप सिद्घू और गैंगस्टर रह चुका लक्खा सिधाना उर्फ लखबीर सिंह का हवाला देते हैं, जो लाल किले की घटना के लिए जिम्मेदार हैं। बकौल राजेवाल, इन दोनों के भाजपा नेताओं के साथ तस्वीरें हर कोई देख चुका है।
बहरहाल, किसान लगभग ढाई महीने से दिल्ली की सीमा पर डटे हुए हैं। अभी तक न सरकार की ओर से कोई पहल हुई है, न किसान डिगने को तैयार हैं। अब तो संयुक्त किसान मोर्चे का रवैया यह है कि पहले सरकार हालात सामान्य करे, गिरफ्तार लोगों को रिहा करे, तभी बात आगे बढ़ेगी। संयुक्त मोर्चे से जुड़े स्वराज इंडिया के अध्यक्ष योगेंद्र यादव कहते हैं, "सरकार की मंशा ठीक नहीं लग रही है। जब किसान राजधानी की सीमा पर बैठे हुए हैं तब भी बजट में कृषि के मद में कटौती कर दी गई है। इससे तो यही जाहिर होता है कि सरकार को कोई परवाह नहीं है।" सरकार क्या सोच रही है, यह तो कहना मुश्किल है, लेकिन समाधान जितनी जल्दी निकले, देशहित में उतना ही अच्छा होगा। इस बीच मशहूर लोक गायिका रिहाना और अन्य सेलेब्रेटी के ट्वीट भी किसान आंदोलन के लिए दुनिया भर में नई फिजा बना रहे हैं।
जाट दबदबा
राजस्थान: राज्य की कुल जनसंख्या में 9 फीसदी जाट हैं। 200 विधानसभा सीटों में से 40 पर उनका दबदबा है। इसमें, मुख्य रूप से मारवाड़ (जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर और नागौर जिले) और शेखावटी (सीकर, चूरू और झुंझुनू जिले) क्षेत्र शामिल हैं।
हरियाणा: कुल 90 विधानसभा सीटों में से 43 पर जाटों का प्रभाव है। इन 43 सीटों पर बड़ी संख्या में जाट हैं। वे कुल मतदाताओं का 30 से 60 फीसदी तक हैं। यह भिवानी, फतेहाबाद, हिसार, झज्जर, जींद, रोहतक, सिरसा और सोनीपत के आठ जाट जिलों को प्रभावित करता है।
उत्तर प्रदेश: यूपी में 19 जिलों में फैली 403 विधानसभा सीटों में से 90 पर जाटों का प्रभाव है। अकेले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटों की आबादी 17 फीसदी है और कम से कम 50 सीटों- बागपत, मथुरा, मुजफ्फरनगर, शामली, मेरठ, सहारनपुर, बिजनौर और गाजियाबाद में वे निर्णायक साबित होते हैं।
संगठन और मंच
संयुक्त किसान मोर्चा देश भर के करीब 500 किसान संगठनों का संयुक्त मोर्चा है। इसमें पंजाब और हरियाणा के तकरीब 40 संगठन हैं। संयुक्त मोर्चा की 40 सदस्यीय टीम के नेताओं की सरकार के साथ बातचीत हुई। यही मोर्चा दिल्ली और उसके आसपास किसानों के विरोध प्रदर्शनों का समन्वय कर रहा है और देश भर में आंदोलन की योजना बना रहा है।
अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (एआइकेएससीसी) 250 से अधिक किसान समूहों का संगठन है। मध्य प्रदेश में किसानों पर कार्रवाई और उन्हें बेहतर मूल्य दिलाने और कर्ज से मुक्ति दिलाने की मांग को लेकर यह अस्तित्व में आया। यह भी आंदोलन का हिस्सा है।
भूमि अधिकार आंदोलन 300 से ज्यादा किसानों का समूह है, जो 2015 में भूमि सुरक्षा अधिकार को लेकर बना, जिसमें जंगल का अधिकार भी शामिल था। यह दिल्ली और विभिन्न राज्यों में हो रहे विरोध प्रदर्शन करने वाले समूहों का हिस्सा है।
अखिल भारतीय किसान सभा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की किसान शाखा है, जो आंदोलन के सभी समूहों के बीच सबसे आगे है। सभी राज्यों में इसकी मौजूदगी है।
अखिल भारतीय किसान सभा, माकपा से संबद्ध किसानों का समूह भी विरोध प्रदर्शन का हिस्सा है। इस समूह की भी अखिल भारतीय उपस्थिति है।
एआइकेएससीसी के पूर्व संयोजक, वी.एम. सिंह के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन ने गणतंत्र दिवस पर ट्रैक्टर परेड और उसके बाद हुई हिंसा के कारण खुद को आंशिक रूप से आंदोलन से अलग कर लिया है।
सीआइएफए किसानों के विरोध प्रदर्शन का हिस्सा नहीं है क्योंकि इसके सदस्यों का मानना है कि कृषि क्षेत्र को विश्वस्तर पर प्रतिस्पर्धी बनने के लिए सुधारों की आवश्यकता है।
ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव फार्मर्स एसोसिएशन भी विरोध प्रदर्शन का हिस्सा नहीं है क्योंकि इसके सदस्य भी नए तरीके से उत्पादकता बढ़ाने और विकास, विपणन के लिए नई तकनीक अपनाने में विश्वास करते हैं।
भारतीय किसान यूनियन (भानू) उन समूहों में से है, जिसने सुप्रीम कोर्ट से गतिरोध खत्म करने के लिए हस्तक्षेप की मांग की।