चार दशक से अरुणा शानबाग मुंबई के किंग एडवर्ड मेमोरियल (के.ई.एम.) अस्पताल में बेसुध पड़ी थी। वार्ड नंबर चार से सटे छोटे से कमरे मेंं चेतनाशून्य अरुणा की देखभाल उसकी साथी नर्सें ही करती थीं। आखिर अरुणा के साथ ऐसा हुआ क्या था जिसने उसे जिंदा लाश बना दिया था। 27 नवंबर 1973 की रात इसी अस्पताल की बेसमेंट पार्किंग में अरुणा के साथ एक ऐसा हादसा हुआ जो उसकी जिंदगी लील गया। जिस-जिस ने इस हादसे के बारे में सुना या पढ़ा उनकी रुह कांप गई।
उस रात अरुणा हमेशा की तरह इसी अस्पताल में मरीजों के देखभाल कर रही थी। उसी अस्पताल का एक वॉर्ड बॉय सोहन लाल भरथा वाल्मीकि उसपर गंदी निगाह रखता था। एक रोज उसने उससे जबरदस्ती करने की कोशिश की तो अरुणा ने उसे खरी खोटी सुना दी। बस अरुणा की खरी खोटी सोहन लाल को ऐसे चुभ रही थी कि वह उससे बदला लेने को पागल हुआ जा रहा था। उस रात जब अरुणा ड्यूटी खत्म कर बेसमेंट में गईं तो वहां पहले से मौजूद उस सफाई कर्मचारी ने उसे जबरन बलात्कार का शिकार बनाया।
फिर कुत्ते को बांधने वाली चेन से उसका गला घोंट दिया। गला घोंटे जाने के कारण उसके मस्तिष्क में आॅक्सीजन की आपूर्ति बाधित हो गई और वह कोमा में चली गई। सोहनलाल को पकड़ा गया, सजा भी हुई। हमले और लूटपाट के लिए सात साल की दो सजाएं साथ साथ चलीं। लेकिन बलात्कार, यौन उत्पीड़न या कथित अप्राकृतिक यौन हमले के लिए उसे सजा नहीं मिली।
मेडिकल शब्दावली में कहें तो अरुणा 42 साल से 'वेजेटेटिव स्टेट' में थी। यानी जीवित होते हुए भी आसपास होने वाली घटनाओं को समझने या उन पर किसी तरह की प्रतिक्रिया देने में पूरी तरह से अक्षम। अरुणा भारत में इच्छामृत्यु का चेहरा बनी। सन् 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने अरुणा की मित्र पत्रकार पिंकी बिरमानी की ओर से दायर इच्छामृत्यु याचिका को स्वीकारते हुए मेडिकल पैनल गठित करने का आदेश दिया था। तब उसे इस हालत में 25 साल से ज्यादा हो गए थे। बीते कुछ दिनों से वह बीमार थीं और उन्हें सांस लेने में दिक्कत हो रही थी। इस समय उसकी उम्र 60 से ऊपर थी।