नवजोत सिंह सिद्धू और उनकी पत्नी लगभग 10 वर्षों से भारतीय जनता पार्टी में समर्पण भाव दिखाकर राजनीति एवं कलाकारी करते रहे हैं। उनकी कार्यशैली और प्रभुत्व अकाली दल को कभी रास नहीं आया। अकाली-भारतीय जनता पार्टी गठबंधन वर्षों पुराना है। सत्तर के दशक से बादल और संघ भाजपा परिवारों के घनिष्ठ रिश्ते रहे हैं। भाजपा ने राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी सफलता पाई, लेकिन पंजाब में अकाली दल का साथ नहीं छोड़ा। आश्चर्य की बात यह है कि अन्य राज्यों के क्षेत्रीय दलों से संबंधों के बल पर भाजपा ने आत्म-निर्भरता जैसी राजनीतिक शक्ति बना ली, लेकिन पंजाब में उसकी शक्ति नहीं बढ़ सकी। इस कारण बादल सरकार पर गंभीर भ्रष्टाचार, मादक पदार्थों की तस्करी में वृद्धि, अपराध और बेरोजगारी में बढोतरी के बावजूद भाजपा नेता विरोध में खड़े नहीं हो पाए। आगामी विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखकर सिद्धू ने अपनी लोकप्रियता भुनाने के लिए अभी से भावी मुख्यमंत्री पद की दावेदारी पेश कर दी, जिसे भाजपा गले नहीं उतार सकी। हां, उन्हें संतुष्ट करने के लिए पुरानी परंपराएं त्यागकर नामजद श्रेणी में राज्यसभा का सदस्य बना दिया। चौका-छक्का मारते रहने वाले सिद्धू इससे प्रसन्न नहीं हुए। रातोंरात नाटकीय ढंग से उन्होंने राज्यसभा की सदस्यता को लात मारी और आम आदमी पार्टी एवं कांग्रेस से गुपचुप सौदेबाजी शुरू कर दी। जब बरसों पुराने भाजपा-अकाली आका सिद्धू को शीर्ष पद देने को तैयार नहीं थे, तब अरविंद केजरीवाल या अमरिंदर सिंह कैसे उन्हें पंजाब की बागडोर सौंप सकते थे। अंततोगत्वा सिद्धू अब भाजपा, आम आदमी पार्टी, कांग्रेस या अन्य दलों-खेमों से निकल रहे असंतुष्टों को इकट्ठा कर पंजाब की आवाज बनने की कोशिश कर रहे हैं। इस नए खेल से आम आदमी पार्टी के सामने पकी हुई थाली हाथ से गिरने का खतरा पैदा हो गया है। बिहार के चुनाव में भी कुछ क्षेत्रीय नेताओं ने पर्दे के पीछे भाजपा से सौदा कर चुनावी खेल दिखाए थे, लेकिन कहीं सफलता नहीं पा सके। हां, दूसरों का खेल बिगाडऩे लायक सीटियां तो सिद्धू बजा सकते हैं। सौदेबाजी और जनता के सामने सपने दिखाने मात्र से पंजाब का कितना भला होगा?
पंजाब की आवाज कितनी ऊंची
विवादास्पद नेता, खिलाड़ी, टी.वी. चैनलों में शायरी और चुटकुलों के गेस्ट आर्टिस्ट नवजोत सिंह सिद्धू के नेतृत्व में 'आवाज ए पंजाब’ नाम से नया मोर्चा बन रहा है। लोकतंत्र में क्षेत्रीय हितों के लिए राजनीतिक दल बनते-विलय होते रहे हैं। यह राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की कमजोरियों का ही प्रमाण है।

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