बैंक बोर्ड ब्यूरो के प्रमुख विनोद राय ने कह दिया है, ‘बैंकों के बकाया ‘बैड’ लोन के लिए बैंक ही जिम्मेदार हैं। बैंक प्रबंधकों को उचित समय पर सही फैसले करने चाहिए।’ ये वही विनोद राय हैं, जो भारत के वित्त सचिव रहने के बाद सीएजी बने और मनमोहन सिंह सरकार को घोटालों के लिए कठघरे में खड़ा कर दिया। इसमें कोई शक नहीं कि पिछले दो वर्षों के दौरान बैंकिंग के नान परफार्मिंग एसेट्स ‘एनपीए’ नियमों के कारण आर्थिक विकास पर बहुत बुरा असर हो रहा है। कर्ज का 95 प्रतिशत चुकाने के तीन महीने बाद 5 प्रतिशत भी बकाया होने पर व्यापारी को एनपीए के तहत बैंक से लेन-देन पर अंकुश लग जाता है। भारत जैसे देश में छोटे व्यापारी को अपने माल के भुगतान में तीन महीने से अधिक समय लगने की स्थिति सामान्य सी मानी जाती रही है। पहले यह सीमा छह महीने थी। नई सरकार ने नियम बदलवा दिए। दूसरी तरफ विजय माल्या जैसे बड़े उद्यमी कर्ज लेकर चंपत हो गए अथवा भारत में रहकर कानूनी दाव-पेंच से बचे रहते हैं। मुश्किल यह है कि राष्ट्रीयकृत बैंकों के प्रबंध मंडल ऐसे ‘बैड’ लोन लेने वालों के विरुद्ध समय पर कठोर कार्रवाई नहीं करते अथवा कर्ज देते समय दस्तावेजों में ऐसी गुंजाइश छोड़ देते हैं, जिससे समय पर वसूली नहीं हो पाती। विनोद राय ही नहीं, भारत की अर्थव्यवस्था का गहराई से विश्लेषण करने वाले विशेषज्ञों, अधिकारियों, व्यापार संगठनों की ओर से बराबर कहा जा रहा है कि बैंकिंग व्यवस्था में व्यापक सुधारों के साथ छोटे-मध्यम वर्ग के व्यापारियों और उपभोक्ताओं को लचीले ढंग से पूंजी उपलब्ध कराने की व्यवस्था की जाए। केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालय लघु-मध्यम उद्यमी अथवा नए स्टार्ट्स अप को प्रोत्साहित करने की योजनाएं, कार्यक्रम, बजट घोषित कर चुके हैं। लेकिन व्यावहारिक तौर पर पचीसों तकनीकी अड़ंगे लगने से कागजी खानापूर्ति हो रही है। इसलिए समझदार ईमानदार कर्ज लेने वालों को ‘गुड ग्राहक’ मानकर ही अर्थव्यवस्था मजबूत की जा सकेगी।
आतंक की तरह कर्ज बुरा या अच्छा
भारतीय बैंक दोधारी तलवार पर चल रहे हैं। कर्ज दिए बिना न वे सफल हो सकते हैं और न ही बड़े पैमाने पर उद्योग-व्यापार बढ़ सकते हैं। दूसरी तरफ कर्ज लेकर करोड़ों रुपया हजम कर जाने पर उनकी जिम्मेदारी भी फिक्स हो रही है।
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