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जादुई छड़ी से सत्ता के चमत्कार

सत्तर वर्षों से महान लोकतंत्र के प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति हमें ही नहीं पूरी दुनिया को सुनाते-समझाते रहे कि उनके पास क्रांतिकारी बदलाव के लिए जादुई छड़ी नहीं होती। इसलिए जनता धैर्य के साथ उन्हें सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के लिए समय दे।
जादुई छड़ी से सत्ता के चमत्कार

लेकिन नवंबर, 2016 में चमत्कार हो गया। लगभग डेढ़ अरब आबादी वाले विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश-भारत के प्रधानमंत्री ने 8 नवंबर की रात 8 बजे टी.वी. पर घोषणा के साथ अपने मंत्रियों सहित जनता को बता दिया कि 'जादुई छड़ी’ की तरह संपूर्ण अर्थव्यवस्था और सामाजिक सोच को 'नए रास्ते’ पर ले जाया जा सकता है। भारत में करेंसी नोट बंद करने या बदलाव के अवसर पहले भी आए, लेकिन देश भूकंप की तरह नहीं हिला। अपने देश में सोने, चांदी, कांसे, कागज ही नहीं चमड़े के सिक्के चलाने का लंबा इतिहास रहा है। इंदिरा गांधी के सत्ता काल में बैंक राष्ट्रीयकरण से कई निजी बैंकों और गांव-कस्बों में गरीबों का खून चूसने वाले सूदखोरों के एक वर्ग को बड़ी चोट पहुंची थी। गांधीवादी मोराजी देसाई की जनता सरकार ने बड़े नोटों पर प्रहार करके काले-सफेद धनपतियों को झटका दिया था। रिजर्व बैंक के गवर्नर रह चुके चतुर राजनीतिक खिलाड़ी मनमोहन सिंह ने अपने सत्ता काल में बड़े तरीके से पांच सौ रुपये की पुरानी करेंसी बदलवा दी। मतलब कभी ऐसी धूम-धाम, जयकार के बीच सडक़ों पर हाहाकार नहीं सुनाई दिया। इसे 'जादुई छड़ी’ का कमाल ही कहा जाएगा कि स्वागत और मातम की धुनें एक साथ गूंज रही हों। जैसी आपकी दृष्टि-वैसी सृष्टि।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी रातों-रात 500 और 1000 रुपये की चालू करेंसी को रद्दी कागज का टुकड़ा ठहराकर काले धन का अरबों रुपया बैंकों में आने का दावा कर रही है। इससे 2017, 18 और 19 में होने वाले विधानसभाओं और लोकसभा चुनाव में उनके नेता जनता के बीच 2014 में किया काला धन खजाने में लाने का अपना वायदा पूरा करने का दावा कर सकती हैं। निश्चित रूप से विदेशों में जमा काला धन लाना अकेली इस सरकार के बस की बात नहीं है, क्‍योंकि एशिया-अफ्रीका ही नहीं यूरोप-अमेरिका में भी 'धनवान’ अपराधी अदालत से दंडित हुए बिना नियम-कानून की बदौलत सुरक्षित छिपे रह सकते हैं। दाऊद इब्राहिम और उसके माफिया साथी ही नहीं विजय माल्या, ललित मोदी सहित पचासों सौदागर-दलाल भारत से बाहर जाकर दुगनी शान-शोकत से मस्ती में जी रहे हैं। इस दृष्टिï से हम लोग भी जोर दे रहे थे कि घर में छिपा काला धन तो बाहर निकालिए। सरकार के इस फैसले से उस दिशा में पहला कदम बढऩे की उम्मीद की जा सकती है, लेकिन संपूर्ण आबादी में इनकम टैक्स देने वाले डेढ़ प्रतिशत से अधिक नहीं हैं और कर दिए बिना शहरों-कस्बों में कमाई करने वाले भी तीन-चार प्रतिशत से अधिक नहीं हैं। 50 लाख, 50 या 500 करोड़ के मकान खरीदने-बेचने वालों की संख्या भी करोड़ों में नहीं है। इसलिए 8 नवंबर से लगातार बैंकों के बाहर अपनी मेहनत की कमाई या मजा पूंजी ही वापस लेने या जमा करने वालों की लंबी कतार को 'कालाधनपति’ मनवाने की भूल कृपया सत्ताधारियों को नहीं करनी चाहिए। इन कतारों में किसी राजनीतिक दल का नेता या पदाधिकारी नहीं दिखाई देगा, क्योंकि इन पार्टियों के पास जमा करोड़ों रुपयों पर न तो कोई टैक्स है और न ही चंदा देने वालों की सूची की पारदर्शिता अनिवार्य है। किसी सरकारी और गैर सरकारी टी.वी. चैनल के कैमरों के एक भी दृश्य में अथवा बैंकों के सीसीटीवी कैमरे में क्या आप किसी 'आश्रम’, 'ट्रस्ट’ इत्यादि के साधु, संत, सन्यासी, पदाधिकारी, संचालक को दिखा सकते हैं? कतई नहीं। फिर चाहे वे किसी भी धर्म से जुड़े केंद्रों के हों। आखिरकार, उनके दरबार-दरवाजे या तलघर में गरीबों-अमीरों से आने वाले अरबों रुपयों, सोने-चांदी, हीरों पर सत्ता की कृपा से कोई टैक्स नहीं लगता। वहां सिर्फ नगद नारायण आते हैं। अब आप ही बताएं, पुष्प-पत्तों-प्रसाद, जल दूध की थाली में चेक भगवान के चरणों में पहुंचकर पढ़ने या काम के लायक रह जाएंगे? सत्ता की 'जादुई छड़ी’ ऐसे किसी केंद्र में पहुंचने वाले धन्नासेठों, बेनामी मकान-दुकान खरीदने-बेचने वालों, देशी-विदेशी भोले-भाले या ठगों द्वारा सोने-चांदी-हीरे या करोड़ों रुपये चढ़ाने वालों से किसी 'भेंट’ का हिसाब क्यों नहीं मांगती? यहां नाम लिखने का पाप तो हम नहीं कर सकते, लेकिन कई नेताओं की गुप्त जमापूंजी या हीरों के भंडार उनके 'गुरुओं’ के आश्रमों या शानदार महलनुमा मकानों की तिजोरी में रखे जाते रहे हैं। छोटा सा सुंदर देश स्विटजरलैंड तो वैसे ही बदनाम है। अमेरिका के 9/11 के हमले के बाद वहां के भी कानून बहुत बदल गए। वैसे भारत में अस्सी-नब्बे के दशक के विवादास्पद रक्षा सौदों के कमीशन के हंगामों के बाद कोई महामूर्ख या महा शैतान नेता ही वहां काला धन जमा करता होगा। बहुत कम लोगों को जानकारी है कि दुनिया में पांच-दस लाख की आबादी वाले ऐसे बहुत से देश, द्वीप इत्यादि हैं, जहां आसानी से करोड़ों रुपयों का कालाधन नेतागण या उनके लिए सेठ-दलाल जमा करते रहे हैं। नेताओं के परिजन अपने या किसी नजदीकी विश्वसनीय के नाम विदेशों में जमीन-संपत्ति खरीदकर रखे हुए हैं। वहां तक 'जादुई छड़ी’ चलाने का कष्ट कोई सरकार नहीं करती। आखिरकार, ये तो नेतागण हैं-डकैतों या माफिया के तो इलाके बंटे होते हैं और गंभीर संघर्ष होने पर ही एक दूसरे का भेद खोलते हैं।

जी हां, जादुई छड़ी से मध्यम और निम्न आय वर्ग वाले लोग चमत्कृत होने के साथ भयभीत रहते हैं। पुलिसवाले ही नहीं आय-कर, बिक्री कर, कस्टम और कितने ही विभागों के इंस्पेक्टर से पूछताछ का नोटिस मिलने मात्र से कांप जाते हैं। आजादी दिलाने से लेकर आजाद भारत में सामान्य नागरिक के अधिकारों की रक्षा करने वाले हजारों ईमानदार वकील और जज हैं, लेकिन केवल नगद ग्रहण करने वाले काले कोट वालों की संख्या भी कम नहीं है। सफेद कपड़ों वाले निजी डॉक्टर आधुनिक शिक्षा के बाद अपना क्लिनिक खोलकर अधिकांश आगंतुकों से फीस नकद ही लेते हैं। छोटे कस्बों और गांवों में लाखों निजी चिकित्सक हैं। क्या वे ग्रामीणों और आदिवासियों से चेक या क्रेडिट कार्ड मांग सकते हैं? मांगेंगे, तो वे कहां से देंगे? वे तो रोजाना की मजदूरी से दवा, डॉक्टर बाबू का खर्च निकालते हैं। डिजिटल इंडिया और 'कैशलेस इकोनॉमी’ का सुनहरा सपना सुंदर है, लेकिन संपूर्ण भारत को अमेरिका बनाने की तरह कैशलेस बनाने के लिए जादुई छड़ी के बजाय वर्षों तक कई नए फार्मूलों की जरूरत होगी। वैसे एक और बड़े लोकतंत्र के चमत्कारी पुछल्ले का उल्लेख जरूरी है। अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में विजयी डोनाल्ड ट्रंप ने एक झटके में 30 लाख प्रवासियों को देश से निकालने का ऐलान कर दिया है। यही नहीं वह राष्ट्रीय सामाजिक आर्थिक बदलाव के साथ पूरी दुनिया को 'जादुई छड़ी’ से बदलने की तैयारी कर रहे हैं। कृपया याद रखिये-दोनों देशों में चुने हुए नेतृत्वकर्ता हैं। उन्हें 'तानाशाह’ समझने की भूल कृपया न करें। बस, लोकतंत्र की जयकार करते हुए उज्ज्वल भविष्य की कामना कीजिये।

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