वे चाहती हैं कि जुबानी तलाक दिलाने वाले काजी को सजा हो। उनकी ख्वाहिश है कि शादी के समय ही उन्हें महर की रकम अदा हो। वे चाहती हैं कि मुस्लिम पर्सनल लॉ को संहिताबद्ध किया जाए। यानी वे चाह रही हैं कि उन्हें धार्मिक कानूनों की जकड़बंदी से निजात मिले। साथ ही वे हिंदुत्ववादी ताकतों के समान सिविल कोड के आतंक से लड़ते हुए खुदमुख्तारी के साथ मौजूदा निजी कानूनों से भिड़ रही हैं।
हो सकता है कि आप इन पंक्तियों को पढ़ते हुए सोच रहे हों कि यहां हम अमीर, सुविधासंपन्न, शिक्षित मुस्लिम महिलाओं की बात कर रहे हैं। हकीकत इसकी उलटी है। ये महिलाएं गरीब तबके से ताल्लुक रखती हैं। ये तथ्य देश के दस राज्यों में भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन द्वारा कराए गए सर्वेक्षण से सामने आए हैं। आउटलुक को मिली इस सर्वेक्षण की रिपोर्ट से जो तस्वीर सामने आ रही है, वह बेहद सकारात्मक है। सकारात्मक इस लिहाज से कि मुस्लिम समाज और मुस्लिम औरतों को लेकर जिस तरह की स्टीरियोटाइप छवि प्रचारित है, उसे तोड़ती है। आम मुसलमान औरत, किसी भी दूसरी औरत की तरह बराबरी, सम्मान, सुरक्षा और अधिकार के लिए मुखर है। देश भर में 4,710 मुसलमान औरतों के इस सर्वेक्षण से एक बार फिर यह बात पुख्ता होती है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और धार्मिक कानूनों की गिरहबंदी से बाहर आना चाहती हैं। यहां यह नोट करना भी दिलचस्प होगा कि इस अध्ययन के मुताबिक 95.5 फीसदी महिलाओं ने ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का नाम तक नहीं सुना है। यानी सीधे-सीधे उनका वास्ता इस संस्था से कभी नहीं पड़ा। सामाजिक कार्यकर्ता रेहाना इसकी वजह बताती हैं कि इसकी शिनाख्त मुस्लिम मर्दों की संस्था के रूप में होती है। औरतों की स्थिति से उसकी दूरी और औरतों की उससे दूरी इस सर्वे से सामने आती है।
मुस्लिम पारिवारिक कानून में बदलाव पर मुस्लिम महिलाओं के विचार इस समाज में हो रहे बड़े बदलावों की ओर इशारा करते हैं।
सर्वेक्षण में शामिल 4,710 महिलाओं में 75 फीसदी औरतें चाहती हैं कि लड़कियों की शादी 18 साल से अधिक उम्र में हो। जबकि 55.3 फीसदी की अपनी शादी 18 साल से पहले हुई थी। इनमें से 46 फीसदी की एक या दो संतानें हैं। आर्थिक-शैक्षणिक पिछड़ेपन का आलम यह है कि 78 फीसद औरतें गृहिणियां हैं। वे काम करना चाहती हैं, लेकिन रोजगार का विकल्प नहीं है। घरेलू हालात बेतरह खराब हैं। करीब 53 फीसदी महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार होती हैं, लेकिन इससे निजात पाने के लिए केवल 1.4 फीसदी काजी या दारुल काजा के पास जाती हैं। अधिकांश परिवार के जरिये पुलिस थानों और फिर सामाजिक संगठनों के पास न्याय के लिए पहुंचती हैं। अपने अधिकारों के बारे में भी उन्हें बहुत कम जानकारी है। सर्वे में शामिल की गई 40 फीसदी महिलाओं को 1000 रुपये से भी कम राशि बतौर मेहर नसीब हुई और 44 फीसदी को तो वह भी नसीब न हुई।
तलाकशुदा महिलाओं के हालात इस बात की फिर तस्दीक करते हैं कि वे पूरी तरह अधिकारों से वंचित हैं और ऐसी तमाम रिवायतें उनके जीवन को तबाह कर रही हैं, जिनका कोई इस्लामी आधार नहीं है। सर्वेक्षण के दौरान जो तलाकशुदा औरतें मिलीं, उनमें से 66 फीसदी को जुबानी तलाक दिया गया, 8 फीसदी को पत्र के जरिये, 3 फीसदी को फोन और मेल पर दिया गया। कुल महिलाओं में से 88 फीसदी महिलाएं ये चाहती हैं कि इस तरह की एकतरफा तलाक की बर्बर रिवायतें खत्म हों और तलाक-ए-अहसान यानी 90 दिन की अवधि के भीतर दिए जाने वाले तलाक को कानूनी बनाया जाए।
सामाजिक कार्यकर्ता शबनम हाशमी ने आउटलुक को बताया कि यह सही है कि भारतीय जनता पार्टी समान सिविल कोड की मांग को लेकर धु्रवीकरण करने की फिराक में है, लेकिन हम एक धर्मनिरपेक्ष और स्त्रियों के साथ न्याय करने वाले सिविल कोड की मांग करते हैं। खुद मैंने जब बच्ची को गोद लेने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था तो मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने विरोध किया था। लेकिन मैंने सिविल कानून के तहत अपील की और मुझे राहत मिली। इस राह पर मुस्लिम औरतें चल निकली हैं। अभी जरूरत सहायक कानूनों की है, जो रास्ता खोलें।
मुस्लिम औरतों ने गुजाराभत्ता पाने के लिए और घरेलू हिंसा के खिलाफ सिविल कानूनों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। केरल की सुधा केवी ने अपने पति से तलाक के बाद गुजारेभत्ते और अपने इलाज के लिए केरल हाईकोर्ट से बेहद प्रगतिशील फैसला हासिल करने में सफलता हासिल की। मुस्लिम औरतें भी बाकी औरतों की तरह ही, ये दोहरा रही हैं बंद है तो और भी खोलेंगे हम, रास्ते हैं कम नहीं तादाद में।