ताजा मामला समाजवादी पार्टी में परिवार के ही नेताओं के बीच गंभीर असहमतियों, मतभेदों और प्राथमिकताओं पर राजनीतिक तूफान जैसा प्रदर्शित हो गया। यह ठीक है कि गहरे मतभेद पिता, चाचा, पुत्र के बीच दिखाई दिए। ये मतभेद भी कुछ मंत्रियों, सांसदों, नजदीकी मित्रों और उनकी भूमिका, मुख्य सचिव के फैसलों इत्यादि को लेकर थे। कई बातें सार्वजनिक हुईं। दोनों-तीनों पक्षों के समर्थकों ने सड़कों पर नारेबाजी भी की। लेकिन यदि इस तूफान से उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को अनुचित कार्यों और भ्रष्टाचार रोकने में एक हद तक सफलता मिलती है, तो इसे लोकतांत्रिक सफलता क्यों नहीं माना जाना चाहिए? इसका श्रेय पार्टी और परिवार के मुखिया मुलायम सिंह यादव को मिल सकता है।
समाजवादी पार्टी में परिवार ही नहीं आजम खान, अमर सिंह जैसे नेताओं की आवाज भी उठती रही है। ताजे विवाद में अमर सिंह का नाम भी उभरा। आखिरकार पार्टी सबकी आवाज सुनकर समाधान भी कर रही है। हां, असहमति और विरोध की लक्ष्मण रेखा होनी चाहिए, ताकि सरकार और संगठन ठीक से काम भी करता रहे। समाजवादी ही क्यों, भारतीय जनता पार्टी के महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने अपनी ही मध्य प्रदेश सरकार में नौकरशाही के वर्चस्व, मनमानी और भ्रष्टाचार पर आवाज उठाई। राष्ट्रीय और प्रादेशिक स्तर पर ध्यान दिया गया। वास्तव में अपनी सरकारों और संगठनों पर संयमित ढंग से सार्वजनिक बहस जरूरी है। यही नहीं भाजपा सांसद मनोज तिवारी के यदि अपने इलाके में आम आदमी पार्टी के मंत्री कपिल मिश्र के साथ घूमते हुए दिखने पर प्रादेशिक भाजपा नेताओं द्वारा विरोध अलोकतांत्रिक और संकीर्णता की निशानी है। यूं मनोज तिवारी फिल्मी दुनिया के कलाकार हैं। पार्टी ने ही उन्हें सांसद बनाया। उन्हें तो ‘खलनायक’ के साथ भी फोटो खिंचवाना पड़ सकता है। भारत के कई बड़े-छोटे नेता पाकिस्तान या चीन के साथ वार्ता, यात्रा करते फोटो खिंचवाते रहते हैं। वही विदेशी नेता कई बार भारत विरोधी जहर तक उगलते हैं। इसका यह मतलब नहीं कि संवाद बंद हो जाए। इस दृष्टि से असहमतियों को सलाम कर लोकतंत्र को मजबूत किया जाए।