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न्याय के पहरेदारों की आवाज

इन दिनों न्याय के पहरेदारों न्यायाधीशों, वकीलों को सत्ताधारियों के समक्ष विभिन्न स्तरों पर आवाज पहुंचानी पड़ रही है। लोकतंत्र, राजतंत्र, सैन्य शासन या कम्युनिस्ट शासन में भी अंतिम दरवाजा न्यायालय का ही होता है।
न्याय के पहरेदारों की आवाज

भारत जैसे विशाल देश में सामान्य जन की सबसे बड़ी उम्मीद अदालत से होती है। राजनीतिक दल भी अपने विवाद या संवैधानिक संकट में अदालत की शरण लेते हैं। लेकिन न्याय व्यवस्‍था को सुदृढ़ करने और उसे हर संभव साधन उपलब्‍ध कराने की बातें कागजों और भाषणों तक सीमित रहती हैं।

वर्षों के आंदोलन के बाद आंध्र प्रदेश के विभाजन के बाद तलंगाना राज्य बना। शहर-गांव-सचिवालय, विधानसभा तक अलग हो गई। लेकिन तेलंगाना में अलग उच्च न्यायालय की स्‍थापना एवं तेलंगाना में अधिक न्यायाधीशों की नियुक्ति की मांग अब तक केंद्र सरकार ने स्वीकार नहीं की। इसलिए प्रदेश के वकीलों ने संसद भवन के सामने दिल्ली में प्रदर्शन कर अपनी मांग रखी। वकीलों को सत्तारूढ़ पार्टी की सांसद कलवा कुंतला कविता सहित अन्य नेताओं का समर्थन मिला हुआ है। मुख्यमंत्री चंद्रशेखर प्रधानमंत्री तक इस मांग को पहुंचा चुके हैं। इसमें कोई शक नहीं कि आंध्र में पहले से कार्यरत उच्च न्यायालय के 29 न्यायाधीशों में से केवल 3 तेलंगाना के हैं। प्रदेश विभाजन के आंदोलन एवं क्षेत्रीय भावना के आधार पर तेलंगाना की जनता को वर्तमान व्यवस्‍था में पूर्वाग्रह की आशंका बनी रहती है। कई मामले वर्षों से लंबित हैं अथवा जमीन के विवादों में न्यायाधीश अपनी भावनाओं से भी प्रभावित हो सकते हैं। वैसे भी देश में न्यायाधीशों की संख्या में कमी है। किसी भी राज्य में अच्छे अनुभवी, पर्याप्त शिक्षित और योग्य वकीलों की कमी नहीं है। ऐसी स्थिति में विभिन्न राज्यों की आवश्यकताओं एवं जन अपेक्षाओं के अनुरूप न्यायाधीशों की नियुक्तियां क्यों नहीं हो सकती हैं? केंद्र और राज्य सरकारें न्याय के मंदिरों के लिए अधिकाधिक धनराशि का प्रावधान क्यों नहीं कर सकतीं? धार्मिक संस्‍थानों के न्यासों से 10 प्रतिशत दान लेने पर ही देश के सभी न्यायालय सर्वाधिक साधन संपन्न हो सकते हैं। अकेले तेलंगाना ही नहीं अन्य प्रदेशों की ऐसी मांगों को सर्वोच्च प्राथमिकता के साथ पूरा किया जाना चाहिए।

दूसरी तरफ तमिलनाडु के वकीलों को अपने आंदोलन पर समीक्षा करनी चाहिए। यदि न्यायालय आचार संहिता लागू करते हैं, तो उस पर सक्षम और नियम-कानून के पालनकर्ताओं को क्यों आपत्ति होनी चाहिए? यह मांग बेहद अजीब है कि आचार संहिता का पालन नहीं करने और दोषी वकीलों की मान्यता स्‍थगित या रद्द नहीं की जाए। यदि रखवाले ही कानून और आचार व्यवहार की संहिता तोड़ने लगेंगे, तो न्याय के मंदिर की शुचिता कैसे सुरक्षित रहेगी?

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