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कवर स्‍टोरी: डूबा अखबार ले रहा कांग्रेस की खबर

बताया जाता है कि जवाहर लाल नेहरू ने 1938 में अपने शुरू किए गए अखबार नेशनल हेराल्ड के कर्मचारियों से एक बार कहा था, हमें बनियागिरी नहीं आई। यदि सुब्रह्मण्यम स्वामी की कोशिशें सिरे चढ़ीं तो माना जाएगा कि शायद नेहरू के उत्तराधिकारी इस कला को सीख चुके हैं।
कवर स्‍टोरी: डूबा अखबार ले रहा कांग्रेस की खबर

नेहरू-गांधी परिवार के इस मामले के पीछे वर्षों तक पडऩे के बाद भाजपा नेता इस बार शायद उन्हें अखाड़े में पटखनी दे पाएंं।

मगर क्या वे ऐसा कर पाएंगे? मई 1978 में जब संजय गांधी 30 दिन की सजा सुनाए जाने के बाद तिहाड़ ले जाए जा रहे थे तब इंदिरा गांधी ने उनसे कहा था, 'दिल छोटा मत करो, यह तुक्वहारा पुनर्जन्म होगा।’ मात्र दो साल के बाद कांग्रेस फिर से सत्ता में थी। शायद यही बात सोनिया गांधी ने खुद को और दूसरों को याद दिलाई जब उन्होंने घोषणा की, 'मैं इंदिरा गांधी की बहू हूं।’ पार्टी एक बार फिर असमंजस में है। बिहार विधानसभा चुनाव का हालिया प्रदर्शन उक्वमीद की एक कमजोर रोशनी सरीखी है और ऐसे में एक और संकट इस बेहद पुरानी पार्टी को जमीन पर ला देगा।

इस मामले के शिकायतकर्ता सुब्रह्मण्यम स्वामी के मुंह में पानी लाने वाला एक और मौका सुनवाई के दौरान कांग्रेस नेताओं से जवाब-तलब करने के रूप में मौजूद है। हालांकि वह पहले ही काफी नुकसान पहुंचा चुके हैं जिसकी वजह से दिल्ली हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति सुनील गौड़ को यह कहने के लिए प्रेरित होना पड़ा कि यह मामला 'अपनी तरह का एक’ ही है। स्वामी, जिन्हें कुछ लोग धर्मयोद्धा जबकि अन्य महज भीड़ को भड़काने वाला मानते हैं, का कांग्रेस नेताओं पर आरोप है कि उन्होंने अपनी ही पार्टी और उसके दानदाताओं के साथ धोखा किया है।

हालांकि कांग्रेस ने हमेशा हेराल्ड की मदद की मगर आश्चर्यजनक रूप से यह कभी भी एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड(एजेएल) की मालिक नहीं रही। एजेएल वह कंपनी है जो अंगे्रजी में नेशनल हेराल्ड, हिंदी में नवजीवन और ऊर्दू में कौमी आवाज की प्रकाशक है। दस्तावेजों के पुलंदे से सज्जित स्वामी निम्नलिखित सवालों पर न्यायिक हस्तक्षेप की मांग कर रहे हैं:

- चूंकि किसी राजनीतिक दल को ब्याज मुक्त या कैसा भी कर्ज किसी को देने की अनुमति नहीं है तो एजेएल ने किस तरह वर्ष 2008 में यह दिखाया कि वह कांग्रेस की 90 करोड़ रुपये की कर्जदार है?

- एजेएल विभिन्न शहरों में हजारों करोड़ रुपये की संपत्त‌ि की मालिक है तो वर्ष 2008 में अपना प्रकाशन बंद करते समय उसने इनमें से कुछ संपत्त‌ि बेचकर कर्जदाताओं का पैसा क्यों नहीं चुकाया?

- जिस एजेएल में 1037 शेयरधारक हैं वह किस तरह वर्ष 2010 में महज पांच लोगों द्वारा शुरू की गई एक नई प्राइवेट लिमिटेड कंपनी (इस मामले में सोनिया, राहुल, मोतीलाल वोरा, सैम पित्रोदा और सुमन दुबे द्वारा शुरू यंग इंडियन प्राइवेट लिमिटेड) को अपने 99 फीसदी शेयर हस्तांतरित कर सकती है?

- कैसे यंग इंडियन कंपनी एजेएल के 90 करोड़ रुपये के कर्ज का अधिग्रहण कर सकती है और उसे महज 50 लाख रुपये मूल्य आवंटित कर सकती है?

- कैसे कांग्रेस यंग इंडियन से सिर्फ 50 लाख रुपये लेकर 90 करोड़ रुपये का कर्ज माफ कर सकती है?

 

एजेएल के बहुसंख्यक शेयर जनहित निधि ट्रस्ट के पास बताए जाते हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार नेहरू ने आधिकारिक रूप से यह बात कही थी कि कंपनी के वास्तविक शेयरधारकों में से कई ने, जिनमें उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी भी शामिल थी, अपने शेयर वर्ष 1955 में जनहित ट्रस्ट को ट्रांसफर कर दिए थे। एजेएल या यंग इंडियन में कांग्रेस का कोई मालिकाना हक नहीं होने के बावजूद यह आरोप कि एजेएल की हजारों करोड़ रुपये की संपत्त‌ि हड़पने के लिए यंग इंडियन के पांच प्रवर्तकों ने पार्टी के साथ मिलकर अवैध कार्य किया है, शायद निचली अदालत और उच्च न्यायालय की समझ में आ गया जिन्होंने यह माना कि मामले में सुनवाई के लिए पर्याप्त तथ्य अदालत के सामने रखे गए हैं।

कांग्रेस नेताओं की प्रतिक्रिया से लगा कि वे दिल्ली हाईकोर्ट के उस फैसले के लिए तैयार नहीं थे जिसमें अदालत ने सोनिया और राहुल की उस याचिका को खारिज कर दिया जिसमें उन्होंने हेराल्ड केस को खत्म करने की अपील और निचली अदालत में व्यक्तिगत पेशी से छूट की मांग की थी। लेकिन वकील हाईकोर्ट में इस मामले की सुनवाई के दौरान के एक वाकये को याद करते हैं जो उनके अनुसार यह पर्याप्त रूप से बताता था कि मामले में क्या होने वाला है। सुनवाई के दौरान एक बार सोनिया गांधी के वकील कपिल सिब्बल ने पूछा, 'समस्या क्या है माई लॉर्डशिप?’ वकील बताते हैं कि न्यायमूर्ति गौड़ ने रुखाई से जवाब दिया, 'यह आप फैसले में देखेंगे।’ और ऐसा ही हुआ। सात दिसंबर को आए 27 पन्नों के फैसले ने स्वामी के आरोपों को दमदार माना जबकि सिब्बल उसे ड्रामेबाजी करार देते रहे हैं।

इस आदेश ने निचली अदालत के सामने इस बारे में कोई संदेह नहीं छोड़ा कि उच्च न्यायालय इस सारे लेन-देन के बारे में क्या सोच रखता है। न्यायमूर्ति गौड़ ने अपने आदेश में यह रेखांकित किया, 'कांग्रेस पार्टी के पदाधिकारियों के खिलाफ आरोप हैं कि उन्होंने गैरकानूनी तरीके से पार्टी फंड को निकाला- एक अलग कंपनी को ब्याज मुक्त कर्ज देने की गलती की- यहां तक कि इतनी बड़ी राशि का कर्ज माफ करना धोखाधड़ी और ठगी के आरोपों को आमंत्रित करता है...।’

हाईकोर्ट के फैसले ने एक ऐसी सुनवाई का रास्ता प्रशस्त कर दिया जिसे कांग्रेस निराधार और अगंभीर करार देती है। इस मसले पर ट्वीट करने में पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने तेजी दिखाई। उन्होंने लिखा कि किसी दानदाता या कांग्रेसकर्मी ने शिकायत नहीं की, किसी के द्वारा कोई लाभ, पूंजीगत फायदा या लाभांश नहीं लिया गया, संपत्त‌ि का मालिकाना हक नहीं बदला इसलिए किसी के साथ कोई ठगी भी नहीं हुई।

राहुल ने खुद प्रधानमंत्री कार्यालय पर राजनीतिक बदले का आरोप लगाया जबकि लोकसभा और राज्यसभा में पार्टी के नेताओं मल्लिकार्जुन खडग़े और गुलाम नबी आजाद ने सरकार के दोहरे मापदंडों पर सवाल उठाते हुए अपने नेताओं की लड़ाई दोनों सदनों में लड़ी। लेकिन जबकि उनका सरकार के उस रवैये पर सवाल उठाना वैध था कि वह भाजपा शासित राज्यों राजस्थान (ललित मोदी मामला), मध्य प्रदेश (व्यापमं) और छत्तीसगढ़ (चावल घोटाला) के मुख्यमंत्रियों के खिलाफ कोई कदम नहीं उठा रही है, वहीं यह सवाल भी सही था कि कांग्रेस यह मसला गलत समय उठा रही है। ये सवाल अपराधबोध की परोक्ष स्वीकृति के साथ उठाए गए जिससे यह संदेश गया कि हालांकि भाजपा के नेता भी समान अपराधों के दोषी हैं मगर सरकार संदिग्धों की खोज में सिर्फ कांग्रेस को निशाना बना रही है। मगर तब उन्हें याद दिलाया गया कि इस मसले से राजग सरकार का कोई लेना-देना नहीं है। स्वामी की निजी शिकायत वर्ष 2013 में दर्ज कराई गई थी जब संप्रग की सरकार थी और वर्तमान आदेश दिल्ली हाईकोर्ट ने पारित किया है न कि मोदी सरकार ने। और अंत में, ये कांग्रेस के नेता ही थे जिन्होंने निचली अदालत में पेश होने से इनकार किया था और उच्च न्यायालय में अपील की थी। फिर अब पीएमओ को दोष क्यों?

अंतत: कांग्रेस नेता खुद को सिर्फ बचकानी हरकत करते दिखाने में ही सफल हो पाए और संसद को ठप करने के उनके प्रयास ने उनकी साख में और कमी ही की। भाजपा नेताओं अरुण जेटली और वेंकैया नायडू ने अनुरोध किया, आप चाहें तो संसद में इस पर बहस कर लें या फिर कोर्ट जाएं। संसद में लड़ाई हार चुकी कांग्रेस के सदस्य अपनी रणनीति फिर से बनाने के लिए पीछे हट गए।

हालांकि लोगों के बीच बन चुकी राय को बदलना ज्यादा मुश्किल काम है। ऐसे लोगों के लिए, जो लंबे समय से मानते हैं कि नेहरू-गांधी परिवार ने इस देश को लूटा है(बोफोर्स, 2जी और कोयला घोटाला, रॉबर्ट वाड्रा का डीएलएफ संग सौदा आदि), यह मामला पार्टी और उसके पहले परिवार के द्वारा 'आदतन’ किए जाने वाले संदिग्ध लेन-देनों का एक और सबूत है।

जब कांग्रेस अध्यक्ष और उनके पुत्र 19 दिसंबर को निचली अदालत के सामने पेश होंगे तब उम्मीद है कि वे खुद को 'बेकसूर’ बताएंगे। ञ्चया वे जमानत पर छूट जाएंगे? किन शर्तों पर, क्या उन्हें अपना पासपोर्ट जमा कराने को कहा जाएगा? या मां-बेटे दोनों जमानत नहीं मांगेंगे? ज्यादा महत्वपूर्ण, क्या दिसंबर 19 अति नाटकीय दिन होगा या फिर एक फुस्स पटाखा साबित होगा? क्या यह पुरानी पार्टी झटके से उबर पाएगी। क्या नेहरू-गांधी परिवार अपनी विश्वसनीयता बनाए रखते हुए इस तूफान का सामना कर पाएगा? क्या इस मामले में उसका पुनर्जन्म हो पाएगा?

उम्मीद है कि यह केस इन बड़े सवालों पर ज्यादा फोकस और स्पष्टता ला सकता है कि कोई राजनीतिक दल उसे मिलने वाले चंदे के साथ क्या कर सकता है और क्या नहीं कर सकता। क्या राजनीतिक चंदे को सूचना के अधिकार के कानून के तहत लाना चाहिए या क्या दलों के लेखा ऑडिट में ज्यादा पारदर्शिता होनी चाहिए? इस मामले में यह भी क्षमता है कि वह दूसरे राजनीतिक दलों और उनके मुखपत्र माने जाने वाले प्रकाशनों पर ध्यान खींचे। यह केस वित्त मंत्रालय के अधीन आने वाले सीरियस फ्रॉड इन्वेस्टिगेशन ऑफिस, प्रवर्तन निदेशालय तथा अन्य एजेंसियों पर भी दबाव डाल सकता है कि वह प्रकाशनों एवं उन्हें मदद करने वाले राजनीतिक दलों के बीच होने वाले वित्तीय लेन-देन का स्वत: संज्ञान लेकर जांच करें।

हेराल्ड की वित्तीय हालत कभी अच्छी नहीं रही, यहां तक कि कांग्रेस के केंद्र में सत्तासीन रहने के दौरान भी। वर्ष 2008 में जब प्रकाशन स्थगित किया गया तो अंग्रेजी संस्करण के पास एक भी कंप्यूटर नहीं था और समाचार कक्ष टाइपराइटरों पर निर्भर था। रिपोर्ट बताते हैं कि एकमात्र कंप्यूटर टेलीप्रिंटर कक्ष में था जिसका इस्तेमाल ई-मेल देखने के लिए किया जाता था। प्रकाशन स्थगित होने के बाद 40 पत्रकारों समेत कंपनी के बचे हुए 265 कर्मचारियों को 15 लाख रुपये प्रत्येक के हिसाब से वीआरएस के रूप में दिए गए।

विडंबना है कि हेराल्ड के अंतिम अंक का शीर्षक था, 'बेहतर कल के लिए हेराल्ड की उम्मीद।’ अपनी गौरवशाली परंपरा के उल्लेख के साथ उसने आगे पूछा था, 'क्या नेशनल हेराल्ड इतिहास का अंग बनकर रह जाएगा या बदलाव और विकास के सूचक के रूप में आगे भी काम करता रहेगा।’

नेहरू न सिर्फ अखबार के लिए रिपोर्ट लिखा करते थे बल्कि एक या दो बार उन्होंने हस्ताक्षरित संपादकीय भी लिखे, मगर अखबार की वित्तीय समस्या हमेशा बनी ही रही। वर्ष 1942-45 के दौरान इसका प्रकाशन तीन वर्षों के लिए बंद रहा जिस दौरान इसके प्रसिद्ध संपादक एम. चेलापति राव हिंदुस्तान टाइम्स चले गए। मगर जब हेराल्ड का प्रकाशन फिर शुरू हुआ तो राव ने एचटी के प्रबंध संपादक देवदास गांधी (महात्मा गांधी के सबसे छोटे पुत्र) का प्रतिमाह 2000 रुपये वेतन का प्रस्ताव ठुकराकर हेराल्ड के संपादक के रूप में में 700 रुपये के वेतन पर लखनऊ जाना पसंद किया। तब 2000 रुपये बहुत बड़ी रकम हुआ करती थी।

वर्ष 1977 में कांग्रेस के केंद्र की सत्ता से हटने के बाद अखबार का प्रकाशन एक बार फिर बंद हो गया। और हालांकि दो वर्ष बाद इसका प्रकाशन फिर शुरू हुआ मगर पैसे की समस्या बनी ही रही, जबकि ग्रुप को आपातकाल के दौरान संपत्त‌ि और सरकारी विज्ञापन के रूप में बहुत अधिक फायदा हुआ था।

वर्ष 1978-79 के दौरान बेहद कम समय के लिए अखबार के संपादक रहे खुशवंत सिंह ने आधिकारिक रूप से कहा है कि पैसे से भरा एक सूटकेस समय-समय पर रहस्यमय तरीके से वहां पहुंचता था जिससे वेतन तथा अन्य बिलों का भुगतान किया जाता था, हालांकि खुद उन्हें कभी सीधे तौर पर भुगतान नहीं किया गया। कांग्रेस उस समय विपक्ष में थी। उन्होंने लिखा है, 'पुलिस यह जानने के लिए बेचैन थी कि अखबार चल कैसे रहा है। मेरे कार्यकाल के दौरान दो बार ऑफिस में छापा पड़ा हालांकि पुलिस मेरे कमरे में कभी नहीं घुसी।’

स्वतंत्रता के बाद हेराल्ड ने क्या प्रयोजन सिद्ध किया यह कभी पूरी तरह साफ नहीं हुआ। वास्तव में नेहरू इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहते थे और इससे दूरी ही रखी। चेलापति राव ने आधिकारिक रूप से कहा है कि सिर्फ दो बार नेहरू ने खास विषयों पर संपादकीय लिखने को कहा। जब इंदिरा गांधी ने अपने सहयोगी यशपाल कपूर से अखबार का प्रभार लेने और रिवाइव करने के लिए कहा, और हालांकि मोहम्मद युनूस और आर.के. धवन पर भी अखबार पर नजर रखने के लिए दबाव डाला गया, इस बात के बेहद कम सबूत हैं जो यह दिखाएं कि इंदिरा, राजीव या अन्य कांग्रेस नेता अखबार के बारे में ज्यादा सोचते थे या उन्होंने इसे पार्टी का मुखपत्र बनाने का प्रयास किया था।

न ही अखबार ने कभी ज्यादा प्रतियां बेचीं, न ही इसका ज्यादा प्रभाव रहा। पत्रकार और कांग्रेस पर नजर रखने वाले रशीद किदवई ने एक ब्लाॅग में याद किया है कि सैम पित्रोदा ने अखबार के एक कर्मचारी से पूछा कि अखबार की प्रसार संख्या कितनी है तो उसने जवाब दिया '90’। उन्हें लगा 90 हजार और उन्होंने कहा कि इतनी खराब छपाई तथा अन्य सुविधाओं की कमी के बावजूद इतना प्रसार बेहद प्रभावशाली है। उस समय अखबार की छपाई सिर्फ 5 हजार प्रतियों की होती थी और उनमें से शायद ही कोई न्यूजस्टैंड तक पहुंचती थी।

अखबार को पुनर्जीवन दिए जाने संबंधी समय-समय पर आने वाली खबरों का खंडन होता रहा है जिससे इन संदेहों को बल मिला कि एजेएल और अब इसका पूर्ण स्वामित्व रखने वाली कंपनी यंग इंडियन इसकी अचल संपत्त‌ियों का व्यावसायिक इस्तेमाल कर उससे लाभ कमाकर अपनी जेब भरने की योजना बना रही है। ये संपत्त‌ियां एजेएल को अखबार निकालने के नाम पर बेहद कम पैसे में लीज पर मिली हैं। निश्चित रूप से ऐसा करने वाली यह कोई पहली मीडिया कंपनी नहीं है। मगर अनिच्छापूर्वक ही सही, यह मुकदमा शायद अखबार को पुनर्जीवन की दिशा में ले जा सकता है। दिल्ली हाईकोर्ट को सोनिया गांधी की ओर से यह बताया गया कि यंग इंडियन प्राइवेट लिमिटेड का गठन हेराल्ड को पुनर्जीवन देने के लिए किया गया है। इससे लगता है कि सोनिया, राहुल तथा अन्य को संदेह का लाभ देने के लिए यही एकमात्र रास्ता भी बचा है।

 

 

 

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