“ओपीएस सहित बाकी चुनावी वादे निभाने के लिए उधारी की सीमा बढ़ाने को मजबूर नई सरकार”
सुखविंदर सिंह ‘सुक्खू’ को हिमाचल प्रदेश का मुख्यमंत्री बने बमुश्किल महीना भर हुआ है, लेकिन जिस तत्परता से उन्होंने दीर्घकालिक प्रभाव वाले प्रशासनिक और राजनीतिक निर्णय लिए हैं उससे लोगों के बीच उनकी छवि फिल्म नायक (2001) के हीरो शिवाजी राव गायकवाड़ जैसी बन गई है जिसका किरदार अनिल कपूर ने निभाया था। सुक्खू को अपनी कैबिनेट गठित करने में, पदभार बांटने में और अपनी टीम के भीतर क्षेत्रीय व जातिगत संतुलन साधने में भले महीना भर लग गया हो लेकिन उसकी पहली बैठक के महज बीस मिनट में उन्होंने अपने सबसे बड़े चुनावी वादे पुरानी पेंशन योजना (ओपीएस) पर निर्णय ले लिया। सरकारी कर्मचारी अपने हक में हुए इस फैसले के लिए उन्हें ‘पेंशन पुरुष’ कह रहे हैं पर 58 वर्षीय सुक्खू का का कहना है कि वे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर राज करने या अपनी ताकत दिखाने के लिए नहीं बल्कि व्यवस्था परिवर्तन लाने के लिए बैठे हैं।
हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की हार के पीछे सबसे बड़ा कारण ओपीएस को बहाल करने के कांग्रेसी वादे को माना जाता है। कांग्रेस ने वादा किया था कि नई सरकार में कैबिनेट की पहली बैठक में ओपीएस पर फैसला लिया जाएगा। सुक्खू ने यह वादा पूरा कर दिया है। मतदाताओं से किए दस चुनावी वादों में ओपीएस का पहला वादा 13 जनवरी, 2022 को हुई कैबिनेट की पहली बैठक में पूरा किया गया। पूरे 18 साल बाद नई पेंशन योजना की जगह पुरानी को बहाल किया गया है जिसके दायरे में राज्य के 1.36 लाख कर्मचारी आएंगे। फैसले के बाद शिमला स्थित सचिवालय के बाहर सरकारी कर्मचारियों की यूनियनों ने नाच गाकर इसका अभिनंदन किया।
जयराम ठाकुर
इस योजना के तहत कर्मचारियों को आजीवन आय और सेवानिवृत्ति के बाद वित्तीय लाभ की गारंटी प्राप्त है। जयराम ठाकुर के नेतृत्व वाली भाजपा की पिछली सरकार राज्य में ओपीएस बहाल किए जाने के खिलाफ थी क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर भी भाजपा की यही नीति है। चूंकि किसी भी अन्य राज्य के मुकाबले हिमाचल में सरकारी और सार्वजनिक उपक्रम कर्मचारियों की संख्या जनसंख्या के अनुपात में सबसे ज्यादा है, लिहाजा उनके गुस्से का नतीजा भाजपा को हार के रूप में चुकाना पड़ा।
ठाकुर मानते हैं कि चुनाव से पहले और चुनाव के दौरान भी उन्होंने पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से ओपीएस बहाल करने के बारे में बात की थी पर उन्हें कहा गया कि 2003-04 से लागू नई पेंशन योजना के आलोक में पुरानी योजना को बहाल किया जाना नामुमकिन है। ठाकुर कहते हैं, ‘‘ओपीएस कांग्रेस का सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा था। हमने कर्मचारियों को यह समझाने की कोशिश की थी कि केंद्र सरकार के स्तर पर नीतिगत परिवर्तन के बगैर राज्य पुरानी योजना को बहाल नहीं कर सकते। अब हम देखेंगे कि कैसे राज्य सरकार इसे लागू करती है और इसका राज्य के संसाधनों पर क्या असर पड़ेगा।’’
सुक्खू मानते हैं कि ओपीएस पर फैसला लेना इतना आसान नहीं था क्योंकि केंद्र इसके खिलाफ था। केंद्र ने एनपीएस के फंड में राज्य की ओर से जमा कराए 14 प्रतिशत और कर्मचारियों की ओर से जमा कराए 10 प्रतिशत योगदान के बराबर कुल 8000 करोड़ रुपये वापस करने से इंकार कर दिया था। नौकरशाही ने इसमें रोड़े अटकाए थे जबकि अर्थशास्त्रियों ने इसे दिवालिया होने का पक्का नुस्खा करार दिया था।
सुक्खू ने आउटलुक से कहा, ‘‘सबसे बड़ी चुनौती यह थी कि योजना के तहत कर्मचारियों को 800 से 900 रुपये तक की राशि भुगतान करने के लिए संसाधन कैसे जुटाए जाएं। मैंने अफसरों के साथ बैठक की, योजना का अध्ययन किया और छत्तीसगढ़ में लागू तरीके को अपनाया। इसके लिए मैंने नया फॉर्मूला दिया। हमने डीजल पर वैट को 3 प्रतिशत बढ़ा दिया ताकि योजना के लिए पैसा निकल सके। अगले साल का बजट पेश करते समय मैं कुछ और तरीके सामने रखूंगा।’’
हिमाचल प्रदेश के ऊपर पहले से 75000 करोड़ रुपये का कर्ज है। इसके अलावा, सुक्खू का दावा है कि भाजपा सरकार ने 11000 करोड़ की अतिरिक्त देनदारी छोड़ रखी है। इसमें कर्मचारियों के वेतन बकाया के मद में 4430 करोड़, पेंशन बकाया के मद में 5226 करोड़ और छठवें वेतन आयोग के अंतर्गत डीए के मद में 1000 करोड़ रुपये एरियर हैं। भाजपा सरकार ने चुनाव से पहले 900 नए संस्थान भी खोले थे जिन्हें चलाने के लिए अतिरिक्त 5000 करोड़ का खर्च आएगा।
अब तक केवल दो कांग्रेस शासित राज्यों छत्तीसगढ़ और राजस्थान ने एनपीएस को उलट कर योग्य कर्मचारियों के लिए ओपीएस के लाभ बहाल किए हैं। हिमाचल और गुजरात चुनाव के आलोक में पंजाब सरकार ने भी नवंबर 2022 में योजना को मंजूरी दे दी थी। केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण चुनाव के दौरान शिमला आई थीं। उन्होंने तब कहा था कि राजस्थान और छत्तीसगढ़ की सरकारें केंद्र से एनपीएस फंड में जमा कराए अपने योगदान को वापस मांग रही हैं लेकिन कानूनन यह पैसा राज्य सरकारों को वापस नहीं दिया जा सकता है।
निर्मला सीतारमण
उन्होंने कहा था, ‘‘कानून के अनुसार एनपीएस के केंद्रीय कोष में जमा पैसा राज्यों को वापस नहीं दिया जा सकता। यह केवल योगदान देने वाले कर्मचारी को लौटाया जा सकता है, किसी एक इकाई या अधिकरण को नहीं। क्या हम केवल इसलिए नियम बदल दें क्योंकि आप ओपीएस बहाल करना चाहते हैं?”
सुक्खू का मानना है कि उनकी सरकार ओपीएस को केवल मौद्रिक संदर्भ में नहीं देखती है बल्कि यह सामाजिक सुरक्षा का एक मसला है जिसका एक मानवीय पहलू भी है। चूंकि कैबिनेट अब फैसला ले चुकी है तो फंड जुटाने की जिम्मेदारी उनकी है।
ओपीएस बहाली के लिए संघर्ष छेड़ने वाली हिमाचल प्रदेश नई पेंशन योजना कर्मचारी यूनियन के अध्यक्ष प्रदीप ठाकुर ने राज्य सरकार के इस फैसले को हाल के वर्षों में कर्मचारियों की एक बड़ी जीत बताया है। वे कहते हैं, ‘‘सुक्खू जी यह ऐेतिहासिक निर्णय लेकर पेंशन पुरुष बन गए हैं।’’
वे मानते हैं कि 2003-04 में जब एनपीएस लागू हो रहा था उस वक्त और बाद में भी कर्मचारियों ने इसका विरोध नहीं किया था, लेकिन कर्मचारियों ने जब देखा कि अवकाश प्राप्त सरकारी कर्मी बिना किसी सामाजिक सुरक्षा के किस बदहाली में जी रहे हैं तब उन्होंने इसका विरोध शुरू किया। वे कहते हैं, ‘‘कर्मचारियों के समर्थन से ही हमारे आंदोलन को बल मिला है।’’ इस फैसले पर मुख्यमंत्री सुक्खू का अभिनंदन करने के लिए यूनियन अगले कुछ हफ्तों में मंडी जिले में एक लाख कर्मचारियों की रैली करने की योजना बना रही है। यूनियन के नेता कह रहे हैं कि इतिहास में सुक्खू को पेंशनभोगियों के ‘‘महानायक’’ के रूप में याद रखा जाएगा।
सुक्खू की अगली चुनौती ओपीएस को जमीन पर उतारना और उसके लिए फंड जुटाना है। इसके अलावा दो और बड़े वादे लंबित हैं- 18 से 60 बरस की औरतों के लिए 1500 रुपये प्रतिमाह की सहायता और साल भर में एक लाख नौजवानों को रोजगार। सुक्खू आश्वस्त करते हैं, ‘‘हमने कैबिनेट की दो उपसमितियां बनाई हैं ताकि महीने भर के भीतर दोनों वादों पर काम किया जा सके। हम दोनों वादे पूरा करेंगे।’’
इन चुनावी वादों को पूरा करने के लिए राज्य को और उधारी लेनी पड़ेगी, इसकी पूरी संभावना है। विधानसभा सत्र के दौरान सरकार ने एक बिल पास किया है। इसके तहत राज्य की उधारी सीमा को राज्य के सकल घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) के 4 प्रतिशत से बढ़ाकर 6 प्रतिशत किया जाना है।
राज्य के 2022-23 के बजट के अनुसार हिमाचल में हर 100 रुपये में से 26 रुपया कर्मचारियों के वेतन के मद में जाता है, 15 रुपया पेंशन के मद में, 10 रुपया ब्याज भुगतान पर, 11 रुपया कर्ज भुगतान पर और 9 रुपया स्वायत्त संस्थानों को अनुदान पर खर्च होता है। यानी केवल 29 रुपया बाकी कामों के लिए बच पाता है। व्यवस्था के मद में इतने भारी-भरकम खर्च के बीच यह देखे जाने वाली बात होगी कि मुख्यमंत्री सुक्खू कल्याणकारी गतिविधियों के साथ विकास को संतुलित करते हुए कैसे व्यवस्था परिवर्तन लाते हैं।