“अनियंत्रित और अवैज्ञानिक विकास की अवधारणा ने किया बंटाधार”
उत्तराखंड मध्य हिमालय में दूर तक फैले हरी घास के खूबसूरत बुग्याल, अलौकिक हिमाच्छादित उच्च हिमालयी चोटियां, बांज, बुरांश, देवदार, शीशम, सागौन आदि के सघन वनों की मनोहारी अनमोल संपदा से गुलजार है। गंगा-यमुना के पवित्र उद्गम स्थान के साथ ही कई अन्य सदाबहार नदियों की जन्मस्थली, जैविक पर्वतीय अनाजों के उत्पादन के लिए माकूल पहाड़ी सीढ़ीनुमा कृषि भूमि और तलहटी में गेंहू, धान, गन्ना उत्पादन की प्रचुरता से यह संपन्न है। इसके बाद भी उत्तराखंड को आपदा प्रभावित राज्य माना जाता है। विकास के नाम पर अनियोजित और अनियंत्रित निर्माण, वनों का अवैध कटान आपदाओं को साफ तौर पर बढ़ावा देता दिख रहा है।
पिछले दो दशकों से देखा जा रहा है कि विकास कार्यों के लिए आवश्यक मानकों की अनदेखी लगातार की जा रही है। बिजली उत्पादन के लिए बड़े-बड़े बांध बनाए गए हैं। ऑलवेदर रोड के लिए पहाड़ों को बारूद से तोड़ा जा रहा है। पेड़ों का मनमाना कटान किया जा रहा है। ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेलवे लाइन बिछाने के लिए भी पहाड़ों में सुरंगें बनाई जा रही हैं और वनों को काटा जा रहा है। बदरीनाथ धाम और केदारनाथ धाम को सुंदर बनाने लिए मास्टर प्लान लागू किया गया है। इसके लिए पहाड़ में बेतरतीब कंक्रीट के जंगल खड़े किए जा रहे हैं। केदारनाथ धाम जाने के लिए पूरी केदारघाटी में हेलीकॉप्टरों की गूंज से पहाड़ का वातावरण खराब हो रहा है।
यूं तो आपदाओं और पहाड़ का चोली दामन का साथ है, लेकिन मनमाने निर्माण से आपदाओं की भयावहता बढ़ती जा रही है। 2013 में केदारघाटी में आई आपदा से भी नीति-नियंताओं ने कोई सबक नहीं लिया। इसका नतीजा जोशीमठ में भू-धंसाव के रूप में सामने आ रहा है। तीव्र ढाल वाले स्थानों पर बहुमंजिला इमारतों का निर्माण आपदाओं को आमंत्रित कर रहा है। राज्य में होने वाले किसी भी निर्माण के लिए विशेषज्ञ विभागों के भू-वैज्ञानिकों की लिखित रिपोर्ट लेना अनिवार्य होना चाहिए, लेकिन ऐसा कुछ किया नहीं जा रहा है।
बात वन महकमे की करें, तो आपदाओं के दृष्टिकोण से सबसे अधिक पानी वन क्षेत्रों से ही नदी नालों के द्वारा अपने प्राकृतिक गंतव्य तक पहुंचता है, लेकिन आपदाओं में सबसे जायदा निष्क्रिय भी यही विभाग रहता है। उत्तराखंड में लोक निर्माण विभाग, एनएचएआइ, सीमा सड़क संगठन, प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना का काम भी मनमाने तरीके से हो रहा है। आपदाओं को बढ़ाने में इन विभागों की भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। बिना स्लोप स्टडी के कहीं पर भी सड़क काटने और मलबे को जहां-तहां फेंकते इन्हें कहीं भी देखा जा सकता है। कहीं भी मलबा फेंकने से जहां एक तरफ जैव-विवधिता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, वहीं कई स्थानों पर प्राकृतिक पानी के स्रोत भी खत्म हुए हैं। यही मलबा वर्षाकाल में बड़ी आपदाओं का कारण बनता है।
देहरादून स्थित थिंक टैंक एसडीसी फाउंडेशन हर महीने उत्तराखंड में आने वाली प्रमुख प्राकृतिक आपदाओं और दुर्घटनाओं पर रिपोर्ट जारी करता है। फाउंडेशन के अध्यक्ष अनूप नौटियाल के अनुसार उत्तराखंड डिजास्टर ऐंड एक्सीडेंट सिनोप्सिस (उदास) की रिपोर्ट में लगातार छठे महीने भी जोशीमठ के भू-धंसाव की चर्चा है। विभिन्न रिपोर्टों के हवाले से कहा गया है कि जोशीमठ में 868 से ज्यादा घरों में दरारें आई हैं। दो हजार अस्थाई आवास बनाने के दावे के बावजूद अब तक इस तरह के सिर्फ 15 ढांचे बनाए जा सके हैं। जोशीमठ के लोगों के विरोध के बावजूद हेलंग-मारवाड़ी बाइपास का निर्माण फिर से शुरू किया गया है। लोग इस बाइपास को जोशीमठ के लिए बड़ा खतरा बताते रहे हैं। मई और जून के महीनों में भी राज्य के उच्च हिमालयी क्षेत्रों में कई जगह एवलांच की घटनाएं सामने आई थीं।
रूद्रप्रयाग जिले के तुंगनाथ मंदिर के बाद अब चमोली जिले के मुख्यालय गोपेश्वर में स्थित गोपीनाथ मंदिर में भी झुकाव दर्ज किया गया है। उत्तरकाशी जिले के मस्ताड़ी गांव में लोगों के घरों में दरारें आ रही हैं। गांव के लोगों ने जोशीमठ की तरह ही यहां भू-धंसाव होने की बात कही है। गांव में 1991 के भूकंप के बाद भूधंसाव पहली बार महसूस किया गया था।
बदरीनाथ मास्टर प्लान के तहत रिवरफ्रंट पर काम चलने से जोखिम बढ़ गया है। कई इमारतों में भूस्खलन की घटनाएं सामने आई हैं। बदरीनाथ मंदिर के चारों ओर 75 मीटर तक निर्माण कार्य किया जा रहा है। बदरीनाथ पुराने मार्ग पर पुजारियों की दुकानें और घर ध्वस्त कर दिए गए हैं। नदी के किनारे स्थित मकान और धर्मशालाएं अब भूस्खलन की चपेट में हैं।
अनूप नौटियाल के मुताबिक उत्तराखंड को आपदा प्रबंधन के ओडिशा मॉडल से सीख लेने की जरूरत है। आपदा प्रबंधन मजबूत करने, परिदृश्य योजना में निवेश करने और आपदा जोखिम की अधिक समझ फैलाने पर ओडिशा मॉडल महत्वपूर्ण सबक देता है। अपने अध्ययनों के आधार पर वैज्ञानिक यहां भूस्खलन, भूकंप की आशंका लगातार जताते रहे हैं। ऐसे में उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में विशेष तौर पर आपदा तंत्र को मजबूत करने की सख्त जरूरत है।