लखनऊ में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) विरोधी प्रदर्शन के दौरान सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के आरोपियों के पोस्टर हटाने के आदेश के खिलाफ यूपी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने राज्य सरकार को तत्काल सड़क किनारे लगे आरोपियों के पोस्टर हटाने का आदेश दिया था। यूपी के अटॉर्नी जनरल राघवेंद्र सिंह ने बताया कि मामले में गुरुवार को जस्टिस यू यू ललित और अनिरुद्ध बोस की अवकाश पीठ सुनवाई करेगी।
ये दिया था हाई कोर्ट ने आदेश
9 मार्च को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने लखनऊ में सड़क किनारे लगे पोस्टर को तत्काल हटाने का आदेश दिया था, जिसमें सीएए के विरोध प्रदर्शन के दौरान हिंसा में शामिल आरोपियों लोगों के नाम और फोटो थे। कोर्ट ने पुलिस की कार्रवाई लोगों की निजता में "अनुचित हस्तक्षेप" बताया था। साथ ही जिला मजिस्ट्रेट और लखनऊ पुलिस आयुक्त को 16 मार्च को या उससे पहले अनुपालन रिपोर्ट पेश करने का निर्देश दिया था।
बता दें कि लखनऊ प्रशासन ने हिंसा के 57 आरोपियों के पोस्टर शहर के प्रमुख चौराहों पर लगा दिए थे। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मामले में संज्ञान लेते हुए रविवार के दिन सुनवाई की और इसे हटाने का आदेश दिया था। कोर्ट ने इसे निजी आजादी का खुला अतिक्रमण बताया था। इन पोस्टरों में कार्यकर्ता-राजनीतिज्ञ सदफ जाफर और पूर्व आईपीएस अधिकारी एसआर दारापुरी का नाम भी शामिल था।
अनुच्छेद 21 का उल्लंघन
हाई कोर्ट ने अपने आदेश में ने देखा कि अधिकारियों की कार्रवाई संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है जिसके तहत कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार कोई भी व्यक्ति अपने जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं होगा। कोर्ट ने कहा, "कुल मिलाकर, इस बात में कोई संदेह नहीं है कि राज्य की कार्रवाई, जो इस जनहित याचिका का विषय है, लोगों की निजता के हनन के अलावा और कुछ नहीं है।"
यूपी सरकार ने ये दी थी दलील
सीएए विरोध प्रदर्शनकारियों के नाम, तस्वीरें और पतों वाले पोस्टर पांच मार्च को रात में लगे थे। लखनऊ में, लगभग 50 लोगों को पुलिस ने कथित दंगाइयों के रूप में पहचाना और उन्हें नोटिस दिया गया। पोस्टरों में कहा गया कि यदि वे मुआवजे का भुगतान करने में विफल रहते हैं तो अभियुक्तों की संपत्ति जब्त कर ली जाएगी।
रविवार को सुनवाई के दौरान, यूपी सरकार ने हाई कोर्ट ने कहा था कि यह एक "निवारक" कार्रवाई थी और कोर्ट को इस तरह के मामले में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए क्योंकि अभियुक्तों ने सार्वजनिक और निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया था।