राज्य में राष्ट्रपति शासन के खिलाफ दायर याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए उत्तराखंड हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के एम जोसफ और न्यायमूर्ति वी के बिष्ट की पीठ ने कहा, लोगों से गलती हो सकती है, चाहे वह राष्ट्रपति हों या न्यायाधीश। पीठ ने स्पष्ट तौर पर कहा कि राष्ट्रपति के समक्ष रखे गए तथ्यों के आधार पर किए गए उनके निर्णय की न्यायिक समीक्षा हो सकती है। अदालत की यह टिप्पणी केंद्र के यह कहने पर आई कि राष्ट्रपति के समक्ष रखे गए तथ्यों पर बनी उनकी समझ अदालत से जुदा हो सकती है। सुनवाई के दौरान पीठ ने कहा कि राज्यपाल ने राष्ट्रपति को भेजी गई अपनी रिपोर्ट में इस बात का जिक्र नहीं किया कि 35 विधायकों ने मत विभाजन की मांग की है। राज्यपाल को पहले व्यक्तिगत तौर पर संतुष्ट होना चाहिए। पीठ ने कहा कि उन्होंने अपनी रिपोर्ट में 35 विधायकों के विधानसभा में मत विभाजन की मांग के बारे में अपनी व्यक्तिगत राय का उल्लेख नहीं किया। उनकी रिपोर्ट में यह नहीं कहा गया है कि कांग्रेस के नौ बागी विधायकों ने भी मत विभाजन की मांग की थी। पीठ ने यह भी कहा कि ऐसी सामग्री की निहायत कमी थी जिससे राज्यपाल को शंका हो कि राष्ट्रपति शासन लगाने की जरूरत है। अदालत ने पूछा, तो भारत सरकार को कैसे तसल्ली हुई कि 35 खिलाफ में हैं? राज्यपाल की रिपोर्ट से? पीठ ने कहा, 19 मार्च को राष्ट्रपति को भेजे गए राज्यपाल के पत्र में इस बात का जिक्र नहीं है कि 35 विधायकों ने मत विभाजन की मांग की थी। इस बात का जिक्र नहीं होना शंका पैदा करता है। यह निहायत महत्वपूर्ण है। इस पर केंद्र ने जवाब दिया कि 19 मार्च को राज्यपाल के पास पूरा ब्यौरा नहीं था।
पीठ बर्खास्त किए गए मुख्यमंत्री हरीश रावत की याचिका और उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी। पीठ ने यह भी पूछा कि क्या ऐसे आरोप कि पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत कांग्रेस के नौ बागी विधायकों पर निशाना साध रहे थे, अनुच्छेद 356 लगाने का आधार हो सकता है। अदालत ने कहा कि बागी विधायकों के बारे में चिंता पूरी तरह अप्रासंगिक और अस्वीकार्य है। पीठ ने पूछा कि राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने से संबंधित कैबिनेट नोट को गोपनीय क्यों रखा गया है और इस पर अदालत में चर्चा क्यों नहीं हो सकती या इसे याचिकाकर्ता को क्यों नहीं दिया जा सकता। खंडपीठ ने कल हुई सुनवाई के दौरान भी बार-बार कहा था कि खरीद-फरोख्त और भ्रष्टाचार के आरोपों के बावजूद बहुमत परीक्षण का एकमात्र संवैधानिक रास्ता विधानसभा में शक्ति परीक्षण ही है जिसे अब भी आपको करना है। सुनवाई में केंद्र को अदालत के कड़े सवालों का भी सामना करना पड़ा कि अगर यह मान लिया जाए कि जहां केंद्र शासित पार्टी से अलग पार्टी की सरकार हैं तो वह अनुच्छेद 356 लगाने का तत्काल मामला बनता है तो यह चलन उस ओर ले जाएगा जिसमें केंद्र सरकार राष्ट्रपति शासन लगाने के अवसर खोजने के लिए आवर्धक लेंस लगाकर देख रही है।