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कश्मीर: दिल और दिल्ली की दूरी

लोगों की नजर में मोदी की ‘अच्छे आदमी’ की छवि के बावजूद लगता है कि भाजपा को चुनाव में उतना राजनैतिक...
कश्मीर: दिल और दिल्ली की दूरी

लोगों की नजर में मोदी की ‘अच्छे आदमी’ की छवि के बावजूद लगता है कि भाजपा को चुनाव में उतना राजनैतिक लाभ नहीं मिलेगा

हाल ही में एक सुबह बडगाम के बीचोबीच स्थित एक बेकरी की दुकान में दो ग्राहक सूबे में पड़े सूखे पर आपस में चर्चा कर रहे थे। दुकानदार मोहम्मद अशरफ (40 वर्ष) चुपचाप एक बुजुर्ग ग्राहक के कहे पर सिर हिला रहे थे। वह बुजुर्ग इस बार घाटी में हुई कम बर्फबारी और सूखे से खेती पर पड़ने वाले असर के ऊपर चिंता जता रहे थे। ग्राहकों के जाने के बाद मैंने अशरफ से सियासत  पर चर्चा छेड़ दी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जिक्र किया, यह मानते हुए कि उनकी ओर से इस पर कोई टिप्पणी नहीं आएगी लेकिन अनपेक्षित रूप से उन्होंने बोलने में कोई संकोच नहीं किया।

तंदूर के किनारे बैठकर नमक वाली चाय सुड़कते हुए अशरफ मेरी आंखों में सीधे देखते हुए बोले, “मोदी अच्छा आदमी है।” उनका एक नौजवान  सहयोगी तंदूर पर काम कर रहा था तो दूसरा, जो करीब पैंतालीस साल का था, आटा गूंथ रहा था। अशरफ बोले, “मोदी ने हेल्थ कार्ड दिया जिससे सैंकड़ों लोगों को फायदा मिल रहा है। इसके अलावा वह हर महीने बुजुर्गों को हजार और डेढ़ हजार रुपये भी देता है।” फिर अशरफ ने अपने गांव क्रेमशर के एक बुजुर्ग की कहानी सुनाई, जो मोदी के खिलाफ एक शब्द सुनने को तैयार नहीं क्योंकि उसे हर महीने डेढ़ हजार रुपये मिलते हैं।

श्रीनगर के एक निजी अस्पताल के बाहर मिले एक व्यक्ति ने बताया कि उसके एक करीबी रिश्तेदार को अपेंडिक्स था और उसकी हालत बिगड़ गई थी। उसने बताया, “इस अस्पताल में हमने उनका ऑपरेशन करवाया और हमारा एक पैसा नहीं लगा।”

वर्ष 2020 में शुरू की गई आयुष्मान भारत पीएम-जेएवाई सेहत योजना का लाभ जम्मू-कश्मीर के सभी निवासियों को मिलता है। इसके अंतर्गत हर परिवार को पांच लाख रुपये का मुफ्त बीमा कवरेज प्राप्त है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

जाहिर है, किसी हारी-बीमारी की हालत में जब किसी को सरकारी योजना का सहारा मिल जाता है तो मन पर उसका गहरा असर होता है। अशरफ जैसे तमाम कश्मीरी भी इसीलिए इस लाभदायी योजना को उस नेता के साथ जोड़कर देखते हैं, जिसकी छवि हर जगह हर समय किसी न किसी रूप में उनके सामने मौजूद है।

एक निजी अस्पताल के चिकित्सक बताते हैं कि आयुष्मान भारत योजना के कारण जम्मू-कश्मीर में निजी अस्पतालों की संख्या बढ़ गई है। उनका कहना है कि लोग अब सरकारी के बजाय निजी अस्पतालों को इलाज के लिए चुन रहे हैं और योजना का लाभ उठा रहे हैं। वे कहते हैं, “सरकार को अब इस योजना के बोझ का अहसास हो रहा है, इसलिए अब वह सर्जरी की संख्या को सीमित कर रही है। निजी अस्पतालों के आंख के सर्जनों को कहा जा रहा है कि वे एक दिन में पांच ऑपरेशन ही कर सकते हैं।”

श्रीनगर से दूर प्रसिद्ध पर्यटन केंद्र गुलमर्ग के होटलवालों का मानना है कि ऑफ सीजन में भी सैलानियों की अच्छी आमद देखने में आ रही है, हालांकि उनकी बड़ी चिंता “गुलमर्ग में उनकी जगह” को लेकर है क्योंकि एक होटल मालिक बताते हैं, “बीते पांच साल से सरकार ने हमारी लीज नहीं बढ़ाई है। हमें डर है कि कहीं हमारे हाथ से होटल चले न जाएं।”

गुलमर्ग और पहलगाम के वे होटल मालिक जिन्हें 1978 में जमीन के पट्टे मिले थे, आजकल परेशान चल रहे हैं। दिसंबर 2022 में लेफ्टिनेंट गवर्नर का एक आदेश आया था, जिसमें जमीन का पट्टा वापस करने को कहा गया था और ऐसा न करने पर बेदखली की बात की गई थी। ये होटल मालिक पांच साल से पट्टों के नवीनीकरण की मांग कर रहे हैं। वे घबराए हुए हैं कि जाने कब उनकी संपत्तियां नीलामी पर चढ़ा दी जाएं।

मोदी सरकार के बारे में श्रीनगर की निचली अदालत के एक अधिवक्ता कहते हैं, “भाजपा की सरकार बाकी पूरे भारत के लिए अच्छी होगी, कश्मीर के लिए नहीं है। अनुच्छेद 370 को खत्म करके हमें 5 अगस्त 2019 को ही निहत्था कर दिया गया था, उसके बाद से सरकार के साथ हमारे रिश्ते पूरी तरह बदल चुके हैं। यह रिश्ता अब नागरिक और राज्य वाला रिश्ता नहीं रह गया है। हम नहीं जानते कि हमें और हाशिए पर डालने के लिए वे कब कौन-सा कानून लेकर आ जाएंगे।”

वे कहते हैं कि बड़ी संख्या में लोगों को आयुष्मान बीमा और सरकार की अन्य योजनाओं का बेशक लाभ मिला है लेकिन उन्हें संदेह है कि इससे मौजूदा सरकार की कश्मीर नीति के बारे में लोगों की धारणा बदली होगी। वे कहते हैं, “स्वास्थ्य कार्ड लोकतंत्र का विकल्प नहीं है, न ही यह जमीन और जनसांख्यिकीय स्थिति के बारे में उस सुरक्षा-बोध की भरपाई करता है जो अगस्त 2019 से पहले इस राज्य में था।”

कश्मीर का समाज बहुत गहरे स्तर पर राजनीतिक है, इसके बावजूद यहां के लोग बाकी देश की तरह सरकारी सेवाओं और सुविधाओं का लाभ उठाने में संकोच नहीं बरतते। हालांकि किसी पार्टी या नेता की लोकप्रियता का आकलन करने के दौरान राजनीतिक आख्यानों और सामूहिक स्मृतियों की अंतरक्रिया ही लोगों के चुनाव को गढ़ने का काम करती है।

आज के कश्मीरी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष ढंग से राजनीतिक अभिव्य‌क्ति पर प्रतिबंध का अहसास कर रहे हैं। वे बेशक सड़क, अस्पतताल, पानी के बारे में बोल सकते हैं लेकिन उन्होंने अगर लोकतंत्र के बारे में बात की तो यह दूसरों की भौंहें खड़ी कर सकता है। एक वरिष्ठ  मानवाधिकार अधिवक्ता ने बताया, “जैसे एक खूबसूरत औरत अपने पीछे पड़े किसी पागल सनकी आशिक से डरती है, वैसे ही कश्मीरी आज सरकार से डरते हैं। वह उससे आंख मिलाने में भी डरती है कि कहीं वह पागल उसके दिल की बात न जान ले।”

फारूक अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती

फारूक अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती

एक स्थानीय नेता कहते हैं, “कश्मीरियों के दिल में जो है, वे नहीं चाहते कि सरकार को पता लगे। इससे उनकी दिक्कतें और बढ़ जाएंगी। वे जानते हैं कि विकास का कोई भी काम लोकतांत्रिक और राजनीतिक अधिकारों का विकल्प नहीं है।”

अशरफ ने शुरुआती प्रशंसा के बाद जो कहा, उससे इसकी पुष्टि होती है। उन्होंने कहा कि उन्होंने पहले भी वोट नहीं दिया और आगे भी नहीं देंगे। वे कहते हैं, “मैं क्यों वोट दूं? कश्मीर एक अलहदा मसला है।”

एक राजनीतिक विश्लेषक नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, “2019 के बाद मेनलैंड इंडिया में जो मुसलमानों के इर्द-गिर्द राजनीति हुई है, उसका कश्मीोर पर असर पड़ा है। यह अतीत से अलग है। 1992 में बाबरी विध्वंस का भी यहां बेहद मामूली असर था।”

वे कहते हैं, “बाबरी जैसी घटनाओं ने कश्मीर में प्रतिक्रियाओं को नहीं उभारा, वहीं आज पहली बार लोग असुरक्षा और उत्तेजना में जी रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि खतरा अब उनके नजदीक आ रहा है।”

लगातार बदलते परिदृश्य में यह कह पाना मुश्किल है कि कश्मीर के लोग किसी लोकप्रियता के इम्तिहान का जवाब कैसे देंगे, हालांकि एक चीज पक्की जान पड़ती है कि अनुच्छेद 370 को खत्म करने, राज्य को केंद्र-शासित प्रदेश में बदलने और विकास के अपने एजेंडे को लागू करने के बावजूद भाजपा को लोगों का समर्थन नहीं मिलेगा- ऐसा स्थानीय नेता का मानना है।

नेशनल कॉन्फ्रेंस के प्रवक्ता इमरान नबी डार कहते हैं, “भाजपा अगर जम्मू-कश्मीेर में चुनाव जीतने को लेकर इतनी आश्वस्त है तो उसे अब तक चुनाव करवा देने चाहिए थे। अब तो पंचायतों और स्थाननीय निकायों के कार्यकाल भी 9 जनवरी को खत्मे हो चुके हैं।” 

पीडीपी नेता मोहित भान कहते हैं कि पहले तो अलगाववादी दल ही चुनाव के बहिष्कार का आह्वान किया करते थे लेकिन अब, “यह काम खुद चुनाव आयोग किए दे रहा है जिसने बीते पांच साल से जम्मू-कश्मीर असेंबली के चुनाव नहीं करवाए हैं।”

मोदी से अपेक्षाओं के बारे में वे कहते हैं, “ईमानदारी से कहूं, तो जैसा बहुमत उन्हें  मिला हुआ है उसके हिसाब से बतौर प्रधानमंत्री मोदी से उम्मीद थी कि वे कश्मीर पर अटल बिहारी वाजपेयी वाली राह चुनेंगे।”

भान कहते हैं कि कश्मीर के राजनीतिक नेतृत्व  को उम्मीद थी कि मोदी भी वाजपेयी के कश्मीरियत-जम्हूरियत-इंसानियत वाली राह पर चलेंगे, हालांकि उन्होंने खुद को आबादी के एक खास तबके के साथ ही जोड़े रखने का फैसला किया।

भान कहते हैं, “दिल और दिल्ली की दूरी केवल खोखला नारा बन कर रह गया। जम्मू-कश्मीर के लोगों को लगा कि उन्हें दोयम दरजे के नागरिकों में तब्दील कर दिया गया है। ऐसा सभी संवैधानिक संस्थानों को खत्म करके किया गया, जिसके कारण लोगों में यह बेचैनी भरा अहसास भर गया कि जब लोकतंत्र की मां ही अपने नागरिकों के साथ ऐसा बरताव कर सकती है तो बेहतर है कि अराजकता में ही जिया जाए, जहां कम से कम कोई उम्मीद तो नहीं होती।”

 

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