मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के ड्रीम स्कीम खतियानी विधेयक को राज्यपाल रमेश बैस द्वारा वापस लौटाने के बाद झारखंड में बवाल मचा हुआ है। विधेयक के प्रावधान संविधान और सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के विपरीत बताते हुए इसे रारज्यपाल ने वापस किया है। हेमंत सोरेन और उनकी पार्टी झामुमो के लिए इसका महत्व इस मायने में समझा जा सकता है कि विधेयक को कैश कराने के लिए ''खतियानी जोहार'' के नाम पर मुख्यमंत्री जिलों का दौरा कर रहे हैं।
हेमंत सोरेन की विधानसभा के सदस्यता खत्म करने से जुड़ी चुनाव आयोग की सिफारिश वाला लेटर बम राज्यपाल फोड़ रहे थे (उस पत्र का मजमून आज तक रहस्य है) मगर खतियानी विधेयक वापस हुआ तो हेमंत फट पड़े। राज्यपाल को खुली चुनौती दे दी। खतियानी जोहार यात्रा के क्रम में सोमवार को सरायकेला में राज्यपाल को ललकारा, कहा कि राज्यपाल जो चाहेंगे वह नहीं होगा, राज्य सरकार जो चाहेगी, वही होगा। वे बरसे कि यह नयी बात नहीं है, गैर भाजपा शासित राज्यों की सरकारों को पिछले दरवाजे से राज्यपाल के माध्यम से परेशान किया जा रहा है। यह दिल्ली या अंडमान निकोबार नहीं, झारखंड है यहां जो राज्य सरकार चाहेगी वही लागू होगा। संविधान की धज्जियां नहीं उड़ने देंगे। क्या आदिवासी मूलवासी को नौकरी देना गलत है। हमने जंग लड़कर अलग राज्य लिया है, खतियान भी लड़कर लेंगे। इस तरह राजभवन और हेमंत सरकार के बीच की खटास विस्फोटक मोड़ पर पहुंच गयी है। यह पहला मौका नहीं है जब राज्यपाल ने किसी विधेयक को वापस किया हो। मॉब लिंचिंग विधेयक, ट्राइबल यूनिवर्सिटी विधेयक, कृषि उपज विधेयक, कोर्ट फीस विधेयक, वित्त विधेयक को राज्यपाल अपनी आपत्तियों के साथ वापस कर चुके हैं। जिनमें तीन विधेयकों को विधानसभा से दोबारा पास कराया गया। कुछ विधेयक सीधे वोट बैंक से जुड़े हैं।
विधेयकों की वापसी हो, ट्राइवल एडवाइजरी कौंसिल, सदस्यता पर चुनाव आयोग की सिफारिश या आये दिन प्रशासनिक अंदाज में राज्यपाल का हस्तक्षेप सरकार से राजभवन की कटुता तीखी होती रही है। आदिवासी मूलवासी की पहचान के लिए स्थानीय नीति यानी कौन स्थानीय है झारखंड के लिए बड़ा मुद्दा रहा है। 1932 के खतियान को लेकर ही भाजपा शासन के दौरान मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा की गद्दी चली गई थी। हाई कोर्ट ने भी इसे खारिज कर दिया था।
विधानसभा के बीते सत्र में इसे पास कर कर राज्यपाल को भेजा है। स्थानीयता और स्थानीय की पहचान केलिए 1932 के खतियान को लेकर हेमंत लगातार अपना महत्वपूर्ण फैसला बता जनता से ताली बटोर रहे हैं। खतियान आधारित स्थानीय नीति को नियोजन से जोड़ दिया गया था। यानी 1932 का खतियानी पहचान रखने वालों को ही वर्ग तीन और चार के पदों पर नियुक्ति का प्रावधान किया गया था। अदालतों में मामला न अटके इसे ध्यान में रखते हुए हेमंत सरकार ने इसे नौवीं अनुसूची में रखने की केंद्र से सिफारिश की। और केंद्र के पाले में गेंद डाल दिया। उसी तरह जिस तरह जिस तरह सरना कोर्ड का मामला केंद्र के पास लटका हुआ है। जनगणना में आदिवासियों के लिए अलग धर्म कोड का मामला आदिवासियों की पहचान से जुड़ा है। तकनीकी कारणों से इसे केंद्र से मंजूरी मिलना टेढ़ी खीर है। दो साल से अधिक से इससे संबंधित विधानसभा से पास सर्वसम्मत प्रस्ताव केंद्र के पास पड़ा।
1932 का खतियान हो या सरना कोड यह लागू हो या न हो मगर आदिवासी वोटरों के बीच हेमंत ने उनका असली हिमायती होने का संदेश दे दिया है। लगातार इन मुद्दों को कैश कराते रहते हैं। हाल ही सम्मेद शिखर पारसनाथ का विवाद देश में लहराया रहा। खतियानी जोहार यात्रा में हेमंत गिरिडीह गये तो वहां भी कहा जैनियों को अलग धर्म कोड मिल सकता है तो आदिवासियों को क्यों नहीं। बहरहाल झारखंड में आदिवासियों के लिए विधानसभा में आरक्षित 28 में सिर्फ दो सीटों पर कब्जा करने वाली भाजपा को दोनों मसलों का काट नहीं मिल रहा। वे इसका विरोध नहीं कर पा रहे। आदिवासी वोटर नाराज न हों इसे ध्यान में रखते हुए भाजपा नेता अमूमन इस मसले पर खामोश हैं। खतियानी विधेयक की वापसी पर भाजपा विधायक दल के नेता बाबूलाल मरांडी ने इतना भर कहा कि राज्यपाल की आपत्तियों पर राज्य सरकार गंभीरता पूर्वक विचार करे। यह प्रदेश की साढ़े तीन करोड़ जनता के हित से जुड़ा है। इसमें बार बार राजनीति नहीं होनी चाहिए। राज्य सरकार झारखंड की धरती पर ही विधिसम्मत निर्णय ले। सत्ताधारी झामुमो के माउथपीस महासचिव सुप्रियो भट्टाचार्य कहते हैं कि 1932 के खतियान आधारित स्थनीयता बिल को सरकार पुन: राज्यपाल के पास भेजेगी। तब राज्यपाल बिल को नौवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए केंद्र के पास भेजने को मजबूर हो जायेंगे। वहीं हेमंत कैबिनेट के वरीय सदस्य चंपई सोरेन ने कह दिया कि जो 1932 की बात करेगा वही गांव में प्रवेश करेगा। बहरहाल झारखंड में आदिवासी वोटों को नाराज कर सत्ता हासिल करना आसान नहीं है। अगले साल विधानसभा और लोकसभा का चुनाव है, जाहिर है आदिवासी का मुद्दा अभी और गरमायेगा।
राजभवन ने क्या कहा
राज्यपाल रमेश बैस ने झारखण्ड विधान सभा से पारित ‘झारखण्ड स्थानीय व्यक्तियों की परिभाषा और परिणामी सामाजिक, सांस्कृतिक और अन्य लाभों को ऐसे स्थानीय व्यक्तियों तक विस्तारित करने के लिए विधेयक, 2022’ की पुनर्समीक्षा हेतु राज्य सरकार को वापस कर दिया है। उन्होंने कहा है कि राज्य सरकार इस विधेयक की वैधानिकता की समीक्षा करे कि यह संविधान के अनुरूप एवं माननीय उच्चतम न्यायालय के आदेशों व निदेशों के अनुरूप हो।
विदित हो कि यह अधिनियम माननीय राज्यपाल महोदय के अनुमोदन तथा माननीय राष्ट्रपति की सहमति हेतु प्रेषित करने का अनुरोध राज्य सरकार द्वारा प्राप्त हुआ था। इस अधिनयम के अनुसार, स्थानीय व्यक्ति का अर्थ झारखंड का अधिवास (डोमिसाइल) होगा जो एक भारतीय नागरिक है और झारखंड की क्षेत्रीय और भौगोलिक सीमा के भीतर रहता है और उसका या उसके पूर्वज का नाम 1932 या उससे पहले के सर्वेक्षण / खतियान में दर्ज है। इसमें उल्लेख है कि इस अधिनियम के तहत पहचाने गए स्थानीय व्यक्ति ही राज्य के वर्ग-3 और 4 के विरुद्ध नियुक्ति के लिए पात्र होंगे। उक्त विधेयक की समीक्षा के क्रम में स्पष्ट पाया गया है कि संविधान की धारा 16 में सभी नागरिकों को नियोजन के मामले में समान अधिकार प्राप्त है।
संविधान की धारा- 16(3) के अनुसार मात्र संसद को यह शक्तियां प्रदत्त हैं कि वे विशेष प्रावधान के तहत धारा 35 (A) के अंतर्गत नियोजन के मामले में किसी भी प्रकार की शर्तें लगाने का अधिकार अधिरोपित कर सकते हैं। राज्य विधानमंडल को यह शक्ति प्राप्त नहीं है। ए.वी.एस. नरसिम्हा राव एवं अन्य बनाम आंध्र प्रदेश एवं अन्य (AIR 1970 SC422) में भी स्पष्ट व्याख्या की गई है कि नियोजन के मामले में किसी भी प्रकार की शर्तें लगाने का अधिकार मात्र भारतीय संसद में ही निहित है। इस प्रकार यह विधेयक संविधान के प्रावधान तथा उच्चतम न्यायालय के आदेश के विपरीत है।
झारखंड राज्य के अंतर्गत अनुसूचित क्षेत्र है जो पांचवीं अनुसूची के तहत आच्छादित होता है। उक्त क्षेत्रों में शत प्रतिशत स्थानीय व्यक्तियों को नियोजन में आरक्षण देने के विषय पर उच्चतम न्यायालय के संवैधानिक बेंच द्वारा स्पष्ट दिशा-निर्देश जारी किया जा चुका है। उक्त आदेश में भी उच्चतम न्यायालय द्वारा अनुसूचित क्षेत्रों में नियुक्तियों की शर्तों लगाने के राज्यपाल में निहित शक्तियों को भी संविधान की धारा 16 के विपरीत घोषित किया गया था। सत्यजीत कुमार बनाम झारखण्ड राज्य के मामले में भी पुनः सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनुसूचित क्षेत्रों में राज्य द्वारा दिये गए शत प्रतिशत आरक्षण को असंवैधानिक घोषित किया गया था।
विदित हो कि विधि विभाग द्वारा यह स्पष्ट किया गया था कि प्रश्नगत विधेयक के प्रावधान संविधान एवं सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों के विपरीत है और कहा गया है कि ऐसा प्रावधान माननीय सर्वोच्च न्यायालय एवं माननीय झारखण्ड उच्च न्यायालय द्वारा पारित संदर्भित कतिपय न्याय-निर्णय/न्यायादेश के अनुरूप नहीं है। साथ ही ऐसा प्रावधान स्पष्टतः भारतीय संविधान के भाग III के अनुच्छेद 14, 15, 16 (2) में प्रदत्त मूल अधिकार से असंगत व प्रतिकूल प्रभाव रखने वाला प्रतीत होता है जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13 से भी प्रभावित होगा तथा अनावश्यक वाद-विवादों को जन्म देगा। अतः राज्यपाल महोदय से समीक्षा करते हुए पाया कि वर्णित परिस्थिति में जब राज्य विधानमंडल में यह शक्ति निहित नहीं है कि वे ऐसे मामलों में कोई विधेयक पारित कर सकती है, तो इस विधेयक की वैधानिकता पर गंभीर प्रश्न उठता है और उन्होंने इस विधेयक को राज्य सरकार को यह कहते हुए वापस किया कि वे विधेयक की वैधानिकता की गंभीरतापूर्वक समीक्षा कर लें, विधेयक संविधान एवं उच्चतम न्यायालय के आदेशों के अनुरूप हो।