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राजस्थान: चुनावी रण में कल्याण की नीति

  पिछले दो दशक की कई कल्याणकारी योजनाओं के स्रोत रहे राजस्थान का वोटर क्या कांग्रेस की सामाजिक...
राजस्थान: चुनावी रण में कल्याण की नीति

 

पिछले दो दशक की कई कल्याणकारी योजनाओं के स्रोत रहे राजस्थान का वोटर क्या कांग्रेस की सामाजिक सुरक्षा को जिताएगा या फिर से सत्तापलट का रिवाज निभाएगा?

 

अलवर के तिजारा से कांग्रेस के प्रत्‍याशी इमरान खान 1 नवंबर को टपूकड़ा में एक मॉल में खुले अपने कार्यालय में स्‍थानीय मेवों के बीच मौजूद थे। सैकड़ों की संख्‍या में बूढ़े और जवान मेव वहां उन्‍हें चुनाव जितवाने के लिए इकट्ठा हुए थे। इमरान दो दिन पहले तक बहुजन समाज पार्टी का प्रचार कर रहे थे, लेकिन बसपा से टिकट कटने पर उन्‍हें पिछली रात ही अचानक कांग्रेस से टिकट मिल गया था। हमने जानने की कोशिश की कि बसपा हो चाहे कांग्रेस, एक प्रत्‍याशी के तौर पर इमरान का चुनावी मुद्दा क्‍या है? इलाके के पुराने समाजसेवी और मेवों के बीच सर्वस्‍वीकृत विद्वान मौलाना हनीफ इस सवाल के जवाब कहते हैं, ‘सेकुलरिज्‍म, मोहब्‍बत की दुकान!’ उधर, इमरान को कांग्रेस की सात गारंटियां नहीं पता क्‍योंकि वे कांग्रेस में ताजा आए हैं। यही सवाल उनसे पूछने पर वे कहते हैं, ‘इलाके का विकास।’ ‘विकास’ की उनकी कुल समझदारी पानी, सड़क, गड्ढे तक सीमित है। क्‍या आपके यहां सांप्रदायिक माहौल है? क्‍या नूंह के दंगे का असर यहां भी हुआ था? ‘सेकुलरिज्‍म’ को चुनावी मुद्दा बताने वाले मौलाना इससे इनकार करते हैं, लेकिन शहर में भाजपा प्रत्‍याशी बाबा बालकनाथ की नामांकन रैली में आए उत्‍तर प्रदेश के मुख्‍यमंत्री योगी आदित्‍यनाथ की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, ‘‘जा के देखिए, बुलडोजर खड़े हैं, जेसीबी खड़ी है। वैसे तो बाबा बालकनाथ अच्‍छा आदमी है, योगी जैसा फिरकापरस्‍त नहीं, लेकिन वो भी ऐसा हो जाएगा।’’

करना यह हैः भाजपा नेता वसुंधरा राजे (बाएं)  के साथ पार्टी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा

करना यह हैः भाजपा नेता वसुंधरा राजे (बाएं)  के साथ पार्टी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा

राजस्‍थान के मेवात की सीटों पर सात गारंटियों के बजाय भाजपा की सांप्रदायिकता का डर कांग्रेस के लिए वोट खींचने का काम कर रहा है, हालांकि इसी इलाके में सांप्रदायिकता का एक ऐसा पहलू है जो भाजपा और कांग्रेस में फर्क नहीं बरतता। यह राजस्‍थान के विशिष्ट सामंतवाद की देन है, जिसका एक प्रसंग अलवर के शिक्षक भरत मीणा सुनाते हैं।

अलवर का राजगढ़ सड़क चौड़ीकरण के मामले में मंदिर तोड़े जाने को लेकर हुए सांप्रदाय‌िक संघर्ष के बाद राष्‍ट्रीय सुर्खियों में आया था। मीणा बताते हैं कि बाजार को चौड़ा करना कांग्रेस के विधायक द्वारा नियुक्‍त किए गए एसडीएम का लिया निर्णय था। यह निर्णय भाजपा के नगरपालिका बोर्ड की सिफारिश पर हुआ था। यह एक प्रशासनिक निर्णय था जिसकी शुरुआत भाजपा के बोर्ड ने की, लेकिन जिस पर दोनों ही दल बराबर सहमत थे।

वे कहते हैं, ‘‘उसमें कहीं कोई विरोध जनता के स्‍तर पर हुआ भी, तो उसे समझाया जाना चाहिए था या कानूनी रास्‍ता लेना था, लेकिन कांग्रेस के नेता योगेश मिश्रा ने जाकर वहां मंदिर के पक्ष में विश्‍व हिंदू परिषद के किसी नेता जैसा भाषण दे दिया और मामला सांप्रदायिक बन गया। यह कांग्रेस की राजनीति के खिलाफ था।’’

इसीलिए मीणा सेकुलरिज्‍म को इस चुनाव का मुद्दा नहीं मानते। हां, पुरानी पेंशन को वे बेशक इस चुनाव के लिहाज से जरूरी मानते हैं, लेकिन इस बात पर अफसोस जताते हैं कि कांग्रेस ने इसका उतना प्रचार नहीं किया।

वे कहते हैं, ‘‘मास्‍टर स्‍ट्रोक ओपीएस है जिससे भाजपा का वोटबैंक प्रभावित हुआ है, लेकिन कांग्रेस उसका जिक्र ही नहीं कर रही है। उसे तो प्रचार करना चाहिए कि कांग्रेस हारती है तो ओपीएस बंद हो सकती है। सात गारंटी में एक गारंटी ओपीएस भी है। निर्भर करता है कि कांग्रेस कैसा प्रचार करती है, हालांकि ज्‍यादातर सरकारी कर्मचारी चुनाव ड्यूटी में लग जाते हैं तो वोट ही नहीं देते। बाकी, एक चिरंजीवी योजना है और  एक कर्मचारियों के लिए आरजीएचएस हेल्‍थ योजना, दोनों का असर सकारात्‍मक है।’’

गारंटियों की सार्वभौमिकता पर सवाल

राजस्‍थान में कांग्रेस की सात कानूनी गारंटियों पर चर्चा करते हुए दो तरह के शिकवे सुनने में आते हैं। पहला, कांग्रेस इसे मुद्दा नहीं बना पा रही है। दूसरा, चुनाव कार्यकर्ताओं पर निर्भर करता है और कार्यकर्ता ही खुश नहीं हैं। इस मामले में सरकार द्वारा अपने वोटरों को लक्षित लाभ न देने और राजनीति नियुक्तियां न किए जाने का दर्द सरकारी कर्मचारियों और पढ़े-लिखे लोगों से बातचीत में बराबर झलकता है।

राज्स्थान के एक वरिष्ठ अधिकारी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को विस्‍तार से समझाते हुए बताते हैं कि आखिर उन्‍हें कानून की शक्‍ल क्‍यों दी गई। उनका कहना है कि गारंटियों को कानूनी जामा पहनाने के बाद अगर सरकार बदल भी गई, तो लोगों को उसका लाभ मिलता रहेगा क्‍योंकि ये राज्‍य के बनाए कानून हैं, कोई लाभकारी योजना या कार्यक्रम नहीं।

किसे लाभ पहुंचाएंगी यह योजनाएं

राज्‍य द्वारा कानून बनाकर योजनाओं को सार्वभौमिक चरित्र देना कांग्रेस की उस ‘वर्टिकल पैट्रनेज’ वाली परंपरागत रणनीति से सुसंगत है, जिसके बारे में तारिक थचील ने अपनी पुस्‍तक इलीट पार्टीज पुअर वोटर्स में विस्‍तार से चर्चा की है। अगर इस संदर्भ में देखें, तो सूचना के अधिकार से लेकर महात्‍मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून, खाद्य सुरक्षा कानून, स्‍वास्‍थ्‍य का अधिकार और न्‍यूनतम आय गारंटी कानून आदि सब कुछ कांग्रेस की ही देन है और संयोग से सबकी जड़ें राजस्‍थान में हैं।

इन कानूनों से मिलने वाले लाभों का चरित्र सार्वभौमिक है। यही वह बिंदु है जो कांग्रेस और उसके समर्थकों के वैचारिक और रणनीतिक ऊहापोह को उजागर करता है। अगर सात गारंटियां राज्‍य के बनाए कानून हैं तो उन्‍हें कांग्रेस पार्टी के दिए लाभों के तौर पर प्रचारित क्‍यों किया जा रहा है? मतदाताओं को कांग्रेस सरकार के विज्ञापनों में ‘लाभार्थी’ क्‍यों कहा जा रहा है? अधिकारी कहते हैं, ‘‘लाभार्थी शब्‍द चल पड़ा है तो हमने भी लिख दिया, हालांकि आपकी बात सही है।’’

चुनावी रणनीति के तौर पर कुछ लोग योजनाओं की सार्वभौमिकता को गलत मानते हैं। हरिदेव जोशी पत्रकारिता विश्‍वविद्यालय में एडजंक्‍ट प्रोफेसर तथा वरिष्ठ पत्रकार त्रिभुवन स्‍पष्‍ट कहते हैं कि यह कांग्रेस की बेवकूफी है कि जो उसका वोटर नहीं है उसे भी वह लाभ दे रही है, ‘‘इसका मतलब कि आपको पता ही नहीं है किस वर्ग को प्रसन्‍न करना है और किसको नहीं।’’

एक बड़ी शिकायत राजनीतिक नियुक्तियां न किए जाने को लेकर है। त्रिभुवन कहते हैं कि पांच हजार पद ऐसे थे जिन्‍हें कांग्रेस अपने नेताओं को दे सकती थी। इससे उन्‍हें भी यह समझ में आता कि यह उनकी सरकार है। कांग्रेस ने ऐसा नहीं किया।

भरत मीणा कहते हैं, ‘‘आप जब इतना पैसा योजनाओं पर लुटा ही रहे हो तो राजनीतिक नियुक्तियां करने में क्‍या दिक्‍कत आ रही है? अंतिम वर्ष में जा कर कुछ नियुक्तियां की जाती हैं, कार्यकर्ता तरस जाता है। योजनाओं से ज्‍यादा अहम कार्यकर्ता होते हैं। गहलोत के साथ दिक्‍कत यह है कि उनका कार्यकाल अच्‍छा रहता है, लेकिन वे चुनाव हार जाते हैं। इसलिए कांग्रेस का कार्यकर्ता अपने घर से निकलता है या नहीं, इस पर उसकी जीत निर्भर करेगी।’’

कांग्रेस की सामाजिक सुरक्षा योजनाओं और सात गारंटियों के चरित्र पर भी कुछ लोग शक जताते हैं। त्रिभुवन इन योजनाओं को कॉरपोरेट ताकतों की साजिश बताते हैं। वे कहते हैं कि ये योजनाएं वाकई अच्‍छी हैं लेकिन जिस रूट से आई हैं, वह गड़बड़ है।

वे कहते हैं, ‘‘ये कॉरपोरेट की लाई स्‍कीमें हैं जिसमें उन्‍होंने आइएएस अधिकारियों के माध्‍यम से बड़े खेल किए हैं। उसको समझाना और साबित करना बहुत कठिन है। जैसे, चिरंजीवी योजना बड़े कॉरपोरेट अस्‍पतालों द्वारा लाई गई है। भारी-भरकम बिल सरकार के पास जा रहा है प्राइवेट अस्‍पतालों का। ओवरबिलिंग की जा रही है। पैसा छह महीने या साल भर बाद रिफन्ड हो जाता है।’’

इसी तरह वे फसल बीमा योजना के एक प्रावधान को गिनवाते हैं जिसमें फसल नुकसान के आकलन में एक नियम डाल दिया गया है कि बारिश अगर तहसील के स्तर पर होगी तभी पैसा मिलेगा। इसमें खेल यह है कि आकलन करने के लिए जो मशीन लगी है वह बीमा कंपनी की है। त्रिभुवन के मुताबिक ऐसे मामलों में भाजपा और कांग्रेस के बीच कोई फर्क नहीं है।

गारंटियों की पहुंच का सवाल

कांग्रेस ने राजस्‍थान सरकार द्वारा दी गई सात गारंटियों को मतदाताओं तक पहुंचाने के लिए अपने कार्यकर्ताओं के अलावा कुछ इंटर्न भी रखे थे। जोधपुर के कारोबारी और शहर कांग्रेस के एक पदाधिकारी संदीप मेहता इन योजनाओं पर उन्‍हें प्रशिक्षण देने का काम करते हैं। वे खुद को मोटिवेशनल स्‍पीकर बताते हैं।

किस तक पहुंचेगी ये गारंटियां

आउटलुक से हुई लंबी बातचीत में वे इस बात को स्‍वीकार करते हैं कि जाति और धर्म के आगे योजनाओं को समझाना कांग्रेस के लिए टेढ़ी खीर साबित हो रहा है।

मेहता कहते हैं, ‘‘हम लोग जब बात करते हैं तो लोगों के दिमाग में गारंटी नहीं घुसती। मुख्‍यमंत्री तो विजन ही दे सकता है। इस सब को समझाना और उससे वोट लाना बहुत मुश्‍किल है। अंत में हिंदू-मुस्लिम और जाति कर दो तो वोट आ जाता है। हां, पोलराइजेशन रुका है और उसका कारण हमारा काम ही है। लोग जानते हैं कांग्रेस ने काम तो किया है, लेकिन कौन सा काम किया है उन्‍हें ये नहीं पता।’’

मेहता की बात को जोधपुर के समाजसेवी हिंदू सिंह सोढ़ा खोल के समझाते हैं। सोढ़ा मारवाड़ क्षेत्र में पाकिस्‍तान से आए शरणार्थी हिंदुओं के लिए बरसों से काम कर रहे हैं और कम से कम सात विधानसभा सीटों पर उनकी पकड़ है। सोढ़ा कहते हैं, ‘‘लोगों की याददाश्‍त बहुत कमजोर होती है। तीन साल तक कांग्रेस सरकार कहती रही कि भाजपा हमें काम नहीं करने दे रही। अंतिम के डेढ़ साल में इन्‍होंने इतनी घोषणाएं कर दीं कि कम से कम एंटी-इनकम्‍बेंसी को तो थाम ही लिया। इसलिए लोगों को तो यही याद रहेगा। जहां तक गारंटियों के पहुंचने और लोगों को मिले लाभ का सवाल है, तो इस मामले में ये सरासर झूठ बोल रहे हैं।’’ 

बाड़मेर, श्रीगंगानगर और जोधपुर सहित कुछ और जिलों को मिलाकर राजस्‍थान में शरणार्थी हिंदू मतदाताओं की संख्‍या अच्‍छी-खासी है। मारवाड़ की जिस सूरसागर सीट से राजस्‍थान भाजपा के अध्‍यक्ष सीपी जोशी चुनाव लड़ रहे हैं वहीं आठ हजार के करीब इनके वोट हैं। सोढ़ा कहते हैं कि बड़ी आसानी से वे चाहें तो इन सीटों को प्रभावित कर सकते हैं, लेकिन उन्‍हें भाजपा और कांग्रेस दोनों से कोई उम्‍मीद नहीं है। दोनों ने शरणार्थियों को धोखा ही दिया है।

सोढ़ा के मुताबिक जिन सात गारंटियों की बात कांग्रेस कर रही है, उनमें से एक भी योजना लाखों शरणार्थियों तक नहीं पहुंची है। वे अपने मोबाइल से निकाल कर 2018 के विधानसभा चुनाव में जारी कांग्रेस के घोषणापत्र का एक हिस्‍सा दिखाते हैं जिसमें पाकिस्‍तान से आए हिंदू शरणार्थियों के लिए वादे किए गए थे। वे कहते हैं, ‘‘इनमें से एक भी काम उन्‍होंने नहीं किया। यही हाल वसुंधरा सरकार का था। हम सबसे कहते रह गए, नागरिकता कानून में संशोधन भी हो गया, फिर भी हमारे लोग आज तक बदहाल हैं।’’

मेहता ऐसे आरोपों पर सफाई देते हुए कहते हैं, ‘‘यहां दो से ढाई लाख वोटर हैं। आप कितनों के पास पहुंच जाओगे? अगर हमारा हर कार्यकर्ता एक-एक घर घूमे तब भी नहीं हो पाएगा।’’

मेहता मौजूदा दौर को गहलोत सरकार की योजनाओं के लिए ‘ट्रांजिट फेज’ (संक्रमण काल) बताते हैंः ‘‘मुझे लगता है कि ये ट्रांजिट फेज है। अगर पब्लिक ने डिमांड की कि यह योजना जरूरी है तो उस तक योजना पहुंचेगी। यह उसका कानूनी अधिकार है, लेकिन इसमें वक्‍त लगेगा। अभी तक तो हम उन्‍हें दे रहे हैं, हमने उन्‍हें कमाना नहीं सिखाया।’’

इसके बावजूद उन्‍हें इस बात की उम्‍मीद है कि कांग्रेस के कार्यकर्ता को कम से कम इतना पता है कि लोग जब पूछें कि किसी काम के लिए कहां जाना है, तो वह बताने में सक्षम होगा। वे कहते हैं, ‘‘भाजपा ने हमारी योजनाओं की निंदा बहुत की, लेकिन वे खुद करेंगे क्‍या यह नहीं बताया। हमारे कार्यकर्ता को तो पता है कि लोगों के पास जाकर क्‍या बात करनी है। भाजपा के कार्यकर्ता को पता ही नहीं है। वो तो केवल हिंदू मुसलमान करेगा।’’

संगठन और प्रत्‍याशी

कांग्रेस के सामने अहम सवाल यही है- कार्यकर्ता और संगठन का, जो योजनाओं और गारंटियों की बात लोगों तक पहुंचा सके। इस मामले में जमीन पर सन्‍नाटा है। उसके कुछ प्रत्‍याशी तो अपने दम पर ही चुनाव प्रचार कर रहे हैं। मसलन, रामगढ़ सीट से जुबैर खान, जो तीन बार के विधायक रह चुके हैं, केवल एक गाड़ी और दो सहयोगियों के साथ प्रचार में अकेले पाए गए। उनकी पत्‍नी शफिया जुबैर जो निवर्तमान विधायक हैं, वे क्षेत्र में अलग से खुद प्रचार में लगी हुई थीं।

इसके अलावा, टिकटों की घोषणा में हुई देरी और अप्रत्‍याशित नामों ने बहुत से प्रत्‍याशियों की हालत पतली कर रखी है क्‍योंकि कम से कम 30 सीटें ऐसी हैं जहां प्रत्‍याशी के खिलाफ स्‍थानीय पार्टी इकाई खड़ी है। इस मामले में यही हाल भारतीय जनता पार्टी का भी है, इसलिए बगावत का खतरा दोनों ओर बराबर है।

अपना दावाः टोंक से नामांकन दाखिल करते कांग्रेस नेता सचिन पायलट

अपना दावाः टोंक से नामांकन दाखिल करते कांग्रेस नेता सचिन पायलट

भरत मीणा सवाल करते हैं, ‘‘आप कांग्रेस के आनुषंगिक संगठनों का हाल देख लीजिए। एनएसयूआइ में कार्यकर्ता छात्र मानसिकता का है ही नहीं। युवा कांग्रेस और महिला कांग्रेस कहां हैं पता ही नहीं है। भाजपा वाले सत्ता में होते हैं तो अपने काडर को ही ओबलाइज करते हैं जबकि कांग्रेस में मूल संगठन का आदमी कई बार खुद ही प्रताडि़त हो जाता है और संघी आदमी को लाकर बैठा दिया जाता है। गहलोत के कार्यकाल में यह शिकायत आम रही है।’’

योजनाओं ओर गारंटियों के मतदाताओं न पहुंचने या पहुंचने के बीच एक और बड़ा मसला अशोक गहलोत के चेहरे का भी है। राजस्‍थान में कांग्रेस गहलोत के चेहरे पर उसी तरह प्रचार कर रही है जैसे भाजपा नरेंद्र मोदी के चेहरे को केंद्र में रखकर करती है। इस तरह पूरा चुनाव प्रचार गहलोत-केंद्रित हो गया है। यह कांग्रेस की सांगठनिक और राजनीतिक संस्‍कृति के विपरीत है। इस कवायद में कांग्रेस का वैचारिक पक्ष पूरी तरह नदारद है।

मीणा कहते हैं, ‘‘कांग्रेस का वैचारिक पक्ष राजस्‍थान में कुछ नहीं है। राष्‍ट्रीय स्‍तर पर राहुल गांधी जो प्रयास कर रहे हैं, जो है बस वही है। पचीस-तीस साल पुराने कांग्रेस के पदाधिकारी को भी उसका वैचारिक पक्ष पता नहीं है। वह आचरण से सांप्रदायिक है। इस मामले में कूटनीतिक व्‍यवहार तो कम से कम होना ही चाहिए, वह भी नहीं है।’’

कल्‍याणकारी राज्‍य की वापसी?

भारतीय जनता पार्टी जब 2014 में केंद्र की सत्ता में आई थी, उस वक्‍त येल युनिवर्सिटी के विद्वान तारिक थचील की एक महत्‍वपूर्ण किताब प्रकाशित हुई थी। किताब का नाम था ‘इलीट पार्टीज पुअर वोटर्स’। किताब में इस बात की पड़ताल की गई थी कि भारत का गरीब मतदाता अपने वर्गीय हितों के विरुद्ध राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों को वोट क्‍यों देता है। इस संदर्भ में विशेष रूप से भाजपा और उसके आनुषंगिक संगठनों द्वारा सार्वजनिक कल्‍याणकारी सेवाओं के निजी प्रावधान (डिलिवरी) से वोट जुटाने की रणनीति का अध्‍ययन किया गया था। पुस्‍तक के आखिरी अध्‍याय ‘चुनावी रणनीति के रूप में सेवाओं का भविष्‍य’ में लेखक ने एक महत्‍वपूर्ण टिप्‍पणी की थी, जिसे मौजूदा विधानसभा चुनावों के आलोक में एक चमकदार भविष्‍यवाणी कहा जा सकता है।

भाजपा और कल्‍याण-आधारित रणनीति के बीच संबंध को लेखक ने दो कारकों का संयुक्‍त उत्‍पाद बताया था- अपने इलीट आधार को संजोए रखने की एक अहानिकर रणनीति के तौर पर गरीब मतदाता की भर्ती के लिए भाजपा की डिमांड और संपन्‍न संठनात्‍मक संसाधनों के लिहाज से भाजपा का आपूर्ति पक्ष। भाजपा के बरअक्‍स बाकी दलों के संदर्भ में तारिक ने लिखा था: ‘‘वामपंथी और अन्‍य छोटी जातिगत पार्टियों के समक्ष ऐसी रणनीति लागू करने के लिए डिमांड ही नहीं है क्‍योंकि ऐसे दलों का मूल जनाधार ही गरीब लोग हैं, लिहाजा वे वर्ग या जाति आधारित सीधी अपील उनसे कर सकती हैं। जहां तक कांग्रेस की बात है, उसका प्रभुत्‍व ऊपर से नीचे की दिशा में काम करने वाले संरक्षण (पैट्रनेज) के नेटवर्क के चलते कायम था, जो बढ़ती हुई पार्टी प्रतिस्‍पर्धा के दबाव में बिखरने लगा। पैट्रनेज तक कांग्रेस की पहुंच जिस तरह असुरक्षित होती गई है, रणनीतिक विकल्‍पों की उसकी जरूरत बढ़ती गई है। इस संदर्भ में उसके लिए भविष्‍य में कल्‍याण आधारित रणनीति ज्‍यादा आकर्षक साबित होगी।’’ वे आगे लिखते हैं कि कांग्रेस इस मामले में भाजपा की नकल केवल इसलिए नहीं कर सकी है क्‍योंकि कल्‍याण आधारित सेवाओं की डिलिवरी और प्रावधान के लिए उसके पास भाजपा जैसी सांगठनिक क्षमता और संसाधन नहीं हैं।

नौ साल पहले लिखी गई उपर्युक्‍त पंक्तियां आज राजस्‍थान के विधानसभा चुनाव में साकार होती दिख रही हैं, जहां संकट यह है कि कांग्रेस के पास इन गारंटियों के अलावा और कोई आकर्षक चीज मतदाताओं को लुभाने के लिए नहीं है लेकिन उसके पास न इतनी सांगठनिक क्षमता है और न ही ऐसे कार्यकर्ता जो कल्‍याण आधारित रणनीति को वोटों में बदल सकें।

इसके बावजूद लोगों की मानें, तो इस कल्‍याण आधारित रणनीति ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को तो रोक दिया है। राजस्‍थान का वोटर हालांकि अलग-अलग इलाके में अलग-अलग तरीके से सोच रहा है। वह कांग्रेस के ‘सामाजिक सुरक्षा’ वाले मुहावरे में तो कतई नहीं सोच रहा। सामाजिक सुरक्षा और गारंटी आदि शहरी पढ़े-लिखों के बहस तक सीमित चीजें हैं। मतदाता तक कांग्रेस सरकार की गारंटी लाभ बन के जरूर पहुंची है, लेकिन चुनावी नारा बन के नहीं। यही राजस्‍थान चुनाव की सबसे बड़ी पहेली है।

रंगीले राजस्‍थान के चुनावी रंग

साधु से डबल छल

साध्वी अनादि सरस्वती

साध्वी अनादि सरस्वती

कोई भी साधु-संत राजनीति करना चाहे तो आम तौर से भारतीय जनता पार्टी की गली पकड़ता है। अजमेर की सेलिब्रिटी साध्वी अनादि सरस्वती ने भी दो-तीन महीने पहले यही किया था। रास्ता तो सही था, पर टाइमिंग गलत थी। उन्हें भाजपा से अजमेर उत्तरी का टिकट नहीं मिला। नाराज होकर उन्होंने दूसरा रास्ता पकड़ लिया। अब उन्होंने खुद यह रास्ता पकड़ा या उन्हें घेर के पकड़वाया गया, इस पर तो रहस्य कायम है लेकिन कांग्रेस में उनकी भर्ती बाकायदे मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और राजस्थान प्रभारी सुखजिंदर सिंह रंधावा की उपस्थिति में हुई। गहलोत अपने एक बड़े नेता की नामांकन रैली को गच्चा देकर साध्वी को पार्टी में शामिल करवाने पहुंचे थे, इसलिए स्वाभाविक रूप से पूरे राजस्थान में कांग्रेस से एक साध्वी को टिकट मिलने की संभावना की खबर बहुत तेजी से फैली। साध्वी भी आंख बंद कर के तैयारी में जुट गईं। नामांकन की अंतिम तारीख 6 नवंबर से दो दिन पहले 4 तारीख को देर शाम तक वे अपने आश्रम में एक चालू खाता खुलवाने के लिए ऐक्सिस बैंक वालों के साथ मगजमारी करती रहीं। इन तकनीकी कामों में मदद के लिए कांग्रेस ने उन्हें एक भी कार्यकर्ता नहीं दिया था। उनके तीन भक्त इस काम में लगे थे। उधर, अजमेर जिला कांग्रेस के लोग अपने अध्यक्ष विजय जैन को टिकट दिलवाने की मुहिम छेड़े हुए थे। फिर भी, साध्वी को अशोक जी के ऊपर पूरा विश्वास था। सातवीं सूची इतवार 5 नवंबर की देर रात आई। साध्वी के साथ फिर से धोखा हो गया। अजमेर उत्तरी से पार्टी ने महेंद्र सिंह रलावता को टिकट दे डाला, जो सचिन पायलट खेमे के माने जाते हैं और पिछला चुनाव हार चुके हैं। गहलोत के करीबी धर्मेंद्र राठौर का टिकट कटने की आशंका से जो राजपूत मतदाता शुरू से बेचैन था, उसे रलावता के आने से कुछ राहत मिली होगी, लेकिन सिंधी साध्वी का क्या होगा जिन्हें न माया मिली, न राम!

सख्त मैडम, नरम साहब

जुबैर खान

जुबैर खान

अलवर की रामगढ़ सीट से शफिया जुबैर कांग्रेसी विधायक हैं। वे जुबैर खान की पत्नी् हैं। जुबैर खान कांग्रेस के पुराने वफादार कार्यकर्ता हैं जो एआइसीसी में उत्तर प्रदेश के प्रभारी रह चुके हैं। दिल्ली की जामिया मिलिया युनिवर्सिटी से पढ़े-लिखे जुबैर पच्चीस साल दो माह की उम्र में पहली बार विधायक बने थे और भारत के सबसे युवा विधायक का तमगा उनके नाम है। तब से वे तीन बार रामगढ़ के विधायक रह चुके हैं। पिछली बार हालांकि उन्होंने पत्नी को लड़वा के जितवा दिया और विधायक-पति हो गए। इस बार फिर से कांग्रेस ने उन्हें टिकट दे दिया है। प्रचार के दौरान वे अलवर के बग्गड़ तिराहे पर मिलने के लिए आए और चाय की दुकान पर कुर्सी खींच के बैठ गए। मैडम भी क्षेत्र में प्रचार कर रही थीं लेकिन उन्हें आने में देर थी। मूंगफली आई। चाय भी आई। दोनों लड़के अपने साहब की खूबियां गिनवाने लगे। यह पूछने पर कि मैडम को इस बार रिपीट क्यों नहीं किया गया, लड़के हंस दिए। एक ने कहा- ‘‘साहब थोड़ा नरम आदमी हैं, मैडम सख्त हैं। इस बार जनता की मांग थी कि साहब ही लड़ें।” जुबैर खान ने चाय की चुस्की लेते हुए धीरे से कहा, ‘‘वे फौजी की बेटी हैं। थोड़ा कड़ा बोलती हैं। बस, यही बात है।”

संघ का नागौरी दर्द

ज्योति मिर्धा

ज्योति मिर्धा चुनाव प्रचार के दौरान

नागौर को आरएसएस वाले अपनी प्रयोगशाला कहते रहे हैं। करीब ढाई लाख मतदाताओं की इस शहरी असेंबली में अस्सी हजार के आसपास मुसलमान हैं। इसके अलावा जाटों की संख्या भी अच्छी खासी है। बिलकुल यही स्थिति पड़ोस की दो और सीटों डीडवाना और खींवसर की है। संघ की इन तीनों प्रयोगशालाओं का हाल ये है कि यहां वही जीतता है जिसे एक साथ जाटों और मुसलमानों के वोट मिलते हैं। इसीलिए यहां संघ की पुरानी नीति रही है कि किसी लोकप्रिय मुसलमान चेहरे को पकड़ो और उसे लड़ाओ, फिर चाय में गिरी मक्खी की तरह निकाल कर बाहर फेंक दो। बिलकुल इसी शब्दावली में यहां के एक बड़े प्रचारक अपनी प्रयोगशाला के प्रयोग को समझाते हुए बताते हैं कि कैसे उन्होंने पहले हबीब खान को खड़ा किया और बरबाद कर दिया। उसके बाद यूनुस खान को पाला-पोसा और डीडवाना से टिकट नहीं दिया। इस बार भाजपा ने कांग्रेस के वफादार रहे मिर्धा खानदान की ज्योति मिर्धा को नागौर से टिकट दिया है। मिर्धा जाट हैं। जाट जिधर जाएंगे, मुसलमान भी उधर ही जाएंगे। संघ की दिक्कत यही है- जाटों और मुसलमानों की एकता टूट नहीं पा रही है। पार्टी ने नीति के तहत इस बार किसी भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया है। संघ का कार्यभार है कि वह मुसलमान मतदाताओं को किसी तरह अलग-थलग कर दे। इसके लिए संघ को बहुत उम्मीद थी कि यूनुस इस बार कांग्रेस के टिकट पर नागौर से लड़ जाएं। ‘‘जैसे ही यूनुस नागौर से खड़े होंगे, चुनाव ‘एचएम’ (हिंदू-मुस्लिम) हो जाएगा’’- यह कहते हुए प्रचारक की आंखों में चमक आ जाती है। डीडवाना के लोगों को पूरा भरोसा था कि 1998 से भाजपा की सेवा कर रहे यूनुस कांग्रेस में नहीं जाएंगे। यही हुआ भी। यूनुस ने डीडवाना से ही निर्दलीय परचा भर दिया है और नागौर में ‘एचएम’ की गुंजाइश खत्म हो गई है। आखिरी समय तक रोक कर रखी गई नागौर और खींवसर सीटों पर कांग्रेस ने मिर्धा खानदान के ही दो चेहरों हरेंद्र मिर्धा और तेजपाल को उतारकर खेल कर दिया है। डेगाना से भी मिर्धा परिवार के ही विजयपाल मिर्धा कांग्रेस प्रत्याशी हैं। इस तरह, इमरजेंसी के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस की इज्जत बचाने वाली नाथूलाल मिर्धा की नागौर सीट को कांग्रेस ने पर्याप्त सम्मान दे दिया। अब भाजपा हो या कांग्रेस, लड़ाई खानदानी है। एक खानदान की आपसी लड़ाई में भला संघ परिवार का क्या काम?

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