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सीआरपीएफ के ये दुश्मन नक्सलियों से भी खतरनाक

नक्सल प्रभावित इलाकों में ज्यादातर जवानों की मौत सांप काटने, बाढ़ संकट से निपटने तथा बाढ़ संबंधी आपदाओं एवं रोगों के कारण होती है। गृह मंत्रालय इस बात को लेकर चिंतित है कि हाल के दिनों में नक्सली हमलों के बगैर सीआरपीएफ के जवान शहीद हो रहे हैं।
सीआरपीएफ के ये दुश्मन नक्सलियों से भी खतरनाक

आम तौर पर माना जाता है कि बिहार, झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे नक्सली इलाकों में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के जवानों की जान खतरे में ही रहती है। लेकिन सच्चाई यह है कि इन नक्सल प्रभावित इलाकों में ज्यादातर जवानों की मौत सांप काटने, बाढ़ संकट से निपटने तथा बाढ़ संबंधी आपदाओं एवं रोगों के कारण होती है। गृह मंत्रालय इस बात को लेकर चिंतित है कि हाल के दिनों में नक्सली हमलों के बगैर सीआरपीएफ के जवान शहीद हो रहे हैं। इन जवानों का सबसे बड़ा दु‌श्मन नक्सली नहीं बल्कि जंगली मच्छर हैं। घने जंगलों में मच्छरों के काटने के बाद नक्सलियों का उचित इलाज नहीं हो पाता है और वे बेमौत मारे जाते हैं। हालिया सरकारी आंकड़े बताते हैं कि देश के 106 नक्सल प्रभावित जिलों में माओवादी हमलों से जितने जवान शहीद हुए हैं, उनसे कहीं ज्यादा जवानों की मौत मलेरिया और हृदयाघात से हुई है। 

टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मु‌ताबिक, इन क्षेत्रों में खतरनाक अभियान में लगे जवान अपनी जिंदगी को मच्छरों के हवाले कर रहे हैं। उनके लिए चिकित्सा सुविधाओं को प्राथमिकता पर होना चाहिए लेकिन अब ये सुविधाएं इतनी पुरानी पड़ चुकी हैं कि इनका कोई फायदा ही नहीं होता। जिन इलाकों में कोई योग्य डॉक्टर नहीं हैं, वहां प्राथमिक चिकित्सा में अधकचरे प्रशिक्षित जवानों की संख्या आपात स्थिति में दोगुनी कर दी जाती है। जरूरत पड़ने पर खून की जांच और एक्सरे की सुविधाएं तथा नियमित दवाइयां भी उन इलाकों में उपलब्‍ध्‍ा नहीं रहती हैं।

छत्तीसगढ़ के सुकमा में हाल ही में सेवा दे चुके सीआरपीएफ के एक अधिकारी कहते हैं, ‘जंगलों के शिविरों में प्राथमिक चिकित्सा से प्रशिक्षित और मलेरिया के निदान किट से लैस बहुत कम जवान होते हैं। कई बार वे फाल्सिपेरम मलेरिया के डंक को सही तरह से पहचानने में विफल रहते हैं क्योंकि इस मच्छर के काटने से पीड़ित को तेज बुखार नहीं चढ़ता। समय के साथ जवान गंभीर रूप से ‌बीमार होने लगते हैं और उन्हें शिविर से कहीं और ले जाने में दो दिन से अधिक लग जाते हैं जो उनकी मृत्यु का कारण बनता है।’

उचित समय पर चिकित्सा सहायता नहीं मिलने का मतलब है कि आसानी से इलाज मिल जाने के बावजूद यह रोग जानलेवा साबित हो जाता है। आंशिक हृदयाघात की स्थिति में भी जवानों की मौत हो जाती है। जवान घने जंगलों में अज्ञात स्‍थानों पर नक्सलियों से गुरिल्ला युद्ध लड़ते हुए तनावग्रस्त हो जाते हैं और इसलिए उनके दिल की हालत नाजुक हो जाती है। कई बार तो उन्हें इस तनाव से जूझना पड़ता है कि वांछित जवानों की तुलना में वहां मौजूद जवानों की तादाद कम रहती है।

कुछ नक्सल प्रभावित इलाकों में जवानों के लिए शौच सुविधा का भी प्रबंध नहीं रहता है और उन्हें अपनी जान पर खेलकर दूर के जंगलों में जाना पड़ता है। ऐसे कई मामले सामने आए हैं कि कुछ जवान इसी दौरान नक्सलियों का ‌ि‌शकार हुए हैं। सीआरपीएफ के एक अधिकारी का कहना है कि बड़े इलाकों में कम जवानों को गश्त करनी पड़ती है और उन पर इतना दबाव रहता है कि वे छोटी-मोटी वजहों से अस्वस्‍थता या विश्राम अवकाश भी नहीं ले सकते। लिहाजा हल्का बुखार या बदन दर्द होने पर उन्हें छुट्टी नहीं मिलती जो मलेरिया के लक्षण भी हो सकते हैं। 

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