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आखिर कब तक करेंगे बहिष्कार ?

जनादेश प्राप्त किसी मंत्री या निर्वाचित प्रतिसनिाधिे को खारिज कर उनके कार्यक्रम और समारोह का बहिष्कार किया जाना चाहिए क्योंकि वे दूसरी विचारधारा से है
आखिर कब तक करेंगे बहिष्कार ?

आज से करीब तीस साल पहले जब देश के लेखकों ने जनसत्ता में सती प्रसंग में छपे एक संपादकीय के विरोध में कई लेखको ने हस्ताक्षर अभियान चलाकर उस अखबार का बहिष्कार किया था तो हिंदी के प्रख्यात कवि रघुवीर सहाय ने उस पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया था। उनके शिष्य असद जैदी ने आहत होकर सहाय जी पर एक व्यंग्य कविता भी लिखी थी। बिहार में बथानी टोला नरसंहार के समय भी मशहूर लेखक राजेंद्र यादव से जनसंस्कृति मंच के लोगों ने लालू यादव के हाथों आचार्य शिवपूजन सहाय पुरस्कार न लेने की अपील की थी लेकिन यादव जी ने वह पुरस्कार लिया था। इसी तरह धर्मवीर भारती और निर्मल वर्मा ने भी केडिया सम्मान लिया था जबकि उनसे पुरस्कार न लेने की अपील की गई थी। कुछ दिन पहले रायपुर महोत्सव के दौरान भी लेखकों से इस समारोह में भाग न लेने की कुछ लेखकों ने निजी तौर पर अपील की थी। पर नरेश सक्सेना, विनोद कुमार शुक्ल और अशोक वाजपेयी ने उसमे भाग लिया। इसी तरह छिनाल प्रकरण में विभूति नारायण राय और रविन्द्र कालिया का भी कई लेखकों ने बहिष्कार किया। देखा ये जा रहा है कि हिंदी की दुनिया इस तरह की घटनाओं पर वितंडा खड़ा करती है। अभी रायपुर प्रसंग की आग ठंडी नहीं हुई थी कि कुछ लोगों ने बनारस में साहित्य अकादमी के कार्यक्रम में लेखकों के रचना पाठ को लेकर विवाद खड़ा कर दिया। लेखकों की आपत्ति थी कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संस्कृति कार्यक्रम का उद्घाटन किया इसलिए लेखकों को उसमे भाग नहीं लेना चाहिए जबकी साहित्य अकादमी का कार्यक्रम मोदी के दिल्ली लौट जाने के बाद हुआ और दूसरे सभागार में हुआ जहां भाजपा नेताओं की दूर-दूर तक छाया नहीं थी। साहित्य अकादमी ने अपने कार्ड में मोदी का कहीं नाम भी नहीं लिखा था और न लेखकों को अपने पत्र में  इसकी सूचना दी थी कि मोदी संस्कृति समारोह का उद्घाटन करेंगे। साहित्य अकादमी एक स्वायत्त संस्था है तो क्या मोदी के कार्यकाल में हर किसी स्वायत्त संस्थाओं के समारोह का बहिष्कार किया जाए? क्या बहिष्कार ही लड़ाई का एक मात्र रास्ता है? क्या लेखक सत्ता विरोधी रचना लिख कर या उसका पाठ कर अपना विरोध जाहिर नहीं करता है। बनारस के समारोह में ज्ञानेंद्रपति और हरिश्चंद्र पांडे के साथ इन पंक्तियों के लेखक ने भी मोदी के विरोध में रचना पाठ किया था। लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण सवाल यह है कि जब मोदी को जनादेश प्राप्त है और वह निर्वाचित प्रधानमंत्री हैं तो क्या उनके हर किसी कार्यक्रम और समारोह का बहिष्कार किया जाना चाहिए। प्रधानमंत्री होने के नाते वह नेहरु जी की 125 वीं जयंती समारोह समिति के भी अध्यक्ष हैं तो क्या नेहरू जी की स्मृति में या गांधी जी या भगत सिंह की याद में होने वाले उन समारोहों का भी बहिष्कार किया जाए जिसका उद्घाटन भाजपा नेताओं ने किया हो? क्या लेखक का काम केवल बहिष्कार करना है या प्र‌तिरोध में साहित्य लिखना भी है। अगर लेखक वाकई अन्याय दमन का विरोधी है तो वह क्या मनमोहन सिंह, अर्जुन सिंह, लालू यादव, अखिलेश यादव, मायावती या ममता बैनर्जी की गलत नीतियों का विरोध नहीं करेगा, क्या सिंगुर विवाद में किसानो का साथ नहीं देगा, किसानों की आत्महत्या के विरोध में आवाज नहीं उठाएगा भले ही यह किसी के कार्यकाल में हुआ हो। क्या वो हिंदू कट्टरता के साथ साथ मुस्लिम कट्टरता का विरोध नहीं करेगा? प्रेमचंद ने तो  इन दोनों सवालों पर कहानियां लिखी थी। दरअसल हिंदी की दुनिया में लेखक संगठनों ने मिलजुल कर कोई स्पष्ट नीति नहीं बनाई हैं। हिंदी के लेखकों ने भी आपस में मिलकर बैठकर इस पर विचार नहीं किया है। किसी घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर भी नहीं किए हैं। लेकिन जब किसी लेखक ने किसी ऐसे कागज पर हस्ताक्षर नहीं किया है तो उसकी आजादी क्यों छीनी जाए? क्या लेखक का मूल्यांकन केवल उसकी गतिविधियों पर ही होगा या उसकी रचना के आधार पर होगा। उदयप्रकाश ने आदित्यनाथ के हाथों पुरस्कार लिया तो क्या उनकी कहानियां अछूत हो गई? क्या मंगलेश डबराल ने गोविंदाचार्य के साथ मंच शयेर किया तो उनकी कविताएं कमजोर हो गईं? क्या नामवर सिंह ने मुरली मनोहर जोशी के साथ मंच शयेर किया तो उनका योगदान कम हो गया? लेखक को अपने जीवन में आचरण में ईमानदारी का पालन करना चाहिए लेकिन अगर वह कहीं चूक करता है तो उसे अछूत नहीं मान लेना चाहिए। लेखक का काम लिखना है इसलिए पहले उसे अपना बुनयादी धर्म निभाना चाहिए। लेकिन देखा यह जा रहा कि कुछ लेखक प्रतिरोध का साहित्य लिखते नहीं पर फतवा अधिक जारी करते हैं। वे व्यक्तिगत हमले करते हैं और चरित्रहनन में लग जाते हैं। एक-दूसरे पर कीचड़ भी उछालते हैं। हिंदी के लेखकों को समझना चाहिए कि सांप्रदायिकता, बाजारवाद फासीवाद, राज्य के दमन, वंचितों पर हमला, स्त्री उत्पीड़न, बेरोजगारी, भूखमरी, कारपोरेट वर्चस्व की गंभीर समस्याएं हैं। ऐसे में अगर कोई अपनी बात दूर तक फैलाना चाहता है तो उसे अधिक से अधिक मंचों पर अपनी बात कहनी चाहिए। लेकिन अगर कोई लेखक इतना शुद्धतावादी है तो वह उन मंचों का इस्तेमाल न करे पर मूल चुनौती है कि अपने दुश्मनों को किस तरह लोकतंत्र में पराजित किया जाए। मोदी या भाजपा नेता अगर चुनाव में इसी तरह जीतते रहे तो केवल बहिष्कार मात्र से लड़ाई नहीं जीती जा सकती। लेखकों को अपनी लड़ाई के और भी तरीके ईजाद करने होंगे।

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