शिवरात्रि पर टेपा सम्मेलनों के आयोजक महा आचार्य शिव शर्मा जी ने शिव की नगरी उज्जयिनी से क्षिप्रा का जल एक कमंडल में भेज दिया। परम शिष्य के नाते एक साथ कमंडल में भरा द्रव पी लिया। कमंडल लाने वाला युवा शिष्य सुदामा घबरा गया। अरे, आपने क्या किया? बिना सोचे-समझे पी गए। इसमें तो तांबे पर घिसा गया शिवजी का महाप्रसाद आधा किलो शुद्ध भांग मिलाई गई थी। इसका असर होने से पहले ताम्रपत्र पर लिखा आचार्यजी का संदेश पढ़ लें। लिखा है, 'चेले, कालिदास की नगरी का नाम खराब न करो। सांदीपनी आश्रम में दी गई दीक्षा का ध्यान रखो। टी.वी. चैनलों के घनचक्करों को छोड़ो। भारत की असली प्राचीन संस्कृति के अनुरूप हिमालय सम्राट के दरबार से सीधे प्रसारण का हिस्सा बनो और नारद की तरह देश-दुनिया को आंखों देखा हाल बताओ।’
पत्र की पंक्तियां खत्म होने तक कमंडल के महाप्रसाद से आंखें बंद होने लगीं और महान राष्ट्र के परम दर्शन होने लगे। शानदार स्वर्ण निर्मित सिंहासन, मुकुट पर लंदन से वापस लाया गया कोहिनूर हीरा। लेकिन प्राचीन संस्कृति के अनुरूप शेर और मृग की खाल लपेटे राष्ट्र प्रमुख एवं उनके मंत्री-सहयोगी। त्रिशूल, तलवार, तीर-कमान, छुरी और मोटी लाठियां। राहत मिली। बंदूक-पिस्तौल-स्टेनगन देखकर हमेशा डर लगता है, पता नहीं गलती से चल जाए तो चंपू पत्रकार भी मारा जाए। प्राचीन परंपरा वाले अस्त्र बाकायदा निशाना तय कर चलाए जाते हैं। आधा काम त्रिशूल-तलवार गले के पास ले जाने मात्र से हो जाता है। हर लिखने-पढऩे वाले की समझ में आ जाता है कि शांंतिप्रिय सहिष्णु राज-काज में कैसे बोलना-लिखना है।
ध्यान आया - दरबार से चांदनी चौक की गलियों या दक्षिण दिल्ली के आलीशान बंगलों में मृग-शेर-सियार की खाल से शरीर ढंके रहने लगे हैं तो वन पशु संरक्षण कानून का क्या हुआ? कानों में अज्ञात स्वर गूंजा, 'मूर्ख प्राचीन भारत की परंपरा में ऐसा कोई कानून नहीं था। स्वर्ण मृग भी शिकार योग्य माना जाता है। इस राज में एक ही धर्म होता है। जीने दो-मरने दो। शरीर नश्वर है। कोई मोह-माया नहीं। कोई नियम-कानून नहीं। पूरे साल प्रदूषित वाहनों पर प्रतिबंध कोई ऑड-ईवन का सिरदर्द नहीं। हैसियत के अनुसार - रथनुमा बग्घी, तांगे, बैलगाड़ियां। जो जहां रहना चाहे पेड़-पत्तोंं, ईंट-पत्थर, लोहे से झोपड़ी-मकान बनाकर रह सकता है। कंद-मूल फल खाने की पूरी छूट है। जो शिकार करना जानता हो- चीन की तरह किसी भी पशु को पाल-पोस या मारकर पेट भर सकता है। हम तो चीन से पहले बलि प्रथा अपनाते रहे हैं। सर्दी, गर्मी, वर्षा का अधिक असर नहीं। सुबह दूध-ठंडाई के साथ भांग की गोली। दोपहर भोजन के बाद विश्राम के समय चिलम के चार दम और सूर्यास्त के साथ आसव-सुरा की सुुराही सामने हो। अंगूर, सेब, ताड़ सहित पचीसों फल-फूल से तैयार आसव का नशा दुनिया की नामी शराब से कई गुना बेहतर। महल हो या छोटी हवेली, जन विश्व के सबसे बड़े ज्ञाता-हुरियारों के पालक शासक 16 हजार रानियां रख सकते थे तो उनके अनुयायी 16 रखें या 1600, भारतीय परंपरा-संस्कृति के रक्षक नारी संरक्षण के आदर्श का पालन क्यों नहीं कर सकते हैं? बच्चे तो भगवान की देन होते हैं। होने दो, धर्म यही कहता है। जो मुंह देता है, वह दाना भी देगा। बालकों की शिक्षा के लिए हजारों गुरुकुल और शाखाएं हैं।
शिष्य संस्कृत में शिक्षा ग्रहण करते हैं। अरे, तुम्हारे हिंदी वाले वात्स्यायन तो वैदिक परंपरा में बहुत पीछे रहे। संस्कृत के वात्स्यायन ने कामसूत्र जैसा महान ग्रंथ लिखा। किसी वीडियो, फेसबुक की जरूरत नहीं। कामसूत्र में बच्चों से बूढ़ों तक को सही शिक्षा। काव्य रस लेना हो तो कालिदास के ऋतु संहार से प्रकृति और यौवन के आनंद के विवरण से प्रसन्न हो जाएं। यही नहीं, कुछ पुराण और जातक कथाओं को पढ़ा दो तो अंग्रेज या अमेरिकी प्रोफेसर भी चित हो जाएं। गुरुकुल में शिष्य-शिष्याएं गुरुजी की सेवा करें, फल और पुण्य मिलेगा। जीवन भर सुखी रहेंगे। न होंगे कल-कारखाने तो न होगा कोई प्रदूषण और न श्रम कानून। अखंड भारत में स्वस्थ, स्वछंद विचरण की सुविधा होगी तो कौन-किस पर हमला कर आतंक फैलाएगा? न सीमा का बंधन, न प्यार पर बंधन। मनोरंजन के लिए सबको-कहीं भी ढोलक-बांसुरी, शहनाई, तानपूरा, हारमोनियम बजाने-गाने, नाचने, अभिनय की छूट। सो, हिमालय की गोद में सदा मस्त रहो। हर दिन मनाओ दीवाली, होली। जय अखंड भारत।