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“बुनियादी अधिकारों की रक्षा से अलग है सुप्रीम कोर्ट”

आज ऐसी आलोचनाएं तीखी होती जा रही हैं कि अदालतें, खासकर सुप्रीम कोर्ट देश में लोगों के मौलिक अधिकारों और...
“बुनियादी अधिकारों की रक्षा से अलग है सुप्रीम कोर्ट”

आज ऐसी आलोचनाएं तीखी होती जा रही हैं कि अदालतें, खासकर सुप्रीम कोर्ट देश में लोगों के मौलिक अधिकारों और लोकतंत्र तथा संविधान की आत्मा की रक्षा के सबसे बड़े दायित्व से कुछ हद तक अलग हो गया है। खासकर, मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में यह एहसास कई हलकों में तीखा हुआ है। ऐसे आरोप हैं कि चाहे कश्मीर में लोगों के बुनियादी हक का मामला हो, या नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएए), जामिया, जेएनयू, या मौजूदा दौर में प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा, हर मामले में सुप्रीम कोर्ट सरकार से सवाल पूछने और उसे बुनियादी अधिकारों की रक्षा करने की हिदायत देने से बचता रहा है। इसलिए, इस गंभीर विषय और सरकार के मौजूदा रुख पर सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण से हरिमोहन मिश्र ने विस्तृत बातचीत की। प्रमुख अंश:

कोविड लॉकडाउन की परेशानी के दौर में, खासकर गरीब और प्रवासी मजदूरों की तकलीफों के मामले में सरकारी तौर-तरीकों पर जब मद्रास, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात हाइकोर्ट सरकार और अधिकारियों से सवाल कर रहे हैं, ऐसे में सुप्रीम कोर्ट या तो इन सवालों पर मौन है या सरकार की जगह दूसरों पर सवाल उठा रहा है। तो, क्या न्यायपालिका भी बंट-सी गई है?

नहीं, बंट नहीं गई है। असल में सुप्रीम कोर्ट में जाने या मोटे तौर पर जज बनने का भी तरीका एक ही है, लेकिन जैसे जज ऊपर जाते हैं, काफी छंटते जाते हैं। सरकारें अपने हिसाब के लोगों को ही नियुक्त करना चाहती हैं, उन्हें ही ऊपर ले जाती हैं। खासकर, मौजूदा सरकार तो पिछले छह साल से यही कर रही है कि जो लोग स्वतंत्र विचार या थोड़े मजबूत शख्सियत के हैं, उनकी नियुक्ति सुप्रीम कोर्ट या हाइकोर्टों में भी नहीं होने दे रही है। हाइकोर्ट तो बहुत सारे हैं, उनमें फिर भी कुछ स्वतंत्र विचार वाले और मजबूत शख्सियत के जज आ जाते हैं। कई सुप्रीम कोर्ट में भी हैं लेकिन सुप्रीम कोर्ट में उनकी काफी कमी दिख रही है। दूसरी बात यह है कि जब आप प्रधान न्यायाधीश को किसी तरह प्रभावित कर लेते हैं तो हर मामले को ऐसी बेंच में लगवा सकते हैं, जिसमें कमजोर जज हैं या सरकार के अनुकूल जज हैं। तो, इसलिए यह हो रहा है।

इसे थोड़ा विस्तार से बताएं।

यूं तो प्रधान न्यायाधीश वरिष्ठता के आधार पर ही नियुक्त होते हैं, लेकिन हम सबने यह देखा है कि  पिछले छह साल से मौजूदा सरकार किसी न किसी तरीके से, चाहे जांच और खुफिया एजेंसियों को लगाकर या किसी और तरीके से उन्हें प्रभावित करने का तरीका निकाल ले रही है। उनके खिलाफ आरोपों को इस्तेमाल किया जाता है। पिछले तीन प्रधान न्यायाधीशों के मामले ही देख लीजिए। (तत्कालीन) प्रधान न्यायाधीश के.एस. खेहर के खिलाफ खलिको पुल मामला (अरुणाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री के सुसाइड नोट में रिश्वत मांगने के आरोप) हो, या प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ भी खलिको पुल के अलावा मेडिकल कॉलेज रिश्वत मामले में रिश्वत का आरोप, और फिर प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई के खिलाफ यौन उत्पीड़न का मामला, इन सभी मामलों में सरकार ने जांच नहीं की और प्रधान न्यायाधीशों पर अपना प्रभाव जमाए रही। मौजूदा प्रधान न्यायाधीश एस.ए.बोबडे के बारे में मुझे नहीं पता है।

यानी राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) संशोधन सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक करार दिया, तो न्यायपालिका पर दबदबा बनाने के सरकार ने क्या ये तरीके निकाल लिए?

हां, अगर प्रधान न्यायाधीश आपके अनुकूल हों तो सभी महत्वपूर्ण मामले अपने पक्ष के जजों की बेंच में लगवा सकते हैं। यही मामला तो चार जजों की प्रसिद्ध प्रेस कॉन्फ्रेंस (17 जनवरी 2017 को आजाद भारत के इतिहास में पहली बार सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम जजों ने प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा पर आरोप लगाए) में उठा था।

इधर, विडंबना यह है कि लंबे लॉकडाउन की वजह से भूखे-प्यासे सड़कों पर पैदल सैकड़ों-हजारों किलोमीटर यात्रा करने को मजबूर हुए गरीब लोगों की तकलीफों पर हाइकोर्ट जब राज्य सरकारों से सवाल कर रहे हैं, तो सुप्रीम कोर्ट की आड़ ली जा रही है। जैसे कर्नाटक हाइकोर्ट में सरकार की कमोवेश ऐसी ही दलील थी.. ..

हां, इसके अलावा एक बात और हो रही है। सुप्रीम कोर्ट में प्रवासी मजदूरों के मामले में पहली याचिका एक ऐसे व्यक्ति ने दायर की, जो सरकार का हिमायती लगता है। उसका फेसबुक पेज देखें तो पता चलता है कि वह प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ करता है और विपक्ष को जलील करता है। तो, इस तरह से भी यह किया जा रहा है।

यानी अपनी ओर से ही पहले अदालत में पहुंच जाएं.. .. ..

कोशिश यह रहती है कि पहले ही ऐसे आदेश हासिल कर लिए जाएं, ताकि सुप्रीम कोर्ट में एक बार खारिज हो जाए या दूसरा मामला या दूसरी दलील न उठे। किसी ने पहले ही यह आदेश हासिल कर लिया था ना, कि सरकार के सभी दिशा-निर्देश प्रकाशित किए जाएं और उसके खिलाफ कोई कुछ बोलता है तो वह एनडीएमसी एक्ट के तहत गंभीर अपराध हो जाएगा। यानी प्रवासी मजदूरों की याचिका में  उन्हीं के खिलाफ आदेश करवा दिया। सरकार को यह सब अपने हक में लगता है। यह सब चल रहा है।

जैसे, जूम के इस्तेमाल पर रोक लगाने की भी कोई याचिका आ गई है, जिसकी मनाही सरकार ने शुरू में की थी.. ..

हो सकता है.. ..

क्या ऐसा लगता है कि सुप्रीम कोर्ट लोगों के बुनियादी अधिकारों की रक्षा के अपने दायित्व से अलग रुख अपना रहा है?

हां, करीब-करीब अलग हो गया है।

सुप्रीम कोर्ट की प्राथमिकताओं पर भी सवाल उठने लगे हैं कि उसे प्रवासी मजदूरों के बुनियादी अधिकारों के बदले अर्णब गोस्वामी का मामला ज्यादा अहम लगता है।

हां, इसके अलावा दूसरी बात यह है कि अब सामान्य कामकाज क्यों न शुरू हो। सुप्रीम कोर्ट या हाइकोर्ट में भी कोर्ट रूम तो काफी बड़े-बड़े हैं। वहां सोशल डिस्टेंशिंग की व्यवस्था तो की जा सकती है। आप कह सकते हैं कि जिसके मामले की सुनवाई है, वहीं अंदर आए और एक पक्ष से ज्यादा से ज्यादा दो वकील आएं, एक सीनियर, एक जूनियर। तो, सामान्य कामकाज क्यों नहीं बहाल किया जा रहा है।

लॉकडाउन के दौरान कई और तरह की सख्त सरकारी कार्रवाइयां हो रही हैं। मसलन, सीएए-एनआरसी विरोधी प्रदर्शनों में हिस्सा लेने वाले लोगों के खिलाफ यूएपीए जैसे कड़े कानून की धाराएं लगाकर गिरफ्तार किया जा रहा है, खासकर दिल्ली दंगों का हवाला देकर। इसे आप कैसे देखते हैं?

सरकार ने तो लॉकडाउन का पूरा-पूरा फायदा उठाया है। जो लोग सीएए के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे थे, उन्हें परेशान करने के लिए। महीनों शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन चल रहा था, लेकिन कपिल मिश्रा ने आकर बयान दिया तो हिंसा शुरू हुई। कपिल मिश्रा पर तो कुछ नहीं हुआ जबकि (दिल्ली) हाइकोर्ट ने भी कहा था और यह भी माना था कि शांतिपूर्ण प्रदर्शन चल रहा था। इसके विपरीत देखिए कि जिस पुलिस ने जामिया इस्लामिया में घुसकर छात्रों को पीटा, लाइब्रेरी में तोड़फोड़ की, जिस पुलिस की निगरानी में जेएनयू में गुंडों ने घुसकर उत्पात मचाया, वही पुलिस अब शांतिपूर्ण विरोध करने वाले छात्रों को प्रताडि़त कर रही है। यहां यूएपीए का बिलकुल गलत इस्तेमाल हो रहा है।

मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में तो ऐसी आलोचना उभरी है कि सुप्रीम कोर्ट ने सरकार पर सवाल उठाना ही छोड़ दिया है। आप क्या मानते हैं? कौन-कौन-से ऐसे बड़े मामले हो सकते हैं?

सारे ही हैं, कश्मीर का मामला देख लीजिए, सीएए-एनआरसी, जेएनयू, जामिया, प्रवासी मजदूरों के, सभी मामलों में यह दिख रहा है।

क्या आपको ये हालात बदलने की कोई उम्मीद दिख रही है?

अभी तो ऐसी कोई उम्मीद नहीं दिख रही है क्योंकि जैसा दबाव बना हुआ है, उसमें फिलहाल कोई उम्मीद नहीं दिखती।

विडंबना यह है कि सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी हर तरह की आलोचना बंद करने पर उतर आई है। पत्रकारों तक पर मुकदमे डाले जा रहे हैं। एक बड़े विपक्षी नेता पर पीएम केअर फंड पर सवाल उठाने के लिए एफआइआर दर्ज हो गई है। ऐसे में अदालतों का मौन रहना क्या लोकतंत्र के लिए घातक नहीं है?

बिलकुल, सरकार सुप्रीम कोर्ट के सवाल न करने की स्थिति का पूरा-पूरा फायदा उठा रही है। हालात पूरी तरह फासीवाद जैसे हो गए हैं। जो हालात नाजी जर्मनी में थे, वही हो गए हैं या होते जा रहे हैं। अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों के खिलाफ तो वही सब हो रहा है, जो यहूदियों के खिलाफ तब जर्मनी में हुआ था।

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