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इंटरव्यू - यामी गौतम : ‘मुझे भीड़ का हिस्सा नहीं बनना’

फिल्म गदर 2 के तूफान में ओएमजी 2 मजबूती से खड़ी है। ओएमजी 2 में सशक्त भूमिका निभाने वाली अभिनेत्री यामी...
इंटरव्यू - यामी गौतम : ‘मुझे भीड़ का हिस्सा नहीं बनना’

फिल्म गदर 2 के तूफान में ओएमजी 2 मजबूती से खड़ी है। ओएमजी 2 में सशक्त भूमिका निभाने वाली अभिनेत्री यामी गौतम फिल्म के प्रदर्शन से संतुष्ट और प्रसन्न हैं। यामी गौतम हिंदी सिनेमा की उन चुनिंदा अभिनेत्रियों में हैं, जो विविध भूमिकाओं के लिए जानी जाती हैं। उन्होंने बीते दस वर्षों में अलग और नए विषयों की फिल्मों में अभिनय प्रतिभा का प्रदर्शन किया है। विकी डोनर, बाला, उरी द सर्जिकल स्ट्राइक, काबिल जैसी कामयाब फिल्मों के बाद भी यामी गौतम सरल, सहज और जमीन से जुड़ी हुई हैं। उनसे फिल्म ओएमजी 2 के विषय में आउटलुक से मनीष पाण्डेय ने बातचीत की। मुख्य अंश:

 

ओएमजी 2 से जुड़ने की कोई खास वजह?

 

आजकल हिंदी सिनेमा में प्रोजेक्ट अधिक बनते हैं और फिल्में कम। मेरे पास ओएमजी 2 के निर्देशक अमित राय का कॉल आया तो मुझे लगा कि वह ईमानदारी से फिल्म बना रहे हैं। उनका कहना था कि एक वह जरूरी मुद्दे पर फिल्म बनाना चाहते हैं और वह भी बिना किसी समझौते, कंट्रोवर्सी के। अमित ने मुझे बताया कि वे नहीं चाहते हैं फिल्म की कहानी को कंट्रोवर्सी या सेंसेशन में फंसा कर सस्ती लोकप्रियता हासिल की जाए। उन्होंने पहले दिन से कहा कि हम सच्ची कहानी कहेंगे और अपनी शर्तों पर कहेंगे। इस ईमानदारी ने मुझे प्रेरित किया कि मैं ओएमजी 2 का हिस्सा बनूं।

 

आपने पहले भी वकील का किरदार निभाया है। ओएमजी 2 में निभाए गए वकील के किरदार के लिए आपने क्या तैयारियां की?

 

कई बार कलाकार अपने पुराने काम से प्रेरणा लेते हैं, लेकिन मैं अपनी फिल्म की शूटिंग खत्म होने के बाद पुराने किरदार से बाहर निकल जाती हूं। मैंने ओएमजी 2 के निर्देशक अमित राय से कहा था कि वे आश्वस्त करें कि मेरे अभिनय में पुराने काम की छाप न नजर आए। ओएमजी 2 में अपने किरदार के लिए मैंने जीरो से शुरुआत की। मैंने किरदार की भाषा, चाल ढाल, पृष्ठभूमि पर काम किया। मैंने बार-बार स्क्रिप्ट पढ़ी। जब आप स्क्रिप्ट को समझते हैं, तो आप किरदार का चरित्र पकड़ लेते हैं। फिर किरदार निभाने में आसानी होती है और श्रेष्ठ प्रदर्शन कर पाते हैं।

 

ओएमजी 2 को जिस तरह का प्यार मिल रहा है, वह बताता है कि फिल्म सही समय पर सही मुद्दे को उठाने में सफल हुई है। सेक्स एजुकेशन पर आपकी क्या राय है ?

 

मेरा मानना है कि आप किसी मुद्दे को दबाने का प्रयास करते हैं तो वह भ्रम, अज्ञानता पैदा करता है और इससे समाज को हमेशा ही हानि होती है। समाज जितना खुला होगा और बातचीत के लिए तैयार होगा, समाज में अफवाह फैलने की संभावना उतनी कम हो जाती है। आज सभी के हाथ में फोन है और देश डिजिटल युग में पहुंच गया है। इसके फायदे भी हैं और नुकसान भी। डिजिटल युग का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि यहां झूठ, भ्रम, अफवाह को रोकने की सही व्यवस्था नहीं है। इसलिए जब कोई युवा यौन संबंधी जानकारियां इंटरनेट पर खोजता है, तो ज्यादातर मामलों में उसे गलत या आधी-अधूरी जानकारी मिलती है। इससे उसका जीवन दांव पर लग जाता है। नियोजित तरीके से स्कूलों में यौन शिक्षा दी जाएगी तो देश का युवा गलत राह पर जाने से बच जाएगा। हमारे आसपास जो भी यौन अपराध हो रहे हैं, उसका मुख्य कारण यही है कि हमने यौन शिक्षा पर हमेशा ही चुप्पी साधी है। आप दुनियाभर में देख लीजिए, जहां भी यौन शिक्षा पर चर्चा होती है, सही जानकारी दी जाती है, वहां सेक्स हव्वा नहीं दिखता। इसलिए यह जरूरी है कि सेक्स एजुकेशन के महत्व को समझें।

 

निर्देशकों की यह शिकायत रहती है कि दर्शक अच्छी कहानियों को ओटीटी और टीवी पर तो देखते हैं लेकिन सिनेमाघर में कमर्शियल और मसाला फिल्में ही देखने जाते हैं। ओएमजी 2 की कामयाबी के लिए आप किसे जिम्मेदार मानती हैं ?

 

हिंदी सिनेमा की सबसे बड़ी खूबसूरती यही है कि यहां रोज ही समीकरण बदलते रहते हैं। यहां कोई भी आज तक गारंटी नहीं दे पाया कि कामयाबी का यही एक फॉर्मूला है। सभी लोग अपनी समझ के अनुसार बातें कहते हैं। कई बार बात सही साबित होती है और कई बार सब दावे गलत साबित हो जाते हैं। यह आज से नहीं, हिंदी सिनेमा की शुरुआत से है कि कमर्शियल फिल्मों के लिए दर्शक सिनेमाघरों में उमड़ते हैं। लेकिन यह भी सही है कि जब जब हिंदी सिनेमा में ईमानदारी से समाज के किसी जरूरी मुद्दे को पर्दे पर प्रदर्शित किया गया है तो उसे दर्शकों का प्यार जरूर मिला है। ओएमजी 2 की सफलता के पीछे एक ही वजह है और वह है साफ नीयत। ओएमजी 2 का मुख्य उद्देश्य है कि देश में सेक्स एजुकेशन पर चर्चा हो। फिल्म पूरी ईमानदारी से प्रयास करती है। जब ऐसी ईमानदारी हो तो असर जरूर होता है।

 

विकी डोनर, बाला से लेकर ओएमजी 2 तक आपने अलग और नए विषयों पर आधारित फिल्में चुनी हैं। इस चुनाव के पीछे क्या सोच रहती है ?

 

मैं हमेशा से ही ऐसा काम करना चाहती थी, जो सबसे अलग हो। मुझे कभी भी भीड़ नहीं बनना था। इसलिए जब मुझे हिंदी सिनेमा में काम करने का अवसर मिला तो मैंने ऐसी ही फिल्म चुनी, जो परिपाटी से अलग थीं। मैंने गौर किया है कि चाहे काम कितना ही अच्छा क्यों न हो, उसमें दोहराव आने लगता है तो वह अपना आकर्षण खो देता है। किसी भी इंडस्ट्री में एक ही ढर्रे पर काम करने वाले लोगों की भीड़ होती है। ये लोग अपनी प्रासंगिकता समय के साथ खो देते हैं। लेकिन जिनके काम में नयापन और विविधता होती है, वे हमेशा प्रासंगिक बने रहते हैं। इसी कारण मैं हमेशा ऐसी फिल्मों की तलाश में रहती हूं, जिसमें मुझे कुछ नया करने को मिले। जिससे समाज और सिनेमा आगे बढ़ता हो। यह मेरा सौभाग्य है कि अपने फिल्मी करियर में मैंने अलग अलग विषयों की फिल्मों में काम किया है और मुझे दर्शकों ने खूब प्यार और सम्मान दिया है। दर्शकों का प्यार और सम्मान ही मेरी असली ताकत है।

 

फिल्मी दुनिया के तनाव को नियंत्रित करने के लिए आध्यात्म किस तरह सहयोग करता है?

 

मां और नानी ने मेरी ऐसी परवरिश की कि आध्यात्म स्वयं जीवन में दाखिल हो गया। आध्यात्म व्यर्थ की चिंता को खत्म करके, वर्तमान में जीने के लिए प्रेरित करता है। मेरा जन्म हिमाचल प्रदेश में हुआ, पढ़ाई चंडीगढ़ में हुई और कर्मभूमि के रूप में मैंने मुंबई को चुना। इस पूरी यात्रा में कई उतार चढ़ाव आए। आध्यात्म ने मुझे यह दृष्टि दी कि व्यक्तित्व के विकास के लिए उतार-चढ़ाव जरूरी हैं। इसलिए इनसे घबराने की जरूरत नहीं है। आप केवल ईमानदारी से अपना काम करें। आपके मन पर किसी प्रकार का बोझ न हो, आपके भीतर असुरक्षा और ग्लानि न हो तो, आप अमीर हैं। इस दृष्टिकोण से जीवन जीने पर हर तरह के तनाव को नियंत्रित किया जा सकता है।

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