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राजनैतिक बंदी/ इंटरव्यू/ प्रोफेसर जी.एन. साईबाबा: “हिंसा में कुछ भी रचनात्मक नहीं होता”

पिछले कुछ वर्षों से कई मानवाधिकार संगठन दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर गोकरकोंडा नागा...
राजनैतिक बंदी/ इंटरव्यू/ प्रोफेसर जी.एन. साईबाबा: “हिंसा में कुछ भी रचनात्मक नहीं होता”

पिछले कुछ वर्षों से कई मानवाधिकार संगठन दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर गोकरकोंडा नागा (जी.एन.) साईबाबा की रिहाई की मांग कर रहे थे

बॉम्बे हाइकोर्ट ने 5 मार्च, 2024 को प्रोफेसर जी.एन.साईबाबा के साथ-साथ हेम मिश्रा, महेश तिर्की, विजय तिर्की, प्रशांत राही और पांडु नरोटे को बरी कर दिया। इनमें साईबाबा सहित पांच को कथित माओवादी संबंधों के लिए आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। पिछले कुछ वर्षों से कई मानवाधिकार संगठन दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर गोकरकोंडा नागा (जी.एन.) साईबाबा की रिहाई की मांग कर रहे थे। साईबाबा को 9 मई 2014 को गिरफ्तार किया गया था। वे आदिवासियों के विस्थापन और बेदखली के मुद्दों पर सक्रिय थे। अप्रैल 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें जमानत दे दी, लेकिन 7 मार्च, 2017 को गढ़चिरौली की एक अदालत ने उन्हें राज-सत्‍ता के खिलाफ युद्ध छेड़ने के आरोप में आजीवन कारावास की सजा सुनाई। फैसले के बाद उन्होंने सात साल जेल में बिताए। इससे पहले, उन्होंने अपने मुकदमे के दौरान मई 2014 से अप्रैल 2016 तक दो साल जेल में बिताए थे। बॉम्बे हाइकोर्ट ने 14 अक्टूबर, 2022 को उन्हें रिहा कर दिया था, लेकिन अगले ही दिन सुप्रीम कोर्ट ने उनकी रिहाई पर रोक लगा दी। इस बार भी राज्‍य सरकार ने उनकी रिहाई के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, मगर अदालत ने याचिका खारिज कर दी। रिहाई के बाद आउटलुक के विक्रम राज ने साईबाबा से बातचीत की। कुछ अंश:

आपको पहली बार गिरफ्तार किया गया तो क्या परिस्थितियां थीं?

2010 और 2013 के बीच दिल्ली और दुनिया भर से हम में से कई लोग एक साथ मूलवासियों, आदिवासियों के अधिकारों पर हमले के खिलाफ आवाज उठा रहे थे। उस समय कंपनियों के साथ बड़ी खनन परियोजनाओं के लिए करार किए गए थे और वन क्षेत्रों में गांवों को खाली कराया जा रहा था और जलाया जा रहा था। खनन के लिए जमीन साफ करने और जमीन तथा जंगलों को कॉर्पोरेट घरानों के हवाले करने के लिए आदिवासियों पर कई हमले हुए।

न्यायमूर्ति राजिंदर सच्चर, प्रोफेसर रणधीर सिंह, सेवानिवृत्त आइएएस अधिकारी डॉ. बीडी शर्मा, दिग्‍गज समाजवादी नेता सुरेंद्र मोहन और दूसरों के साथ हमने फोरम एगेंस्‍ट वार ऑन पीपुल (लोगों पर हमले के खिलाफ फोरम) का गठन किया। मुझे सिविल सोसायटी समूहों और लोकतांत्रिक अधिकार समूहों को एक मंच पर लाने के लिए संयोजक बनाया गया था। हम देश के 8-9 करोड़ आदिवासियों के मुद्दों को उठा रहे थे जिन्हें कॉर्पोरेट घरानों के भारी मुनाफे के लिए निशाना बनाया जा रहा था। हमने आदिवासियों के अधिकारों और जीवन की रक्षा का मामला संयुक्त राष्ट्र की मूलवासियों और मानवाधिकारों की रक्षा संस्‍था में भी उठाया। मई 2014 में मेरा अपहरण कर लिया गया और बाद में इस झूठे और मनगढ़ंत मामले में गिरफ्तार घोषित कर दिया गया, जिसकी वजह मुझे आदिवासी मुद्दों को उठाने की हमारी कोशिश के अलावा और कोई नहीं दिखती। अब 10 साल बाद हम देखते हैं कि मेरी गिरफ्तारी के बाद वे सभी कोशिश खत्म हो गईं।

कानूनी लड़ाई ने आपके जीवन पर क्‍या असर डाला है?

मुझे बहुत कम उम्र से ही पठन-पाठन का शौक रहा है। जेल के दौरान पढ़ा न सकने का विचार मेरे लिए काफी तकलीफदेह था। कक्षा, छात्रों और परिसरों से दूर रहना बेहद कठिन था। मेरी गिरफ्तारी गैर-कानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) के तहत की गई। मतलब यह कि सीधे-सीधे एक शिक्षक को आतंकवादी करार दिया गया। इस तरह मुझे और मेरे परिवार को कलंकित किया गया। हमें अपने पेशे और पारिवारिक तौर पर भारी दमन, कलंक और भावनात्मक उत्पीड़न का सामना करना पड़ा। जेल में मुझे काफी यातना और मानसिक उत्‍पीड़न झेलना पड़ा। मेरे शरीर पर कई तरह से असर पड़ा और विकलांग होने के कारण मेरी हालत और भी खराब हो गई।

आरोपों में आपकी राजनैतिक विचारधारा की क्या भूमिका थी?

मुझे नहीं पता कि मुझे झूठे मामले में फंसाने के लिए किस राजनैतिक विचारधारा का सहारा लिया गया। राजनैतिक विचारधारा किसी भी कानूनी आपराधिक मामले का आधार नहीं हो सकती। संविधान के तहत लोकतंत्र में लोग किसी भी तरह की विचारधारा में विश्वास करने के लिए स्वतंत्र हैं और यह किसी भी मामले की वजह नहीं हो सकती है। अलग-अलग लोग अलग-अलग तरह की विचारधाराओं में विश्वास करते हैं। कुछ लोग मुझ पर यह ठप्पा लगाना चाहते हैं।

जेल के अनुभव ने मानवाधिकारों और न्याय पर आपके नजरिये को कैसे आकार दिया?

कोई जेल में है, तो उसे न केवल व्यक्तिगत रूप से अधिकारों के हनन का एहसास होगा, बल्कि उसे यह भी महसूस होगा कि जेल पूरे देश का छोटा रूप है। इससे आपको यह समझने में मदद मिलेगी कि संविधान द्वारा दिए गए अधिकार, आद‌िम प्राकृतिक अधिकार, उससे दीगर बतौर नागरिक आपको मिलने वाले अधिकार ही व्यापक लोकतांत्रिक अधिकारों की राह प्रशस्त करते हैं। हर जेल, और खासकर जिसमें मैं था, एक प्रकार की यातना, अधिकारों के हनन, जाति तथा सांप्रदायिक भेदभाव और हर अमानवीय कृत्य से बंदियों को तोड़ने का यातना-घर है। ऐसा इसलिए है क्योंकि अधिकांश कैदी, 90-95 प्रतिशत, समाज के सबसे वंचित वर्गों से आते हैं। इससे मुझे यह अंदाजा हुआ कि हर शिक्षित और जागरूक व्यक्ति के लिए बाकी आबादी के अधिकारों की रक्षा करना कितना महत्वपूर्ण है, जिनके पास कोई आवाज नहीं है। मुझे यह भी एहसास हुआ कि गिरफ्तारी से पहले मैं जो कर रहा था, वह जिम्मेदारी भरा और बेहद महत्वपूर्ण काम था।

सामाजिक न्याय के लिए हिंसक तरीकों के प्रयोग पर आपका क्या विचार है?

मैं पिछले 35 साल से कहता आ रहा हूं कि हिंसा से कुछ भी रचनात्मक नहीं होता, लेकिन यह देखना भी अहम है कि हिंसा के लिए जिम्मेदार कौन है। हिंसा बनाम अहिंसा की पुरानी बहस का कोई मतलब नहीं है। हम इस बहस में नहीं उलझ सकते। लोगों के अधिकारों के लिए हम जो काम करते हैं वही मायने रखता है। इसमें हिंसा-अहिंसा की बहस के लिए कोई जगह नहीं है। हिंसा बड़े पैमाने पर ताकतवर और सत्तारूढ़ लोग कर रहे हैं, न कि हाशिये पर मौजूद तबके।

अब आपकी पेशेवर और व्यक्तिगत योजनाएं क्या हैं?

मैं शिक्षक ही बना रहना चाहूंगा और शिक्षक के रूप में ही मरना चाहूंगा। पढ़ाना बहुत जरूरी है। मैं पढ़ाना जारी रखूंगा। साहित्य के छात्र और शिक्षक के रूप में अपने आसपास की दुनिया की समझ मुझमें विकसित हुई है। इससे मुझे उन लोगों के अधिकारों की रक्षा और बचाव करने की जिम्मेदारी उठाने की प्रेरणा मिली है जो जाति व्यवस्था के कारण इस देश में सैकड़ों वर्षों से हाशिये पर हैं और समाज में बनी श्रेणियों से पीड़ित हैं। जेल में पढ़ने-लिखने में बिताये दिनों ने मुझे सिखाया कि मुझे यह करना है। शिक्षा महत्वपूर्ण है, खासकर आदिवासियों, दलितों, अल्पसंख्यकों और पिछड़े वर्गों के लिए, ताकि वे अपने अधिकारों को जान सकें और निजी तथा सामुदायिक जीवन और नागरिक के रूप में प्रगति कर सकें। जब तक उचित शिक्षा नहीं दी जाती, केवल अक्षर ज्ञान से काम नहीं चलेगा। एक बड़ा वर्ग शिक्षा से वंचित है और अपने अधिकारों से नावाकिफ है, ऐसी स्थिति में मजबूर है जहां उसे अपना पेट भरने के लिए ही जूझना पड़ता है। वहां से हमें लोगों को आगे ले जाना है, जिसके बिना लोकतांत्रिक समाज में प्रगति नहीं हो सकती।

आप जैसी परिस्थितियों और कानूनी लड़ाई का सामना करने वालों के लिए क्या संदेश है?

हमें उम्मीद नहीं खोनी चाहिए। यह काला दौर है, आप दुनिया भर में विकसित हो रहे फासीवादी राजनैतिक परिदृश्य पर नजर डालें, उस महामारी पर गौर करें जिससे अंधेरा छा गया, या वामपंथी सर्वसत्तावाद को देखें जो कई देशों की सत्ता पर काबिज हो रहा है। यह सभी इस दौर के अंधियारे पक्ष हैं और हम 10 वर्षों से अधिक समय से इससे गुजर रहे हैं। अगर आप खुद से परे देखें और देखें कि दुनिया और देश में अधिकांश लोग किस तरह पीड़ित हैं, तो आप निश्चित रूप से इस मुश्किल समय में उदासी और अवसाद से बाहर आ जाएंगे। समाज  की उन्नति चमचमाती इमारतों से नहीं होती। ज्ञान की व्यवस्‍था लोकतांत्रिक बनाई जानी चाहिए और लोगों को वह उपलब्‍ध होनी चाहिए ताकि वे सशक्त बन सकें। जब तक ज्ञान की व्यवस्‍था उन लोगों के हाथ में है जिनका नियंत्रण सत्ता में है, समाज प्रगति नहीं कर सकता।उन सभी लोगों के लिए जो अभी जेल में हैं, अपनी दस साल की कैद के अनुभव के साथ कहना चाहूंगा कि हमें धीरज, ठोस विचारों और उम्मीद को बनाए रखना चाहिए। न केवल अपना खयाल रखने के लिए बल्कि विशाल हाशिये पर मौजूद बहुसंख्यकों के बड़े सवालों का समाधान करने के लिए भी।

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