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इंटरव्यू/मनोज बाजपेयी: ‘सिर्फ और सिर्फ एक्टर हूं, न किंग,न सुपरस्टार’

“खुद को सिर्फ एक्टर मानने वाले ओटीटी प्लेटफॉर्म के सुपर स्टार से बातचीत” तकरीबन साल भर से ओटीटी...
इंटरव्यू/मनोज बाजपेयी: ‘सिर्फ और सिर्फ एक्टर हूं, न किंग,न सुपरस्टार’

“खुद को सिर्फ एक्टर मानने वाले ओटीटी प्लेटफॉर्म के सुपर स्टार से बातचीत”

तकरीबन साल भर से ओटीटी इंडस्ट्री के लिए 52 वर्षीय मनोज बाजपेयी चमकता सितारा बनकर उभरे हैं। सिर्फ अमेजन प्राइम वीडियो पर द फैमिली मैन के पहले दो सीजन की धांसू कामयाबी से ही नहीं, बल्कि तमाम वेब सीरीज और फिल्मों में अपनी विविध और प्रभावी भूमिकाओं के कारण लोकप्रियता की बुलंदी पर जा बैठे हैं। बिहार में जन्मे इस अभिनेता ने मुंबई में अपने आलीशान अपार्टमेंट में गिरिधर झा के साथ खास बातचीत में अपने उतार-चढ़ाव भरे सफर पर रोशनी डाली। अलबत्ता यह भी कहा कि उन्हें ओटीटी का किंग या सुपरस्टार नहीं, बल्कि एक्टर कहलाना ही पसंद है, जैसा कि भारतीय सिनेमा के इस डिजिटल दौर में कहा जा रहा है। बातचीत के संपादित अंश:

 

फैमिली मैन 2, सूरज पे मंगल भारी और साइलेंस... मिसेज सीरियल किलर, रे, डायल 100 कहां नहीं हैं आप और गजब यह कि हर किरदार अलग है। हाल में तो आपने फिल्म से लेकर वेब सीरीज तक हंगामा ही बरपा दिया है...

पूरी कोशिश है कि हर जॉनर (शैली) को एक्सप्लोर किया जाए और अपने तरीके से उसमें योगदान किया जाए। मैं 1993 से फिल्मों में काम कर रहा हूं। मेरी पहली फिल्म बैंडिट क्वीन (1994) आने से पहले थिएटर में मैंने लंबा सफर तय किया है। मुझे लगा कि जॉनर कुछ ऐसा है, जिसका अभिनेताओं से कोई लेना-देना नहीं है। अभिनेता को अपने शिल्प और हुनर के साथ हर मौजूद शैली में पारंगत होने और प्रयोग करने के लिए तैयार रहना चाहिए। बस आगे बढ़ते रहना चाहिए और सभी तरह के निर्देशकों के साथ काम करना चाहिए। हर जॉनर में काम करना चाहिए और उसे पूरा करने की कोशिश करनी चाहिए। यह बहुत उत्साह पैदा करता है और पूरी सिनेमाई यात्रा को पूर्ण बनाता है। कम से कम मुझे तो यही लगता है।

मैं किसी भी शैली को जज नहीं करता। मैं हर किसी के साथ खुशी से काम करता हूं। मिलाप जवेरी (सत्यमेव जयते/2018), अहमद खान (बागी 2/2018), अभिषेक शर्मा (सूरज पे मंगल भारी/2020), देवाशीष माखीजा (भोंसले/2018), दीपेश जैन (गली गुलियां/2017), हंसल मेहता (अलीगढ़/2016), अभिषेक चौबे (रे/2021) हों या कानू बहल या राम रेड्डी, जिनके साथ मैं इन दिनों काम कर रहा हूं, सबके साथ सहज भाव से काम करता हूं।

किसी जॉनर के साथ मैं कैसे तालमेल बैठाता हूं, कैसे मैं निर्देशक के काम में खुद को लगाता हूं, कैसे फिल्म को एक प्रोजेक्ट के तौर पर उनकी आंखों या नजरिये से देखता हूं, उनके दृष्टिकोण को समझता हूं और उनकी इच्छा को पूरा करता हूं, ये सब वास्तव में मुझे केवल कंटेंट के तौर पर नहीं बल्कि चुनौतियां लेने और हर वक्त सजग रहने में भी मदद करता है। 

आप एक से दूसरी शैली में अभिनय करते हैं तो, क्या किरदार के लिए अलग तरह से तैयारी करनी पड़ती है? क्या यह आसान होता है?

अलग-अलग भूमिकाओं और अलग-अलग निर्देशकों के लिए खुद को अलग तरह से तैयार करना होता है। ईमानदारी से कहूं तो अब ऐसा करना आसान है। इससे इनकार नहीं कर सकता कि अमिताभ बच्चन की फिल्में देखकर ही अभिनेता बनने की सोची और सपना देखा। जब मैं 20-22 साल का था तो मुझे नसीरुद्दीन शाह और ओम पुरी का काम रोमांचित करने लगा या सत्यजीत रे, श्याम बेनेगल या मृणाल सेन के काम से मुझ सिनेमाई शख्सियत या अभिनेता के रूप में विकसित होने में मदद मिली। इसलिए, जब मैं मुख्यधारा की व्यावसायिक फिल्म कर रहा होता हूं, तो अमिताभ बच्चन, शत्रुघ्न सिन्हा या विनोद खन्ना की फिल्मों की सारी यादें मेरे पास लौट आती हैं। उन सभी फिल्मों को, जो मैंने बचपन में देखीं और जिनसे मुझे प्रेरणा मिली, उन्हें सम्मान देने का यह मेरा तरीका है।

फिर, जब मैं कोई इंडिपेंडेंट फिल्म कर रहा होता हूं, तो वह सारा सबक मेरे जेहन उतर आती है, जो मैंने महान समांतर फिल्मों को देखकर सीखा है और वह सब उन फिल्मों में डालने की कोशिश करता हूं। इसलिए मैं कुछ और होने के बनिस्बत सही मायने में भारतीय सिनेमा का अभिनेता हूं। मेरी कोशिश खुद को सिर्फ बतौर अभिनेता जायज ठहराने की होती है, उसके अलावा और कुछ नहीं।

आपने खुद को हमेशा एक अभिनेता के रूप में पहचाना जाना पसंद किया है। लेकिन अब आपको सुपरस्टार या ओटीटी का बादशाह कहा जा रहा है। यह सुन कर कैसा लगता है?

मुझे यह जानकर खुशी होती है कि लोगों को मेरा काम पसंद आ रहा है। मुझे इस बात की भी खुशी है कि दर्शक मेरे किए हर काम को लेकर रोमांचित हैं। लेकिन मुझे यह जरूर बताना चाहिए कि मैं निजी तौर पर ऐसी उपाधियों को कम पसंद करता हूं। ये उपाधियां मेरे लिए नहीं हैं। मैं इतने साल से फिल्म उद्योग में हूं लेकिन कभी ऐसा कुछ कहलाने की लालसा नहीं रही। ये मेरे प्रति न्याय नहीं करते। अगर कोई सुपरस्टार है, तो शाहरुख खान, सलमान खान, आमिर खान और अब रणवीर और वे तमाम लोग हैं। मैं बस एक अभिनेता हूं और इसी रूप में याद किया जाना पसंद करूंगा। न इससे ज्यादा, न इससे कम!

मनोज बाजपेयी

फैमिली मैन के एक दृश्य में मनोज बाजपेयी

हर समय मैं इसी (अभिनेता बनने) को सही ठहराने की कोशिश करता हूं। जो भी काम मैं कर रहा हूं चाहे वह द फैमिली मैन (2019) हो, रे या कोई फिल्म या वेब सीरीज या जो मैं भविष्य में करूंगा, उसमें मेरी महत्वाकांक्षा सुपरस्टार कहलाने की नहीं है। मेरी नजर उस ओर नहीं है। मेरी नजर सिर्फ और सिर्फ इस पर है कि मेरे काम और फिल्मोग्राफी को सच्ची सराहना हासिल हो। अगर मैं सिनेमा के विकास में योगदान दे रहा हूं, तो यह बेहतर है। इसलिए मुझे लगता है कि सुपरस्टार या ओटीटी का बादशाह जैसी उपाधि पंकज त्रिपाठी, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, जयदीप अहलावत और दूसरे मार्के का काम करने वाले अभिनेताओं को मिलनी चाहिए। मैं हर दिन इन अभिनेताओं से सीख रहा हूं और आजकल मलयालम अभिनेताओं से भी सीख रहा हूं। मैं ऐसा नम्रतावश नहीं कह रहा हूं। आप मेरे परिवार से पूछ सकते हैं, जब मैं घर पर होता हूं, कुछ नहीं कर रहा होता हूं तो टीवी के सामने बैठकर अपने समकालीन महान लोगों के काम देखता हूं, जिनका मैंने जिक्र किया।

इसके अलावा, मैं कुछ अंतरराष्ट्रीय सीरीज या यूरोपीय फिल्में देख रहा हूं। उनसे मुझे बेहतर अभिनेता बनने में मदद मिलती है। बस मैं यह उम्मीद करता हूं कि ज्यादा से ज्यादा सीखने और हुनर सुधारने की कोशिश करने का उत्साह खत्म न हो क्योंकि मुझमें इसकी जिज्ञासा और उत्तेजना है। जब मैं अपनी भूमिका की तैयारी कर रहा होता हूं और कैमरे के सामने अलग ढंग से कुछ करने की कोशिश कर रहा होता हूं, उसी वक्त मुझे सबसे ज्यादा खुशी होती है, फिल्मों की रिलीज और मार्केटिंग से ज्यादा। फिर चाहे वह फैमिली मैन हो, हंगामा है क्यों बरपा (रे एन्थालजी में) हो या भोंसले। जब मैं यह कर रहा होता हूं तो बहुत खुश, उत्साहित होता हूं और उनमें डूबा रहता हूं।

ओटीटी के आगमन से शायद खुद-ब-खुद दुनिया भर के दर्शकों के लिए आपकी कई फिल्में देखना संभव हो गया है, जो पहले नहीं था...

ओटीटी से मेरे करिअर के लिए जो सबसे अच्छी बात हुई, वह है किशोरवय दर्शकों तक पहुंच आसान होना। जब वे मेरे काम को देखते या खोजते हैं या अपने माता-पिता से मेरी कोई फिल्म देखने के लिए पूछते हैं, सही मायने में मेरे करिअर में ओटीटी का यही सच्चा योगदान है। यह काफी खास है कि उस उम्र के दर्शक मेरे काम के प्रति जागरूक हो रहे हैं, उत्साहित हैं और ओटीटी पर आने वाले मेरे नए शो का इंतजार कर रहे हैं।

क्या आपको लगता है कि ओटीटी पर स्टारों का जलवा काम नहीं करेगा? सिनेमाघरों के दोबारा खुलने के बाद क्या फर्क पड़ेगा?

ओटीटी पर स्टार सिस्टम नहीं चल सकता क्योंकि कॉन्टेंट का एक्साइटमेंट अगला आने तक ही रहता है। कतार में बहुत से लोग हैं। हर दूसरी फिल्म या सीरीज में कुछ न कुछ अलग होता है। इसलिए पहले वाले से लोगों का मोहभंग हो जाता है और वे कुछ नया देखने की राह देखते हैं। इसलिए इस प्लेटफॉर्म पर बादशाहत बरकरार रखना कठिन है। लगभग असंभव। जहां तक सिनेमाघरों की बात है, आप वाकई कुछ नहीं जानते। इस वक्त तो हर कोई अंदाजा लगा रहा है। हममें से कोई भी कोरोनावायरस के बारे में कुछ नहीं जानता। यह हर पल बदल रहा है। हम सभी अनुमान लगा रहे हैं और समझने की कोशिश कर रहे हैं कि सिनेमाघरों में सिनेमा का भविष्य क्या है।

हालांकि, एक बात पर मुझे पूरा यकीन है कि लोगों के साथ समूह में देखना कभी खत्म नहीं होगा। इसका अपना अलग मजा है। यह पिकनिक की तरह है। अपने परिवार के साथ थिएटर जाना, पॉपकॉर्न खरीदना, अंधेरे हॉल में बैठना, आनंद लेना। इसका अपना जादू है और पूरी धरती पर इस माध्यम का लंबे समय से असर कायम है। लेकिन यह मानना कि माहौल महामारी से पहले के दिनों की तरह हो जाएगा, तो शायद वह न हो पाए। सिनेमाघरों में भी यही स्थिति होगी। लोग सिनेमाघरों की ओर लौटेंगे लेकिन उनकी उम्मीदें दूसरी तरह की होंगी। भविष्य ही बताएगा कि अलग क्या होगा। जहां तक स्टार सिस्टम की बात है, जब तक थिएटर है, यह तब तक रहेगा।

ओटीटी ने एक्टरों के लिए अवसरों की बाढ़ ला दी है, लेकिन नब्बे के दशक में जब आपने काम शुरू किया था, तब आपकी तरह संवेदनशील अभिनेता के लिए रोमांटिक फिल्मों के दौर में जगह बनाना इतना आसान नहीं था। आपके लिए वह कितना कठिन रहा?

बड़ा कठिन समय था। मैंने बैंडिट क्वीन फिल्म की थी और टीवी पर स्वाभिमान और इम्तेहान जैसे धारावाहिक भी। लेकिन कोई ब्रेकथ्रू नहीं मिल रहा था। फिर, महेश भट्ट ने मुझे स्वाभिमान के एक एपिसोड में देखा और मैं जिस तरह से सीन कर रहा था, वे मेरे हुनर से काफी प्रभावित हुए। हालांकि मैंने उनके साथ तमन्ना (1997) की लेकिन उन्होंने मेरे सामने स्वीकारा कि उन्हें पता नहीं था कि मेरे साथ क्या करना है क्योंकि मैं न तो नायक था न खलनायक। उन्होंने कहा, ‘तुम अच्छे अभिनेता हो और मैं काम भी देना चाहता हूं। लेकिन मुझे नहीं पता कि क्या रोल दूं या तुम्हारे टैलेंट का क्या करूं? हम जिस तरह की फिल्में बना रहे हैं, उनमें तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं है।’ तो, वह कठिन समय था। तब मन में खुद के बारे में और अपनी महत्वाकांक्षा तथा क्षमता पर संदेह पैदा होने लगा था। ऐसा कई साल तक चला। यहां तक कि सत्या (1998) के बाद भी। सत्या से लोगों में दिलचस्पी पैदा हो गई थी। मैं जहां भी जाता था, भीखू म्हात्रे को देखने वालों की लाइन लग जाती थी। लेकिन मैं अपने इस फैसले पर अडिग रहा कि व्यावसायिक फिल्मों में किसी भी तरह के खलनायक की भूमिका नहीं करनी है। इसके कारण मुझे बहुत नुकसान हुआ और अगले प्रोजेक्ट के लिए मुझे लंबा इंतजार करना पड़ा। यह इतना आसान नहीं था। मुझे नहीं पता कि ओटीटी कैसे संभव हुआ लेकिन इतना तो तय है कि यह सिर्फ मेरे लिए ही नहीं, बल्कि मेरे जैसे कई अभिनेताओं के लिए आशीर्वाद की तरह आया, जो वर्षों से मौके का इंतजार कर रहे थे।

लेकिन आपने खुद के लिए अलग और स्वतंत्र राह कैसे बनाई?

हमारे देश में सिनेमा को कला नहीं, बल्कि व्यापार के रूप में लिया जाता है। फार्मूला से बंधे सेटअप में मुझे नहीं लगता कि मुझे कोई मौका मिलता। मैंने अपना रास्ता बदला और उन निर्देशकों के पास जाना शुरू किया, जिनके साथ मैं काम करना चाहता था। ईश्वर की कृपा से मेरा नाम और अपनी साख थी। इसलिए उन सभी ने बहुत हद तक सम्मान दिया और स्वागत किया। उनमें एक, नीरज पांडे (स्पेशल 26/2013) हैं। मुझे देवाशीष मखीजा या दीपेश जैन जैसे निर्देशक मिले और अलीगढ़ जैसी फिल्म मिली। मुझे अपनी तरह की फिल्में, अपने तरह के निर्देशकों को ढूंढ़ना था और उनसे अनुरोध करना था, उन्हें प्रभावित करना था ताकि मुझे लेकर फिल्म बनाएं। इस तरह ओटीटी पर द फैमिली मैन सेशन 1 के आने से पहले मेरी यात्रा के बाद के चरण की शुरुआत हुई।

अब ओटीटी के साथ मैं कहानी कहने के ढंग में अनूठापन महसूस करता हूं, कहानियां अलग ढंग से कहने के लिए काफी मेहनत की जा रही है। ऐसे निर्देशक हैं जो विश्व सिनेमा देखते हुए बड़े हुए हैं। उनका स्वागत किया जा रहा है। फिल्मकार और लेखक मेरे जैसे अभिनेताओं को आजादी दे रहे हैं। निश्चित रूप से यह बदलाव लाएगा क्योंकि आपके पास ऐसी भूमिकाएं और ऐसे पात्र हैं जो आप निभा सकते हैं। यहां तक कि निर्देशक भी आपको ध्यान में रख सकते हैं। हां, इससे हमें नई ऊर्जा मिली है।

सत्या के बाद शूल (1999) से लेकर जुबैदा (2001) तक आपने कई अच्छी फिल्में कीं। लेकिन 2005 और 2010 के बीच एक समय ऐसा भी आया जब आपके करिअर में ब्रेक लग गया। सत्या की लोकप्रियता की बुलंदी और फिर कोई काम न मिलने के दौर में आपने अपनी नाकामी को कैसे संभाला?

वह विफलता का दौर था। वह समय ऐसा था जब मैं फिर किनारे धकेल दिया गया था और खुद पर शंका होने लगी थी। वह आत्मनिरीक्षण का भी समय था। वे चार-पांच साल मुश्किल थे। मुश्किल इस अर्थ में कि मैं जो भी कर रहा था, उसमें मेरा पूरा विश्वास नहीं था। वह सब मैं इसलिए कर रहा था, ताकि अपने खर्चे चला सकूं। मैं उन दिनों मुंबई में नहीं रह रहा था। ज्यादातर समय मैं मुंबई से भाग रहा था। कार्यशालाओं का आयोजन, उनमें हिस्सेदारी, पढ़ने, योग और ध्यान करने में मशगूल था और अक्सर अपने गांव चला जाता था। मैंने अपने अतीत को फिर ताजा किया कि मैं कहां से आया था। मैंने तय किया कि मैं वापस जाऊंगा और नए सिरे से सीखूंगा। यह ड्राइंग बोर्ड पर वापस जाने और यह महसूस करने जैसा था कि क्या गलत हुआ और क्या सुधारा जा सकता है। मैं निराश या उदास नहीं था। मैं नाराज था क्योंकि नाराजगी हमेशा मेरी प्रमुख भावना रही है। हालांकि अब यह बिलकुल नहीं है। लेकिन वह गुस्सा मुझे वापसी के मौके तलाशने को प्रेरित कर रहा था। उस वक्त मैं निर्देशकों को फोन भी कर रहा था। मुझे याद है, ओए लकी, लकी ओए (2008) के बाद, मैंने दिबाकर बनर्जी को फोन किया और रोल मांगा। मैंने नीरज पांडे को फोन किया और काम मांगा। अगर मुझे कोई फिल्म पसंद आती थी, तो मैं सबसे पहले उसके निर्देशक को फोन करता था और काम मांगता था। हर दिन मेरी यही दिनचर्या हुआ हुआ करती थी। सुबह जगना, एक कप चाय पीना, नहाना, पूजा करना और फोन करना।

उनमें कई होंगे जिन्होंने आपको पलट कर फोन नहीं किया होगा?

उनमें से कई ने मुझे फोन नहीं किया। लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। कहीं न कहीं मुझे महसूस करना पड़ा कि मैं मनोज बाजपेयी नहीं हूं। मेरा कोई महान अतीत नहीं है और एक रोल के लिए संघर्ष कर रहा मैं एक नवागंतुक हूं। अपने गौरवशाली अतीत को मुझे दफनाना पड़ा और फिर से खुद को बनाना शुरू करना पड़ा। सच में ऐसा ही हुआ था। मेरे दिन गतिविधियों से भरे रहते थे। कविता सत्रों से लेकर, किताबें पढ़ने, फिल्में देखने और काम के लिए लोगों को फोन करने तक। वह बहुत ही अच्छा समय था। जो मनोज बाजपेयी अभी आप देख रहे हैं, वह उन चार-पांच वर्षों का परिणाम है, जिसे कई लोग बेकार कहते हैं, लेकिन मैं इसे सार्थक कहता हूं। मैं इसे तैयारी का समय कहता हूं। और जब राजनीति (2010) का ऑफर आया, मैं तैयार था। मैं कोई ऐसा व्यक्ति नहीं था, जिसे ब्लैकहोल से बुलाया गया था। मैं ऐसा था, जो तैयारी कर रहा था। यह वही समय था जब प्रकाश झा ने मुझे राजनीति के लिए याद किया और वह भूमिका थी, जिसमें मैं डूब सकता था। मुझे यकीन था कि जिस दिन मुझे अच्छा मौका मिलेगा तो मैं ठप्पे के साथ लौटूंगा।

अब भी आप निर्देशकों को काम के लिए फोन करते हैं?

हमेशा। मैं अब भी करता हूं। आप शायद यकीन न करें। कई स्थापित निर्देशक हैं, जिन्हें फोन कर काम मांगता हूं। इंडिपेंडेंट सिनेमा वाले कुछ निर्देशक हैं जिनके साथ मैं काम करना चाहता हूं और मैं उन्हें फोन करता हूं। कुछ निर्देशकों की शॉर्ट फिल्मों ने मुझे प्रभावित किया, मैं उनसे भी संपर्क करता हूं। मैं आपको बताना चाहूंगा कि मैंने पटना के एक लड़के की शॉर्ट फिल्म देखी। उसने इंडस्ट्री में अभी कदम भी नहीं रखा है लेकिन एक शानदार फिल्म बना डाली। उसके सेंस ऑफ विजुअल्स ने मुझे चौंका दिया। मैं उससे ट्विटर के माध्यम से जुड़ा और उसके लिए एक संदेश छोड़ा। आज वह लड़का एक स्क्रिप्ट पर काम कर रहा है। कल अगर स्क्रिप्ट अच्छी बनी, तो मैं उसकी फिल्म करूंगा। मैं इस तरह से काम कर रहा हूं। मैं इस तरह से जीना पसंद कर करता हूं। मैं अपने करिअर के साथ, हुनर के साथ ऐसे रोचक चीजें करना पसंद करता हूं। यह सब मुझे इतना व्यस्त रखता है कि मेरे पास वास्तव में किसी और चीज के बारे में सोचने का समय नहीं है जैसे, कौन क्या कहता है।

मतलब जब आप छोटी इंडिपेंडेंट फिल्मों में काम करते हैं, तो मेहनताना कोई मसला नहीं होता?

वे देते हैं। इंडिपेंडेंट फिल्म निर्माता मुझसे संपर्क करते हैं और हम हर किसी के लिए सुविधाजनक फिल्म का बजट तय करते हैं। हम बजट और पारिश्रमिक तय करते हैं। मैंने हर फिल्मकार के साथ इसका एक बहुत ही पारदर्शी तरीका निकाल लिया है। मैं भी अपने मेहनताने में वृद्धि चाहता हूं लेकिन बेजा नहीं। मैं भी इसी उद्योग का हिस्सा हूं और मुझे बजट में नफा-नुकसान के बीच के अनुपात के बारे में पता है। बजट ऐसी चीज है, जिसे मैं समझता हूं और हमेशा अपने दिमाग में रखता हूं। जहां तक बढ़ोतरी की उम्मीद का सवाल है, वह निश्चित रूप से होगी क्योंकि लोग देख रहे हैं और लोग देख रहे हैं, तो वह हमेशा पैसे के रूप में वापस आता है।

फिल्म उद्योग में नाम और बेमिसाल पहचान बनाने के लिए आपको बिहार के अपने सुदूर गांव बेलवा को छोड़ना पड़ा। अपने अब तक के सफर को कैसे देखते हैं?

हाल ही में मैं पत्नी और बेटी के साथ अपने गांव गया था। मेरी पत्नी तो अब तक यकीन नहीं कर पा रही कि मैंने इतना लंबा सफर तय कर लिया है। यह सब मुझे परीकथा की तरह लगता है। हम गांववालों के लिए उस समय पटना तक पहुंचना एक कठिन काम था। यह एक बड़े सपने जैसा है। आप सोच ही सकते हैं कि दिल्ली या मुंबई पहुंचना कैसा लगेगा। यह जादू की तरह था। मैं तो विश्वास ही नहीं कर पाता कि मैंने इतने लंबे समय यहां रह पाया। और ईश्वर की अनुकंपा से मैं आज भी यहां हूं और वह कर पा रहा हूं, जो चाहता था। अगर मेरा कोई दोस्त मेरी गैर-मौजूदगी में भी मेरे गांव जाता है, तो उसे अविश्वसनीय लगता है कि मैं कैसे इस मुकाम पर पहुंच गया।

अब अगला क्या?

कुछ अच्छी चीजें कतार में हैं। मैं हर तरह के निर्देशकों, कुछ इंडिपेंडेंट सिनेमा के लोगों के साथ करने को लेकर बहुत उत्साहित हूं। देवाशीष और मैंने एक और फिल्म साथ में करने का फैसला किया है। नए निर्देशकों की दो फिल्मों का मैं सह-निर्माण भी कर रहा हूं। ये सभी फिल्में अलग जॉनर की हैं। किसी शैली से दूसरी में जाना मेरे लिए हमेशा रोमांचक होता है। मैंने पहले भी कहा, इससे मैं सुविधाजनक जोन में नहीं जाता और चुनौतियों के लिए तैयार रहता हूं। ऐसा करना मुझे पसंद है।

द फैमिली मैन के अगले सीजन पर प्रश्न के बिना यह साक्षात्कार पूरा कैसे हो सकता है। कितनी जल्दी उसकी उम्मीद की जा सकती है?

मुझे लगता है कि वे लोग लिखना शुरू करेंगे। उन्हें इसलिए भी समय लग रहा है क्योंकि राज और डीके (निर्देशक द्वय) शाहिद कपूर की सीरीज में काफी व्यस्त हैं। इसके बाद वे लिखना शुरू करेंगे। एक सीरीज का मतलब है, तीन या चार फीचर फिल्म। इसलिए लिखने में समय लगता है। जैसे ही लेखन पूरा हो जाएगा और हमारी तारीखें ले ली जाएंगी, हम काम शुरू करेंगे। जब तक अमेजन प्राइम वीडियो हमें इसे बनाने के पैसे देता रहेगा, हम कहीं नहीं जाने वाले।

महेश भट्ट ने कभी कहा था, जिसकी चर्चाएं भी आम हैं कि आपने सत्या में माराडोना जैसा करिश्मा कर दिखाया। इशारा शायद यह था कि आपने उसी तरह फिल्मी अभिनय में बुलंदी को छू लिया, जैसा अर्जेंटीना के महान फुटबॉल खिलाड़ी ने 1986 के फुटबॉल विश्व कप में कर दिखाया था। लेकिन आपने पिंजर, गैंग्स ऑफ वासेपुर, अलीगढ़ और भोंसले जैसी फिल्मों में अपने बाद के प्रदर्शनों से उन्हें एक तरह से गलत साबित कर दिया। जल्दी सफलता से आप में आत्म-संतोष का भाव कैसे नहीं आया?

शायद मुझमें यह समझ काफी पहले आ गई, ठीक जब भीखू म्हात्रे की दीवानगी फैलने लगी। जब लोग मेरे प्रदर्शन पर वाह-वाह करने लगे थे, तभी मेरे मन में कुछ ऐसा संकल्प घुमड़ रहा था कि मैं नकारात्मक भूमिकाएं नहीं करूंगा। अगर मैंने वैसी भी भूमिकाएं की होतीं तो सचमुच मैं बहुत सारा पैसा कमा लेता और अपने लिए एक बड़ा घर खरीद लेता और फिर कलाकार के तौर पर मेरी मौत हो जाती। मुझे लगता है कि उस राह न जाने के मेरे फैसले ने संतुष्ट न होने में मेरी बहुत मदद की और मैं उन भूमिकाओं और पात्रों की तलाश में जुटा, जिसमें मेरा विश्वास था।

उस एक निर्णय ने वाकई मुझे बचा लिया। मैं किसी को गलत साबित करने की कोशिश नहीं कर रहा था। लोग जो कह रहे थे, वह सही था। यह वैसा कुछ नहीं था, जो लोगों के साथ नहीं हुआ था और वे सही सोच रहे थे कि ऐसा मेरे साथ भी होगा। यह मुझ पर निर्भर था कि मेरे साथ ऐसा न हो। यह मेरे हाथ में था। तभी मैंने फैसला किया कि मैं अपने सपने को जिऊंगा, किसी और के सपने को जीने की कोशिश नहीं करूंगा। इस निर्णय ने वाकई मेरी मदद की।

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