“जनगणना देश की जनसंख्या की कोई साधारण गिनती नहीं है”
अब लगभग साफ हो गया है कि 2021 में होने वाली जनगणना 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले नहीं होगी। हमारे देश में हर दशक में एक बार जनगणना करने का प्रचलन है। जनगणना देश की जनसंख्या की कोई साधारण गिनती नहीं है। हर दस साल में देश के हर व्यक्ति की गिनती होती है, चाहे वह बेघर ही क्यों न हो। इसी के आधार पर देश की योजनाओं और नीतियों की दशा-दिशा तय होती है या होनी चाहिए। जनगणना का यह सिलसिला अंग्रेजों के समय से 1872 से चला आ रहा है। उसके बाद 1881 से इसे हर दशक के पहले साल में करने की प्रथा चली। यह सिर्फ 1941 में टूटी थी जब द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था। आजादी के बाद 1951 से 2011 तक देश में तमाम मुश्किलों के बावजूद समय पर जनगणना होती रही। सन 1971 में पाकिस्तान से युद्ध का माहौल था, देश में लोकसभा चुनाव थे, लेकिन जनगणना उसी वर्ष हुई। इस दशक की जनगणना फरवरी 2021 में होने वाली थी, लेकिन कोरोना महामारी के चलते स्थगित करनी पड़ी। बीते वर्ष 2022 में जनगणना न करवाने की कोई वजह नहीं थी। सरकार ने बस एक नए टाइम टेबल की घोषणा कर दी कि अब जनगणना 2023 में होगी। फिर, हाल में गृह मंत्रालय ने नए आदेश के तहत तिथि जून 2023 तक बढ़ा दी। इसका मतलब है कि मकानों पर निशानदेही का पहला चरण इस साल जुलाई से पहले शुरू नहीं हो सकता, जिसमें छह महीने से ज्यादा लगेंगे। मतलब यह है कि लोगों की गिनती का दूसरा चरण फरवरी 2024 से पहले संभव नहीं होगा। तब तक लोकसभा चुनाव का वक्त आ जाएगा। यानी चुनाव बाद तक जनगणना टल गई। इसका हमारे देश, लोगों, नीतियों-कार्यक्रमों पर क्या फर्क पड़ेगा, इस पर हरिमोहन मिश्र की देश के पूर्व मुख्य सांख्यिकी अधिकारी प्रणब सेन से बातचीत के संपादित अंशः
जनगणना में लगातार देरी हो रही है, कानूनन इसमें कितनी देरी की जा सकती है, देरी के कारण को कैसे देखते हैं?
कानूनन मेरे हिसाब से इस पर कोई पाबंदी नहीं है। मतलब इसकी कोई समय सीमा नहीं है, लेकिन सवाल यह है कि इसका असर क्या होगा। जनगणना के बगैर सरकार को कोई अंदाजा नहीं कि देश में लोग कितने हैं और कहां हैं। तो फर्ज कीजिए कि सरकार की जितनी भी योजनाएं हैं, उन पर जनगणना के आधार पर ही काम किया जाता है। कुछ जगहों पर आबादी बढ़ी है, कुछ पर घटी है लेकिन सरकार को मालूम ही नहीं है। कुछ जगह पर कम पैसे भेज दिए जाएंगे, तो कुछ जगह पर ज्यादा। इससे एक असमंजस बन जाता है। यह ठीक नहीं है किसी के लिए भी।
लेकिन राजनैतिक रूप से और प्राथमिकताएं तय करने के लिए यह देश के लिए जरूरी नहीं है?
राजनैतिक रूप से तो यह जरूरी है ही क्योंकि यदि आपको निर्वाचन क्षेत्रों की डीलिमिटेशन करनी है, तो वह जनगणना के आधार पर ही होगी। लेकिन देखने की बात यह भी है कि जनगणना में अभी दो साल की देरी हो चुकी है और लग रहा है कि कम से कम साल भर और देरी होगी या उससे ज्यादा भी हो सकती है, लेकिन विपक्ष इस बारे में कुछ नहीं कह रहा है। उनको भी कोई खास फर्क नहीं पड़ता है। तो मेरे हिसाब से यह राजनैतिक मुद्दा नहीं बना है। बनना चाहिए राज्यों में क्योंकि संसाधनों के बंटवारे में जनगणना की बड़ी भूमिका है।
हालांकि कभी जनगणना रोकी नहीं गई, 1971 के पाकिस्तान युद्ध के दौरान भी नहीं। दो साल कोविड में चले गए, मगर पिछले साल तो मौका था...
बिलकुल, 1971 युद्ध के दौरान भी नहीं रोकी गई और पिछले साल तो मौका था। असल में जनगणना के दो कदम हैं। पहला है- हाउस लिस्टिंग ऑपरेशन। उसमें आपको कोई पर्सनल कॉन्टैक्ट की जरूरत नहीं है। जनगणना के अधिकारी सड़कों पर घूमते हैं और एक मैप में नोट करते हैं कि कितने घर, मकान हैं। किसी से मिलना नहीं और किसी से कोई सवाल नहीं पूछना है। यह तो आराम से पिछले साल हो सकता था। दूसरे चरण में कॉन्टैक्ट की जरूरत है। वह एक साल बाद हो सकता था। हाउस लिस्टिंग ऑपरेशन के बाद कम से कम तीन महीने लगते हैं, इसमें ह्यूमन ब्लॉक पर काम करना होता है। मैप को देखना कि कहीं कुछ ओवरलैप न हो या कहीं कुछ छूट न जाए। इसके अलावा 2011 में जब जनगणना हुई थी, तो 25 लाख सरकारी अधिकारी जनगणना के लिए निकले थे। 25 लाख लोगों को ट्रेनिंग देने में काफी वक्त लगता है और ट्रेनिंग देना बहुत जरूरी है। फिर भी, अगर करना चाहें तो हो सकता है।
कोई पॉलिटिकल मोटिव आपको इसमें दिखता है?
मुझे समझ नहीं आ रहा कि इसमें पॉलिटिकल मोटिव क्या हो सकता है।
कुछ लोग ऐसा कह रहे हैं कि पिछड़ों और एससी-एसटी की आबादी बढ़ गई है, तो शायद उन्हें गिनना न हो...
यह तो हो सकता है, लेकिन उससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता क्योंकि रिजर्वेशन पर तो पचास प्रतिशत का कैप है, वह मामला अब बंद है। अब रही बात जनगणना न कराने की तो मेरे खयाल से एनपीआर का एक मसला जोड़ने की कोशिश चल रही थी। एनपीआर का मसला स्थगित हो गया था। मेरे खयाल से वे प्लान कर रहे हैं कि सेन्सस के साथ एनपीआर भी कर दें। यह वजह हो सकती है देरी की।
अचानक निर्वाचन आयोग ने माइग्रेंट वोटर्स के मतदान की बात छेड़ी है। उसका कहना है कि 30 लाख माइग्रेंट वोटर्स हैं। इसका क्या अर्थ है जबकि सरकार के पास जनगणना के कोई आंकड़े ही नहीं है?
हमारे देश में सालाना 8 करोड़ से लेकर 10-12 करोड़ तक लोग एक जगह से दूसरी जगह जा रहे हैं। अब वे वहां रह रहे हैं या नहीं, यह अलग बात है, लेकिन मूवमेंट हो रही है सालाना। अब आप कह सकते हैं कि इनमें बहुत से टूरिस्ट होंगे और वापस आ जाएंगे, पर काफी सारे वापस नहीं आएंगे। यह जनगणना से ही पता चलेगा। कहने की बात सिर्फ यही है कि जनगणना जितनी जल्दी हो सके करनी चाहिए। जनगणना के बिना जितने सरकारी प्रोग्राम हैं, सब ढीले पड़े हुए हैं, जो ठीक नहीं है। एक तरह से देश के विकास के लिए भी यह बाधक है।