किसानों को आजादी दिलाने के नाम पर लाए गए तीनों कानून उसके सिर से छप्पर ही उठा देंगे। सरकार ने कुछ अर्थशास्त्रियों और नौकरशाहों की सलाह पर कानून बनाया, जो खेती में कंपनी राज का रास्ता साफ करते हैं। ये कानून व्यापारी, स्टॉकिस्ट और कॉर्पोरेट घरानों के लिए बने हैं। अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के वर्किंग ग्रुप के सदस्य तथा स्वराज अभियान के प्रमुख योगेंद्र यादव का यही मानना है। उनसे इनके असर और किसानों की आशंकाओं पर हरिमोहन मिश्र ने बातचीत की। प्रमुख अंशः
किसान आंदोलन की चिंगारी फैलती जा रही है। कहा यह भी गया कि महाराष्ट्र में किसान नेता शरद जोशी का बनाया शेतकरी संगठन जैसे कुछ इन कानूनों के समर्थन में है। भारत बंद में यह कितने बड़े पैमाने पर दिखा?
25 सितंबर को किसानों का देश भर में भारत बंद या किसानों का प्रतिरोध कई मायनों में ऐतिहासिक है। मात्र 5 दिनों में राष्ट्रीय स्तर पर आंदोलन का आयोजन किसान आंदोलन के इतिहास में अद्भुत घटना है। इसका आह्वान तो 250 किसान संगठनों के समन्वय वाले अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति ने किया था, लेकिन आह्वान के बाद अपने आप कई ऐसे समूहों ने भी इसको हाथोहाथ उठा लिया, जो एआइकेएससीसी से नहीं जुड़े हैं। तीसरे, इसका जो भौगोलिक दायरा था, वह दुर्भाग्यवश मीडिया में ऐसा प्रोजेक्ट किया गया कि यह पंजाब, हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश का आंदोलन था जबकि हकीकत यह है कि यह पूरे देश का आंदोलन था। तमिलनाडु से 300 जगह पर विरोध प्रदर्शन की खबर आई, वहां कोई 11,000 किसानों की धरपकड़ हुई। तेलंगाना के सभी 33 जिलों में विरोध हुआ। महाराष्ट्र में राजू शेट्टी के नेतृत्व में जनाधार वाले स्वाभिमानी शेतकारी संगठन ने हर जिला और तहसील मुख्यालय पर कानून की प्रतियां जलाईं। केवल एआइकेएससीसी के संगठनों के आंकड़े के मुताबिक देश भर में कोई 10 हजार जगह धरना-प्रदर्शन-रास्ता रोको हुआ। संघ परिवार का भारतीय किसान संघ भी कह रहा है कि विधेयकों को ऐसे पारित नहीं करना चाहिए था। आज देश भर में इन तीनों कानूनों का समर्थन करने वाला एक भी जनाधार वाला किसान संगठन नहीं है।
सरकार और आर्थिक सुधारों के कई पैरोकार तीनों कानूनों को बड़े सुधार बता रहे हैं?
बिलाशक कृषि क्षेत्र में कई सुधारों की लंबे समय से जरूरत थी, लेकिन जो सरकार ने किया है, यह वह परिवर्तन नहीं है। किसान जो मांग रहे थे वह तो मिला नहीं और बिनमांगी सौगात उनके माथे पर जड़ दी गई। किसानों से जुड़े इन कानूनों पर किसकी बातचीत चल रही थी? केवल सरकार और कुछ अर्थशास्त्रियों की? मैं पूछता हूं कि पिछले 25 साल से क्या इन कानूनों की किसी भी किसान संगठन ने मांग की थी? शरद जोशी ने 80-90 के दशक में इसकी मांग जरूर की थी, लेकिन जमीनी हकीकत देखने के बाद अब उनके वारिस भी उन विचारों से अलग हो गए हैं। वी.पी. सिंह की सरकार के दौरान तीन समितियां बनी थीं, उसमें इस किस्म के प्रस्ताव की चर्चा हुई थी, जिसका जिक्र पूर्व कृषि मंत्री सोमपाल शास्त्री करते हैं। किसान आंदोलनों के बड़े से बड़े मांग-पत्र में इसकी मांग नहीं की गई। किसानों के लिए यह इतनी बड़ी सौगात थी तो इसे महामारी और लॉकडाउन के बीच अंधेरे के समय अध्यादेश रूपी चोर दरवाजे से क्यों लाया गया? पंजाब के किसान नेता बलबीर सिंह राजेवाल ने मुझे पिछले महीने बताया कि वे एक बार नीति आयोग की एक बैठक में गए थे, जहां इसकी चर्चा चल रही थी। वे उस बैठक से उठकर चले आए और कहा कि हिम्मत है तो इसे किसानों के सामने रखो। मैं समझता हूं की इन कानूनों को लागू करने के लिए इसीलिए ऐसा समय चुना गया, जब चर्चा नहीं हो सकती। क्यों इसे संसदीय समितियों में नहीं भेजा गया? विपक्षी दलों का मुंह बंद क्यों कराया गया? और जिस शर्मनाक तरीके से राज्यसभा में पारित कराया गया, उससे तो साफ है कि नीयत खराब थी।
मंडियों में अब क्या बदलेगा?
सरकार ने इन कानूनों को जो नाम दिए हैं, वे बहुत टेढ़े और पेचीदा हैं। पहले कानून का नाम होना चाहिए एपीएमसी बाईपास कानून। मेरी भाषा में पूछें तो मैं इसे मंडी छोड़ो, एमएसपी तोड़ो कानून कहूंगा। यह कानून कृषि उपज को मंडियों में खरीदने की अनिवार्यता को समाप्त करता है। इसके लिए प्राइवेट मंडी बनाने की इजाजत दी गई है। हकीकत यह है कि कृषि उपज का लगभग 65 प्रतिशत एपीएमसी के बाहर हमेशा बिकता रहा। मंडी में व्यापार तो कमोबेश प्राइवेट व्यापारी ही करते थे। फर्क यह नहीं है कि सरकारी के बदले प्राइवेट व्यापार होगा। फर्क यह है कि पहले रेगुलेटेड था, अब अनरेगुलेटेड होगा। सरकारी मंडी में शुल्क लगेगा, रजिस्ट्रेशन अनिवार्य होगा, रिकॉर्डिंग अनिवार्य होगी। प्राइवेट मंडी में इन तीनों की कोई जरूरत नहीं है। यह किसान को नहीं, व्यापारी को आजादी दी गई है, बिना लिखा-पढ़ी, बिना रसीद, बिना बही-खाते के व्यापार के लिए। चाहिए यह था कि सरकार एपीएमसी में सुधार करती। उसमें भ्रष्टाचार, लालफीताशाही, राजनैतिक खेल वगैरह है। सुधार के लिए वाजपेयी सरकार ने एक मॉडल कानून बनाया था। सवाल तो यह पूछा जाना चाहिए कि भाजपा की राज्य सरकारों ने वह मॉडल कानून क्यों नहीं अपनाया। अगर प्राइवेट मंडी में शुल्क नहीं लगेगा तो कोई पागल ही होगा, जो सरकारी मंडी में बेचने आएगा। ऐसे में साल दो साल में सरकारी मंडी बैठ जाएगी। किसानों का भय है कि एक बार मंडी बैठ गई तो किसान के सिर से तो छत चली जाएगी, जैसे बिहार में हो रहा है। वहां 2006 में एपीएमसी खत्म कर दी गई, देख लीजिए आज बिहार के किसान को क्या दाम मिल रहा है।
एक और भय एमएसपी खत्म होने का है। आज भी जहां मंडी नहीं है, वहां सरकारी खरीद नहीं होती, या बहुत मामूली होती है। देख लीजिए, पूर्वी उत्तर प्रदेश में कितनी सरकारी खरीद होती है? बिहार में धान का एक प्रतिशत भी सरकारी खरीद नहीं होती है। किसान को यह भी पता है कि मोदी सरकार ने सरकारी खरीद और न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म करने की कम से कम चार बार कोशिश की है। 2014 में सत्ता में आने के बाद पहला काम न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद में राज्य सरकारों का बोनस रोकना था, जो वे आपने पास से देती थीं। दूसरे शांता कुमार कमेटी बनाई गई। उस कमेटी ने सिफारिश की कि एफसीआइ को खरीदने और भंडारण के काम से अलग किया जाए। तीसरे, इस सरकार ने 2015 में सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर कहा कि लागत का डेढ़ गुना दाम देना संभव नहीं है। चौथे, मोदी सरकार ने दूसरी बार सत्ता में आने के बाद पंजाब और हरियाणा सरकार को लिखित में कहा है कि आप जितना गेहूं और चावल खरीदते हो, उसकी मात्रा घटाई जाए। इसलिए किसान की आशंका का आधार है।
लेकिन सरकार तो बार-बार कह रही है कि एमएसपी की व्यवस्था बरकरार रहेगी।
इसमें भी चालाकी है। यानी कागज पर एमएसपी की घोषणा होती रहेगी, लेकिन सरकार कोई जिम्मेवारी लेने को तैयार नहीं है। किसान इस खेल को समझ गया है। वह कहता है कि अगर एमएसपी पक्की है तो सरकार इन कानूनों में संशोधन करके लिख दे कि मंडी चाहे सरकारी हो या प्राइवेट, या फिर किसानों के साथ कॉन्ट्रैक्ट हो, कोई भी सौदा एमएसपी से नीचे नहीं होगा। खुद नरेंद्र मोदी जी ने 2011 में गुजरात का मुख्यमंत्री रहते तत्कालीन प्रधानमंत्री को यह सिफारिश की थी। वे अब अपनी ही सिफारिश से मुंह क्यों चुरा रहे हैं?
सरकारी दावा है कि खेती में करार वाले विधेयक से निजी निवेश की राह खुलेगी?
देश में लगभग आधी खेती बंटाई पर होती है। उसे आप करार या अनौपचारिक करार की खेती कह सकते हैं। बहुत समय से किसान यह मांग उठा रहे हैं कि बंटाईदारों के लिए ऐसी व्यवस्था हो, जिससे उसे कर्ज मिल सके, फसल नष्ट होने का मुआवजा मिल सके। यह लागू करने में सरकार की रत्ती भर दिलचस्पी नहीं है। नया कानून कॉरपोरेट फार्मिंग के लिए है। मैं इसे बंधुआ किसान कानून कहता हूं क्योंकि यह केवल कंपनी पर लागू होता है। इस कानून में किस दाम पर करार हो, इसकी कोई न्यूनतम अनिवार्यता नहीं है। विवाद निपटारे की ऐसी व्यवस्था है,जो किसान की पहुंच में नहीं है। पहला दावा एसडीएम की कोर्ट में, दूसरा डीएम और तीसरा केंद्र सरकार के पास। ऊपर से कोर्ट कचहरी में जाने की मनाही है। कौन किसान इसमें कामयाब हो सकता है? पंजाब में पेप्सी और कुछ दूसरी कंपनियों के कांट्रैक्ट का उदाहरण सामने है। जब बाजार में दाम कॉन्ट्रैक्ट से ज्यादा था तो उन्होंने कॉन्ट्रैक्ट लागू करवाया। जब बाजार में सस्ता माल मिल रहा था तो कंपनियों ने किसान की फसल में सौ नुक्स निकाल कर उनका माल रिजेक्ट कर दिया और सस्ता बेचने पर मजबूर किया।
दावा है कि आवश्यक वस्तुओं से अनाज को हटाने से भी बिक्री के और साधन खुल जाएंगे और प्रतिस्पर्धा में दाम अच्छे मिल सकते हैं?
दरअसल इस तीसरे कानून को जमाखोरी कालाबाजारी कानून कहना चाहिए। यह कानून स्टॉकिस्ट के लिए बना है। इससे स्टॉकिस्ट का मुनाफा बढ़ेगा लेकिन किसान को क्या फायदा होगा? किसान जब फसल बाजार में लाएगा तो दाम गिरा दिए जाएंगे और जब उपभोक्ता को बेचने की बात आएगी तो दाम बढ़ा दिए जाएंगे। इस कानून में एक सबसे खतरनाक बात है, जिस पर कम लोगों का ध्यान गया है। इसमें एक प्रावधान है कि सरकार कुछ आपात स्थितियों में स्टॉक पर पाबंदी लगा सकती है लेकिन निर्यात करने वाले पर कोई पाबंदी नहीं लगेगी। अब आप सोचिये कौन इस देश में निर्यात का लाइसेंस कभी भी अपनी जेब में रख सकता है? उस कंपनी का नाम है अडाणी-विलमार। इस कानून से वेयरहाउस और कोल्ड स्टोर में प्राइवेट निवेश बेशक बढ़ेगा। लेकिन इसका असर यह होगा कि अब सरकार कृषि इंफ्रास्ट्रक्चर में एक पैसा भी नहीं लगाएगी।
ये तीनों कानून एक साथ लाने का क्या मतलब हो सकता है?
एक झटके में लाने का मकसद साधारण-सा है कि कुछ समय से अर्थशास्त्रियों और नीति-निर्माताओं का सपना रहा है कि पश्चिमी देशों की तरह कारपोरेट इंटेसिव खेती हमारे यहां भी हो। तीनों में से कोई कानून किसान के लिए बना ही नहीं। कई समय से बड़ी कंपनियां मांग कर रही थीं कि हम खेती में आना चाहते हैं लेकिन पांच-दस हजार हेक्टेयर का दायरा हमें नहीं मिलता तो हम क्यों फुटकर पैसा इसमें लगाएं। ये तीनों कानून सिर्फ कानून नहीं हैं, एक राजनैतिक इशारा है कि अब कृषि क्षेत्र से सरकार हाथ खींच लेगी। अब किसान पूरी तरह बाजार भरोसे हो जायेगा। किसान सरकार की नीयत, नीति और राजनीती सब समझ गया है।