देश के आला संस्थान दिल्ली के ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (एम्स) के अध्ययनकर्ताओं ने पाया है कि ब्रेस्ट कैंसर के मामले खासकर युवतियों में जिस तेजी से बढ़ रहे हैं, उसी तेजी से उनकी शादियां टूटने की मिसालें भी बढ़ रही हैं। राजधानी स्थित एम्स के रेडियोलॉजी विभाग की प्रोफेसर डॉ. स्मृति हरि कहती हैं कि ब्रेस्ट कैंसर के जितने मामले आते हैं, उनमें से 30 फीसदी मामले 40 साल से कम उम्र की महिलाओं के होते हैं, जबकि पहले अमूमन ब्रेस्ट कैंसर के मामले 40-50 साल की आयु में ज्यादा हुआ करते थे। एम्स के सर्जिकल ऑन्कोलॉजी विभाग के प्रमुख, प्रोफेसर डॉ. एस.वी.एस. देव का भी कहना है कि भारत समेत विकासशील देशों में कम उम्र के मरीजों का प्रतिशत काफी ज्यादा बढ़ा है। एम्स के आंकड़ों के मुताबिक 2014 से 2017 के बीच ब्रेस्ट कैंसर के कुल 2,300 मरीजों का इलाज किया गया। इनमें से 28 फीसदी मरीज 40 साल से कम उम्र की थीं। जबकि पश्चिमी देशों में ब्रेस्ट कैंसर के पांच से सात फीसदी मामले ही 40 साल से कम उम्र की महिलाओं के होते हैं।
दर्दनाक मिसालें
- झारखंड के धनबाद जिले की तीसेक बरस की कुसुम देवी को ब्रेस्ट कैंसर के इलाज के लिए नई दिल्ली के एम्स में अकेले ही चक्कर लगाने पड़ते हैं। कुसुम की जिंदगी छह महीने पहले तक सुखी थी। एक स्थानीय कंपनी में क्लर्क उनके पति महेश कुमार को जब पता चला कि उन्हें ब्रेस्ट कैंसर है तो बेरुखी दिखाने लगे और दूसरी शादी करने की बात करने लगे। तीसरे चरण के ब्रेस्ट कैंसर का इलाज कराने के लिए कुसुम को अब धनबाद में ही रहने वाले अपने माता-पिता से मामूली आर्थिक मदद मिल पाती है जिसके सहारे वह हर महीने इलाज के लिए दिल्ली के चक्कर काटती हैं।
- पंजाब के जालंधर की 28 वर्षीय रूपाली दत्त के आइटी प्रोफेशनल पति रोमेश चंद्र ने भी उनसे तब मुंह मोड़ लिया जब उन्हें ब्रेस्ट कैंसर होने का पता चला। रूपाली की शादी करीब डेढ़ साल पहले हुई थी। करीब एक साल पहले ब्रेस्ट कैंसर की पुष्टि हुई तो उनके पति ने साफ कह दिया कि वह तलाक लेना चाहते हैं। रूपाली दूसरे चरण के कैंसर के इलाज के लिए एम्स अकेले ही आती-जाती हैं। उन्हें इलाज के लिए अपने भाई और बहन से आर्थिक मदद लेनी पड़ रही है।
- उत्तर प्रदेश में एटा जिले के जैथरा गांव की रमा देवी के पति अशोक कुमार को करीब छह महीने पहले जैसे ही कैंसर के बारे में पता चला, उसने रमा को छोड़ दिया और माता-पिता के पास पहुंचा दिया। रमा देवी एक नजदीकी स्कूल में अध्यापक हैं, जबकि पति की दुकान है। उसके पति का कहना है कि वह ऐसी जानलेवा बीमारी से जूझ रही महिला के साथ अपनी जिंदगी बर्बाद नहीं करेगा। पहले चरण के कैंसर का इलाज करवा रही रमा देवी ने भी अब मन कड़ा कर लिया है और पति से तलाक लेकर जिंदगी नए सिरे से बुनने की बात कह रही हैं।
फेफड़ों के कैंसर के बाद ब्रेस्ट कैंसर (महिलाओं में सर्वाधिक) दूसरा सबसे खतरनाक कैंसर साबित हो रहा है। ‘इंटरनेशनल एजेंसी फॉर रिसर्च ऑन कैंसर’ की ताजा रिपोर्ट के अनुसार 2018 के दौरान कैंसर के कुल मरीजों में 11.6 फीसदी मरीजों को ब्रेस्ट कैंसर था। भारत में ब्रेस्ट कैंसर के मरीजों का कुल अनुपात पश्चिमी देशों से कम था लेकिन युवतियों में यह अनुपात भारत में ज्यादा रहा। इसके फैलने की रफ्तार भी भारत में बहुत तेज है। करीब 1000 ब्रेस्ट सर्जनों के संगठन एसोसिएशन ऑफ ब्रेस्ट सर्जन ऑफ इंडिया (एबीएसआइ) के अध्ययन से भी ऐसे ही संकेत मिलते हैं। अध्ययन के अनुसार 1990 से 2016 के बीच देश में ब्रेस्ट कैंसर के मामलों में 40 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। 2016 में 1,18,000 नए मरीजों का पता चला। नए मरीजों को मिलाकर कुल मरीजों की संख्या बढ़कर 5,26,000 हो गई। पिछले एक दशक में ब्रेस्ट कैंसर ने ग्रीवा (गले का) कैंसर को भी पीछे छोड़ दिया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की रिपोर्ट के अनुसार, बीते वर्ष 2018 में भारत में महिलाओं में ब्रेस्ट कैंसर सबसे खतरनाक साबित हुआ। कैंसर से कुल 3,26,300 महिला मरीजों की मौत हुई। इनमें ब्रेस्ट कैंसर से सर्वाधिक 21.5 फीसदी महिलाओं को जान गंवानी पड़ी। डब्ल्यूएचओ के अनुसार, बीते साल में 1,44,937 महिलाओं को ब्रेस्ट कैंसर होने का पता चला।
डॉ. स्मृति हरि कहती हैं कि उनके सामने ऐसे मामले प्रायः आते हैं, जिनमें ब्रेस्ट कैंसर होने की जानकारी मिलने के बाद उनके पति और दूसरे परिजनों की बेरुखी बढ़ जाती है। कभी-कभी तो परिजन ब्रेस्ट कैंसर पीड़ित महिला को छोड़ ही देते हैं। उनका अनुमान है कि करीब 20 फीसदी महिला मरीज ऐसी होती हैं जो बीमारी के अलावा पारिवारिक दृष्टि से ज्यादा परेशान होती हैं। मतलब यह कि ब्रेस्ट कैंसर अब महिलाओं के बहिष्कार का भी कारण बनने लगा है। यह कैंसर से भी ज्यादा भयावह है। रोजाना दर्जनों मरीजों का इलाज करने वाली डॉ. हरि कहती हैं, “भारत के पुरुष प्रधान समाज का विद्रूप चेहरा और भी खुलकर सामने आने लगा है।”
पति और परिवार का सहारा न मिलने के कारण कई बार पीड़ित महिलाओं को इलाज भी बीच में ही छोड़ना पड़ता है अथवा समय पर इलाज शुरू ही नहीं हो पाता है। हालांकि उम्रदराज महिलाओं को बेटे-बेटियों का सहारा मिल जाता है। नालंदा जिले के एक गांव से एम्स में इलाज के लिए आई 52 वर्षीय तुलसी देवी इस मामले में भाग्यशाली हैं। वे इलाज के लिए अपने बेटे के साथ दिल्ली आती हैं।
ब्रेस्ट कैंसर पीड़ितों को परिवार का सहारा न मिलने के मामले ग्रामीण क्षेत्रों के ज्यादा हैं। डॉ. हरि का कहना है कि कई बार महिलाओं को ब्रेस्ट में गांठ होने पर कैंसर का डर तो होता है लेकिन वे परिवार और पति का सहारा छिनने के भय से जांच नहीं कराती हैं। इस वजह से बीमारी बढ़ जाती है और जानलेवा हो जाती है। एक मरीज ने बताया कि उसे गांठ पिछले दो साल से महसूस हो रही थी। पहले तो उसने गांठ की तरफ ध्यान नहीं दिया, पर जब उसे पता चला कि गांठ से कैंसर हो सकता है, तब तक उसे हल्का दर्द भी होने लगा था। लेकिन उसने इस आशंका से अपने पति को नहीं बताया कि बीमारी का पता चलने पर वह कहीं उसे छोड़ न दे। इस पीड़ित महिला को अपनी एक सहेली का केस याद था कि कैसे बीमारी का पता चलने पर उसके पति ने उसकी सहेली को छोड़ दिया था। अब बीमारी तीसरी अवस्था में पहुंच गई और लाइलाज हो चुकी है।
वैसे गरीबी भी इस सामाजिक समस्या की मुख्य वजह होती है। गांवों में ही नहीं बल्कि शहरों में गरीब परिवार के लिए महंगा इलाज करा पाना मुश्किल होता है। कई बार दूसरे लोगों में कैंसर फैलने की आशंका से भी लोग महिलाओं को छोड़ देते हैं। जबकि डॉ. हरि स्पष्ट करती हैं कि कैंसर छुआछूत की बीमारी नहीं है। इसलिए साथ रहने या छूने से इसके फैलने का कोई खतरा नहीं होता है।
राजस्थान के सर्वे से भी पुष्टि
राजस्थान में 2017 में प्रकाशित सर्वे रिपोर्ट में भी ब्रेस्ट कैंसर की पीड़ित युवा महिलाओं को पतियों द्वारा छोड़े जाने की घटनाओं की पुष्टि होती है। कैंसर मरीजों की क्वालिटी ऑफ लाइफ का पता लगाने के लिए राजस्थान और दिल्ली के अस्पतालों से आंकड़े जुटाकर यह अध्ययन किया गया था। क्वालिटी ऑफ लाइफ पर की गई इस रिसर्च से पता चला कि ब्रेस्ट कैंसर होने से वैवाहिक जीवन प्रभावित होता है। इसके कारण उनके पति के साथ संबंधों पर बुरा असर पड़ता है। इस रिसर्च में डाटा एनालिटिक्स के जरिए विश्लेषण करने वाले ‘मालवीय नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी,’ जयपुर के इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर डॉ. राजेश कुमार कहते हैं कि पति-पत्नी के रिश्तों में परिपक्वता न होने पर बीमारी होने की स्थिति में त्यागने की घटनाएं ज्यादा होती हैं।
पीड़ित महिला की बेटियों की शादी पर आंच
रिसर्च से एक अन्य समस्या भी सामने आई है कि ब्रेस्ट कैंसर से पीड़ित महिलाओं को अपनी बेटियों की शादी करने में भी कठिनाई आती है। इसी तरह का एक वाकया दिल्ली में भी कुछ वर्षों पूर्व सामने आया था। ऑस्ट्रेलिया के मेलबॉर्न में रहने वाली एक महिला मालती का पति उसे भारत में छोड़कर इस वजह से वापस चला गया कि उसे अपनी पत्नी को ब्रेस्ट कैंसर होने का शक था। दरअसल, मालती की मां का निधन ब्रेस्ट कैंसर से हुआ था। जब वह अपनी मां के अंतिम संस्कार के लिए भारत आई तो उसका पति भी उसके साथ आया। उसने यहां 28 वर्षीय मालती का दो अस्पतालों में टेस्ट भी कराया लेकिन ब्रेस्ट कैंसर न होने की रिपोर्ट आने के बाद भी वह संतुष्ट नहीं हुआ। मालती का कहना है कि उसका पति उसे बताए बगैर ऑस्ट्रेलिया वापस लौट गया। इतना ही नहीं, उसने पत्नी का वीजा रद्द करवा दिया और उसका पासपोर्ट भी ले गया।
मानसिक शांति प्रदान करने को कैंसर मरीजों के लिए परामर्श सेवाएं देने वाले गैर सरकारी संगठनों का कहना है कि जैसे-जैसे युवा महिलाओं को ब्रेस्ट कैंसर होने के मामले बढ़ रहे हैं। पतियों के विछोह की वेदना झेलने वाली महिलाओं की भी संख्या तेजी से बढ़ रही है। मुंबई में ऐसी ही महिलाओं को मानसिक सहारा देने के लिए हेल्पलाइन संचालित करने वाले गैर सरकारी संगठन ‘आसरा’ के डायरेक्टर जॉनसन थॉमस का कहना है कि युवा महिलाओं में जैसे-जैसे इस बीमारी के मामले बढ़ रहे हैं, पतियों का सहारा छिन जाने वाली महिलाओं की संख्या भी बढ़ रही है।
हालांकि तलाक और पारिवारिक विवादों की वकालत करने वाली अधिवक्ता प्राची सिंह का कहना है कि ब्रेस्ट कैंसर या किसी भी बीमारी के आधार पर तलाक नहीं हो सकता है। सिर्फ मानसिक बीमारी शिजोफ्रेनिया से पीड़ित महिला से तलाक लिया जा सकता है, क्योंकि इस बीमारी में जीवनसाथी के साथ रहना मुश्किल होता है। बिना तलाक छोड़ने या इलाज न कराने से पीड़ित महिलाओं के बारे में उनका कहना है कि इलाज कराना पति की जिम्मेदारी है। अगर वह इलाज नहीं करवाता है और छोड़ देता है तो महिला मेंटीनेंस क्लेम का केस दायर कर सकती है।
भारत में युवतियों में बढ़ रहे मामले
भारत में युवा महिलाओं के बीच ब्रेस्ट कैंसर होने का अनुपात पश्चिमी देशों के मुकाबले बहुत ज्यादा है। पहले चरण में ही ब्रेस्ट कैंसर का पता होने पर इलाज आसान होता हैं लेकिन हमारे देश में पहले और दूसरे चरण में बहुत कम मामलों में कैंसर का पता चल पाता है। जबकि पश्चिमी देशों में ब्रेस्ट कैंसर के मामले ज्यादा होते हैं लेकिन मौतें कम होती हैं क्योंकि वहां पहली और दूसरी अवस्था में बीमारी का पता चलने पर सफलतापूर्वक इलाज हो जाता है। ‘इंटरनेशनल एजेंसी फॉर रिसर्च ऑन कैंसर’ की ताजा रिपोर्ट के अनुसार, 2018 के दौरान भारत समेत दक्षिण-पूर्व क्षेत्र में एक लाख महिलाओं में से 38.1 को ब्रेस्ट कैंसर होता है। इनमें से 14.1 की मौत हो जाती है। विकसित देशों की बात करें तो एक लाख महिलाओं में से 84.8 को ब्रेस्ट कैंसर होता है लेकिन 12.6 की ही मौत होती है। डॉ. देव का कहना है कि भारत में पहली और दूसरी अवस्था में ब्रेस्ट कैंसर का पता न चल पाने के कई कारण हैं। इनमें सबसे बड़ा कारण नियमित जांच न होना है। हमारे यहां पश्चिमी देशों की तरह हर साल चिकित्सा परीक्षण की कोई नियमित व्यवस्था नहीं है। डॉ. देव के अनुसार, एबीएसआइ ने भी पूरे देश में ब्रेस्ट कैंसर पर नियंत्रण के लिए पहल की है। एबीएसआइ तमाम शहरों में जाकर स्थानीय सर्जनों को ट्रेनिंग दे रही है। एसोसिएशन से जुड़े सदस्य डॉक्टर स्थानीय सर्जनों को ब्रेस्ट कैंसर और इसके इलाज के बारे में ताजा जानकारी और तकनीक के बारे में बताते हैं।
लेकिन कैंसर के बढ़ते खतरे से जूझना एक बात है लेकिन सामाजिक बहिष्कार तो वह अभिशाप है जिसके लिए समाज में जागरूकता फैलाकर ही काबू पाया जा सकता है। अगर यह जारी रहा और देश में जिस पैमाने पर ब्रेस्ट कैंसर के मामले बढ़ रहे हैं, उससे ब्रेस्ट कैंसर परित्यक्ताओं की भी नई और अभिशप्त जमात तैयार हो सकती है, जिससे कैंसर के खिलाफ लड़ाई और दर्दनाक हो उठेगी।