अमृता प्रीतम यानि रूहानी इश्क़, आज़ादी, अपनी शर्तों पर जीने वाली बेफिक्र फितरत की मिटटी से गढ़ी गयी एक निराली रूह, जिन्होंने अपनी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ में लिखा, ‘‘मेरी सारी रचनाएं, क्या कविता, क्या कहानी, क्या उपन्यास, सब एक नाजायज बच्चे की तरह हैं। मेरी दुनिया की हक़ीक़त ने मेरे मन के सपने से इश्क किया और उसके वर्जित मेल से ये रचनाएं पैदा हुईं। एक नाजायज बच्चे की किस्मत इनकी किस्मत है और इन्होंने सारी उम्र साहित्यिक समाज के माथे के बल भुगते हैं।’’अमृता ने ये भी लिखा, ‘‘मैं सारी ज़िंदगी जो भी सोचती और लिखती रही, वो सब देवताओं को जगाने की कोशिश थी, उन देवताओं को जो इंसान के भीतर सो गए हैं।’’
अतिशय भावुक अमृता भावनाओं और रिश्तों के बीच ख़ूबसूरत सामंजस्य स्थापित करती थीं, पर समाज की गलत रिवायतों के लिए क्षोभ, आक्रोश और अंतर्मन की पीड़ा उनकी रचनाओं में परिलक्षित हुयी। विद्रोही स्वभाव, बगावती तेवरों की वजह से अमृता अक्सर मुश्किल में पड़ीं पर ना विचलित हुयीं ना ख़ुद को लेशमात्र बदला। अमृता पंजाबी की प्रथम लेखिका थीं जिनके प्रशंसक देश-विदेश में थे। आज़ादख़्याल, खुद्दार अमृता आपादमस्तक प्रेम में सराबोर वो रूह थीं जिनके लिए लिखने का मतलब है ज्वलंत अग्नि को शब्दों में पिरोना, हवा को बांधना या चांदनी को हथेलियों में समोना। अमृता ने साबित किया कि इश्क़ और आज़ादी विरोधाभासी हैं मगर बंधनरहित, अपेक्षाओं से परे बेलौस मोहब्बत व्यापक है। अमृता ने प्रेम में शादीशुदा ज़िंदगी दांव पर लगा दी पर जब ख़बर मिली कि साहिर, गायिका सुधा मल्होत्रा पर फ़िदा हो चुके हैं तो अना और गुरूर कायम रखते हुए साहिर को फोन करके ना रोयीं, ना शिकवे किए ना उलाहने दिए। अमृता के लिए ये सदमा नर्वस ब्रेकडाउन की वजह बना जिससे वो बमुश्किल उबरीं।
अमृतालुभावनी, हसीन शख़्सियत थीं जोप्रशंसिकाओं के लिए रोल मॉडल थीं। हिंदी-पंजाबी भाषी ना होते हुए भी लड़कियां उनके तौर-तरीके, स्टाइल अपनातीं और उनकी आत्मकथा ''रसीदी टिकट'' सिरहाने रखकर सोतीं। अमृता का लेखन क्षेत्र विशेष या भाषा की सीमाओं के परे विस्तृत और व्यापक था। अमृता ऐसे परिवार में जन्मीं जहां धार्मिक आधार पर किस्मत तय होती थी, जहां विवाह सात जन्मों का बंधन था। ऐसे परिवार की होकर भी अमृता ने बेख़ौफ़ होकर ब्याह के बाद दो लोगों से प्यार किया जिनमें उनका असली आशिक़ मुसलमान था। अमृता बेहद प्रगतिशील और अपने समय से बहुत आगे की सोच रखती थीं। 16 साल की उम्र में अमृता का प्रीतम सिंह से ब्याह हुआ और विवाहोपरांत अमृता प्रीतम हो गयीं। पति से दो बच्चे होने के बावजूद जुड़ाव नहीं हो पाया और तलाक लेकर दोनों अलग हो गए। अनचाहे ब्याह से नाता तोड़, प्रेम करना आसान नहीं था मगर अमृता ने लीक पर चलने वाली आसान राह चुनी कब?
दिल्ली और लाहौर के बीच, प्रीत नगर में, 1944 में एक मुशायरे में शिरकत करने आये साहिर लुधियानवी पहली बार अमृता से मिले। साहिर साधारण शक्ल-सूरत के और अमृतादिलकश, बला की हसीन, दोनों को प्यार हो गया। साहिर से मुलाकात के बाद अमृता ने लिखा, 'अब रात गिरने लगी तो तू मिला है, तू भी उदास, चुप, शांत और अडोल। मैं भी उदास, चुप, शांत और अडोल। सिर्फ दूर बहते समुद्र में तूफान है।' अमृता और साहिर के जिस्म दूर, दिल करीब और रूह एक हो रही थी इसलिए सुर्ख और स्याह रोशनाई से कागज़ पर इश्क उकेरा जाने लगा। अमृता ख़तों में उन्हें ''मेरा शायर, मेरा महबूब, मेरा खुदा, मेरा देवता'' लिखतीं पर साहिर की मोहब्बत ख़ामोश थी क्योंकि वो मानते थे कि जिसे बयां करना पड़े वो इश्क़ नहीं। साहिर से मुलाकात के वक़्त अमृता विवाहित थीं पर खुश नहीं, इसलिए पति से अलग होने पर सबसे पहले साहिर को सूचित किया। अमृता के लिए साहिर ने नज़्में, गीत और ग़ज़लें लिखकर प्यार ज़ाहिर किया पर रूबरू कभी इज़हार नहीं किया, पर अमृता ने आत्मकथा में खुलकर साहिर से इश्क़ का इज़हार किया।
''रसीदी टिकट'' में अमृता ने लिखा, "जब हम मिलते तो जुबां ख़ामोश रहती, नैन बोलते थे। दोनों एकटक एक दूसरे को देखा करते। साहिर चेन स्मोकर होने के नाते लगातार सिगरेट पीता, सिगरेट जलाता, फिर आधी सिगरेट बुझाता, फिर नई सिगरेट जलाता। जब विदा लेता, कमरा सिगरेट की महक से भर जाता।'' साहिर का वापस जाना नाकाबिले-बर्दाश्त होने के कारण अमृता, साहिर के पीए सिगरेट के बचे टुकड़ों को पीतीं, उंगलियों में फंसी सिगरेट में साहिर की उंगलियां छूने का एहसास करतीं, इस तरह अमृता को सिगरेट की लत लगी।
बकौल फिल्मकार विनय शुक्ला, साहिर की ज़िंदगी में उनकी माँ सरदार बेगम का पूरा दखल था। साहिर के अब्बा, अम्मी को पीटते सोपति के अत्याचारों से तंग आकर अलग हो, उन्होंने अकेले साहिर की परवरिश की। साहिरको एहसास था कि माँ ने कितनी दिक्कतें झेलकर उन्हें पाला है इसलिए माँ के लिए दिल में प्यार, सम्मान और ज़िंदगी में माँ की बेहद अहमियत थी। साहिर को लगा कि अम्मी, अमृता को बहू के रूप में नहीं स्वीकारेंगी। माँ का मानना था कि तलाकशुदा हिंदू लड़की, वो भी कवयित्री, अच्छी बहू नहीं बन सकती। माँ की वजह से साहिर स्थायी रिश्ते में बंधने से घबराए। माँ के अलावा सिर्फ अमृता को साहिर की तवज्जो हासिल हुयी।
संगीतकार जयदेव ने विनय शुक्ला को किस्सा सुनाया कि साहिर के घर में जयदेव उनके साथ किसी गाने पर काम कर रहे थे। चाय के निशान वाला जूठा कप देख जयदेव ने साफ करने की पेशकश करते हुए कहा, ''ये कप कितना गंदा है, लाओ इसे साफ कर दूँ।'' तब साहिर ने उन्हें चेताया कि ''उस कप को छूना भी मत। जब आखिरी बार अमृता यहां आई थी तो उसने इसी कप में चाय पी थी।''
साहिर की जीवनी, ''साहिर: ए पीपल्स पोयट'' के लेखक अक्षय मनवानी ने लिखा है कि ''अमृता इकलौती महिला थीं जो साहिर को शादी के लिए मना सकती थीं।'' अमृता साहिर की माँ से मिलने आयीं, बाद में साहिर ने माँ से कहा, ''वो अमृता प्रीतम थी जो आप की बहू बन सकती थी।'' अक्षय लिखते हैं कि 1964 में अमृता, इमरोज़ के साथ साहिर से मिलने मुंबई पहुंचीं। अमृता को दूसरे मर्द के साथ देखकर साहिर ने लिखा, ‘‘महफ़िल से उठकर जाने वालों, तुम लोगों पर क्या इल्जाम, तुम आबाद घरों के वासी, मैं आवारा और बदनाम।’’ इनकी मोहब्बत को गुनाह माना गया मगर उनका रिश्ता बेहद पाक था जिसे दोनों ने ख़ामोशी से निभाया।
''वो अफ़्साना जिसे अंजाम तक लाना ना हो मुमकिन, उसे इक ख़ूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा'', साहिर ने अधूरे इश्क़ का हश्र दर्शाते शेर में ख़ुद की कहानी बयां कर दी जो शुरू हुयी पर ज़माने द्वारा खींची लकीरों के कारण मंजिल तक ना पहुंच कर अधजली सिगरेट, चाय के जूठे प्याले, चंद किस्सों, यादों और ढेर सारे खुतूत तक सिमट गयी। साहिर में या हिम्मत नहीं थी या उतना प्यार नहीं था पर अमृता के प्यार को एकतरफा कहना गलत नहीं। इस असफल मोहब्बत का ठीकरा साहिर की मां, अमृता के पिता और पति के सर फोड़ा गया पर अलग मजहब भी एक कारण हो सकता है। अमृता के अनुसार ख़ामोशी और भाषायी अंतर प्रमुख कारण था। अमृता की आत्मकथा से ज़ाहिर है कि वह कमजोर नहीं थीं। साहिर ने लिखा, ‘चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों’, पर अमृता के लिए अजनबी बनना निहायत मुश्किल था। अमृता ने साहिर को अंतिम चिट्ठी लिखी: ''मैंने टूट के प्यार किया तुमसे, क्या तुमने भी उतना किया मुझसे?'' जवाब में साहिर ने आख़िरी मुलाकात में ये पंक्तियां पढ़ीं: ''तुम चली जाओगी परछाइयां रह जाएंगी, कुछ ना कुछ इश्क की रानाइयां रह जाएंगी।''अमृता को बल्गारिया में २५ अक्टूबर, १९८० की रात फोन आया कि साहिर नहीं रहे तो नज़्म लिखी, ‘‘अज्ज आपणे दिल दरिया दे विच्च मैं आपणे फुल्ल प्रवाहे" और सोचा कि अपने हाथों दिल के दरिया में हड्डियां प्रवाहित की थीं, हड्डियां बदल कैसे गयीं? यह बुलावा मौत को लग गया कि हाथों को?’’
अमृता को नि:स्वार्थ, अपेक्षारहित, निश्छल, शाश्वत प्रेम चित्रकार इमरोज़ से मिला। अमृता को अपनी किताब 'आख़िरी ख़त' का कवर डिज़ाइन करवाना था, इमरोज़ ने कवर डिज़ाइन किया और अमृता को डिज़ाइन और चित्रकार दोनों भा गए। अमृता से मिलते ही इमरोज़ को इश्क़ हो गया।इमरोज़ ने तब अमृता का साथ दिया जब साहिर का अन्यत्र संबंध होने के बाद वो नितांत अकेली थीं। एक बार किसी दूसरे देश में भारत के स्वतंत्रता दिवस के दिन उन्होंने इमरोज़ को पत्र में लिखा, ‘इमुवा, अगर कोई इंसान किसी का स्वतंत्रता दिवस हो सकता है तो मेरे स्वतंत्रता दिवस तुम हो।’ अमृता के प्रति इमरोज़ के समर्पण की इंतेहा काबिले-गौर है। अमृता रात में लिखती थीं और लिखते समय चाय पीने की आदत थी इसलिए इमरोज़ रात के एक बजे चाय बनाते और चुपचाप उनके आगे रख देते पर वो लिखने में इतनी तल्लीन होतीं कि उनकी तरफ देखती भी नहीं और ये सिलसिला कई साल चला।
इमरोज़-अमृता की नज़दीकी दोस्त, उमा त्रिलोक के मुताबिक उनका इश्क़ रूहानी यानि प्लेटोनिक था जिसमें आज़ादी थी। एक ही छत के नीचे अलग कमरों में रहने, एक-दूसरे पर इतनी निर्भरता के बाद भी कोई शिकवा, अपेक्षा या दावा नहीं था। इमरोज़ को पता था कि अमृता, साहिर को बेपनाह प्यार करती हैं पर इस बारे में वो काफ़ी सहज थे। वर्ष 1985 में इमरोज़ को गुरुदत्त ने मुंबई बुलाया जो उन्हें साथ रखना चाहते थे। इमरोज़ के मुंबई जाते ही अमृता को बुख़ार आ गया। उधर इमरोज़ ने तय किया कि नौकरी नहीं करेंगे पर बताया नहीं कि वो अमृता के लिए वापस आ रहे थे। जब दिल्ली पहुंचे तो अमृता उनके कोच के बाहर खड़ी थीं और उन्हें देखते ही उनका बुख़ार उतर गया।
इश्क़ में स्त्री बेशक अमृता हो जाए पर इमरोज़ जैसा आशिक़ मिलना असंभव है। किसी पुरुष का हृदय इतना विशाल नहीं हो सकता कि वो जिसे चाहता हो, वो किसी और के इश्क़ में दीवानी हो, फिर भी बेलौस मोहब्बत में ज़िंदगी गुज़ार देना, इमरोज़ के ही वश की बात थी। इमरोज़ के स्कूटर पर पीछे बैठी ख़यालों में गुम अमृता उंगलियों से उनकी पीठ पर या पेंट-ब्रश से पीठ पर, साहिर का नाम उकेर देती थीं, पर इमरोज़ ने बुरा नहीं माना। अलबत्ता साहिर को इमरोज़ के अमृता के साथ रहने का पता चला, तो उन्होंने शेर लिखा: ''मुझे अपनी तन्हाइयों का कोई ग़म नहीं, तुमने किसी से मोहब्बत निबाह तो दी।''
इमरोज़ के साथ अमृता ने आख़िरी कई साल गुज़ारे। इमरोज़ अमृता की पेंटिंग बनाते और किताबों के कवर भी डिज़ाइन करते। इमरोज़ ने लिखा, ''कोई रिश्ता बांधने से नहीं बंधता। ना मैंने कभी अमृता से कहा कि मैं तुमसे प्यार करता हूँ ना कभी अमृता ने मुझसे।'' एक कविता में अमृता ने लिखा, ‘अजनबी तुम मुझे जिंदगी की शाम में क्यों मिले, मिलना था तो दोपहर में मिलते।’साथ रहने का निर्णय लेते समय अमृता ने इमरोज से कहा, ‘एक बार पूरी दुनिया घूम आओ, फिर भी मुझे चुनोगे तो मुझे कोई उज्र नहीं, मैं इंतजार करती मिलूंगी।’ इमरोज ने कमरे के सात चक्कर लगाकर कहा, ‘मैंने पूरी दुनिया घूम ली’, क्योंकि इमरोज की दुनिया तो अमृता थीं।
अमृता ने १९६६ में इमरोज़ के साथ बिना ब्याह किए, एक छत के नीचे रहकर लिव-इन जैसी परिपाटी की शुरुआत की जो क्रांतिकारी कदम था। समाज के ठेकेदारों के अनुसार उनका कदम युवा पीढ़ी के लिए पथभ्रष्ट करने वाला था जिसके लिए उनकी बेतरह जगहंसाई और आलोचना हुयी पर उनको इन बातों से फर्क नहीं पड़ा। साहिर और इमरोज़ से रिश्ते को अमृता ने ऐसे बयां किया, ‘साहिर मेरी जिन्दगी के लिए आसमान हैं और इमरोज़ मेरे घर की छत।’ अमृता जिस स्वप्नपुरुष की खोज में ताउम्र भटकती रहीं, इमरोज़ के रूप में जीवन की सांझ में उन्हें मिला। अमृता ने इमरोज़ के नाम अंतिम नज़्म ‘मैं तैनू फिर मिलांगी’ पंजाबी में लिखी।
अमृता राज्यसभा के लिए मनोनीत हुयीं तो दूतावासों की ओर से अक्सर आमंत्रित की जाती थीं। इमरोज़ कार में अमृता का इंतज़ार करते। लोगों को पता चला कि वो अमृता के दोस्त हैं तब उनका नाम भी कार्ड पर लिखा जाने लगा। अमृता संसद भवन के उद्घोषक से कहतीं कि इमरोज़ को बुला दो तो वो ड्राइवर समझ, आवाज़ लगाता, ''इमरोज़ ड्राइवर'' और इमरोज़ गाड़ी लेकर पहुंच जाते।
अमृता का आख़िरी वक़्त काफी दर्द और तकलीफ भरा रहा। उमा त्रिलोक लिखती हैं, ''इमरोज़ ने अमृता की सेवा करने में अपने को पूरी तरह झोंक दिया। उन दर्दमंद दिनों को अमृता के लिए ख़ूबसूरत बना दिया और उनकी बीमारी को उनके साथ सहा। वो बाद में शाकाहारी हो गयीं थीं। इमरोज़ बहुत प्यार से उनको खिलाते-पिलाते, नहलाते, कपड़े पहनाते, उनसे बातें करते, उन पर कविताएं लिखते, पसंद के फूल लेकर आते जबकि वो इस काबिल भी नहीं थीं कि उनका जवाब दे सकें।''
अमृता प्रीतम पहली महिला लेखिका थीं जिन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। इसके अलावा भारतीय ज्ञानपीठ, पद्म श्री, पद्म विभूषण, पंजाब रत्न सम्मान से सम्मानित अमृता प्रीतम ने 31 अक्टूबर 2005 को आख़िरी सांस ली लेकिन इमरोज़ के लिए अमृता, अब भी साथ हैं, उनके बिल्कुल क़रीब। इमरोज़ कहते हैं, ''उसने जिस्म छोड़ा है साथ नहीं। वो अब भी मिलती है कभी तारों की छांव में, कभी बादलों की छांव में, कभी किरणों की रोशनी में, कभी ख़्यालों के उजाले में। हम उसी तरह मिलकर चलते हैं चुपचाप, हमें चलते हुए देखकर फूल हमें बुला लेते हैं, हम फूलों के घेरे में बैठकर एक-दूसरे को अपना कलाम सुनाते हैं।''
(ये विचार लेखक के निजी हैं।)