गजब टैबलेट बजट! वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने बही-खाता को त्यागकर टैबलेट को थामा तो शायद कुछ नया दिखाने की भी राह चुन ली। बजट 2021 से ऐसा लगता है कि वित्त मंत्री बिना नाम लिए चर्वाक से होड़ लेने पर उतर आईं। चर्वाक की प्रसिद्ध उक्ति बारबार दोहराई जाती है कि कर्ज लो और घी पीयो। निर्मला जी की उक्ति लगती है कि बेचो और......। लेकिन ठहरिए, सही बात यह है कि उन्होंने ऐसा नहीं कहा, बल्कि विनिवेश, मौद्रीकरण जैसे जादुई शब्दों का इस्तेमाल किया, जिसका अर्थ शायद आपको ठीक-ठीक शब्दकोश भी न बता पाए। यह भी सही है कि इन शब्दों का पहली दफा इस्तेमाल भी नहीं हो रहा है। आखिर महामारी की आपदा में सरकारी कामकाज के लिए कहां से पैसे लाया जाएं। यह अलग बात है कि महामारी से पहले ही अर्थव्यवस्था हांफती हुई रकटने लगी थी और नौ तिमाहियों से लगातार गिरावट दर्ज कर रही थी। लॉकडाउन ने ऐसी हांफती अर्थव्यवस्था का चक्का ही बैठा दिया। तो, ऐसे दौर में क्या किया जा सकता है। प्रधानमंत्री तो पहले ही चुके हैं कि यह बजट पिछले साल के कई मिनी बजट का ही सिलसिला होगा।
शायद प्रधानमंत्री पहले संकेत दे चुके थे कि कोरोना के दौर में बैंकों के निजीकरण, बीमा खासकर भारतीय जीवन बीमा की हिस्सेदारी बेचने, हवाई अड्डों, राजमार्गों, बंदरगाहों की निलामी और सार्वजनिक उपक्रमों के विनेवेश की राह ही आगे बढ़ेगी। इस बार उस दिशा में कुछ तेज कदम बढ़ाए गए और गैस के पइपलाइन, बिजली वितरण कंपनियों के निजीकरण की गति तेज कर दी गई। बिजली के मामले में एक खास बात यह भी है कि बिजली से संबंधित एक विधेयक का मजमून जो तैयार किया गया है जिसमें सब्सिडी पर अंकुश की बात है, उसका विरोध किसान यूनियनें कर रही हैं और सरकार उसमें से किसानों को बरी करने का उनसे मुंहजबानी वादा कर चुकी है। लेकिन बजट की गति कुछ और ही कहती है।
फिर भी नाहक लोग उम्मीद लगाए बैठे थे कि आपदा और लॉकडाउन में जिन लोगों पर कड़ी मार पड़ी है, उन्हें कुछ राहत की बात इस बजट में होनी चाहिए। मसलन, रोजगार के मोर्चे पर कोई ठोस पहल, मध्य और निम्र मध्य वर्ग के लिए आयकर में कुछ छूट, कृषि क्षेत्र के लिए कुछ ऐसी घोषणाएं, जिनसे आंदोलनरत किसानों की भावनाएं कुछ सहलाई जा सकें। लेकिन ऐसा कुछ भी इस बजट में नहीं दिखता। रोजगार के मोर्चे पर तो इस बजट में पहली नजर में मनरेगा को लेकर कोई ऐलान भी नहीं दिखा, जिससे कोरोना के दौर में काफी गरीब मजदूरों को मदद मिली थी। किसानों के लिए सिर्फ यह गिना दिया गया कि गेंहू, धान वगैरह की सरकारी खरीद कैसे बढ़ गई है। हां, चुनावी राज्यों का जरूर बजट में ख्याल रखा गया। असम और बंगाल के चाय बागानों के मजदूरों के हक में कुछ घोषणाएं की गईं। असम बंगाल, केरल, तमिलनाडु में कुछ हजार किमी. हाइवे निर्माण का प्रस्ताव किया गया और तमिलनाडु में मछुआरों के हक में भी कुछ ऐलान हैं।
लेकिन वेतनभोगी वर्ग के जिम्मे कुछ खास नहीं आया। आयकर छूट की सीमा नहीं बढ़ी, बस किफायती घर खरीदने वालों के लिए कर्ज पर रियायतों को एक साल आगे बढ़ा दिया गया। हां, 75 वर्ष से ऊपर के बुजुर्गों को आयकर रिटर्न भरने से छूट मिली, आयकर से नहीं क्योंकि वह बैंक या वित्तीय संस्थान ही काट लिया करेंगे। वैसे, उच्च आयवर्ग और कॉरपोरेट को कुछ डिविडेंड वगैरह में जरूर छूट मिली और यह भी कि अब 3 साल से पीछे के कर वंचना की पड़ताल नहीं होगी, बशर्तें सालाना आय 50 लाख रु. से अधिक न हो। इन रियायतों पर जानकारों में मतभेद है कि कितने लोगों को इसका फायदा मिलेगा। मसलन, कुछ के मुताबिक 75 वर्ष के अधिक उम्र के लोगों को रिटर्न भरने से छूट बमुश्किल सिर्फ 10,000 लोगों को राहत देगी।
शिक्षा और स्वास्थ्य के मद में भी कुछ छोटी-मोटी घोषणाएं हैं। एक तो यही कि 100 सैनिक स्कूल पीपीपी मॉडल से बनाए जाएंगे, जिसमें पहली दफा एनजीओ की सहभागिता ली जाएगा। कुछ लोगों को एनजीओ में खास राजनीति की गंध भी आ सकती है। हालांकि दिलचस्प यह भी देखना होगा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े जो संगठन बैंक, बीमा वगैरह के निजीकरण और खासकर उनमें विदेशी पूंजी की आमद का विरोध करते रहे हैं, अब उनकी प्रतिक्रिया क्या होती है। बीमा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाकर 74 फीसदी कर दी गई है।
बहरहाल, निर्मला जी के इस बजट में एक बात की सराहना तो की ही जानी चाहिए कि उन्होंने राजकोषीय घाटे को काफी उदारतापूर्वक स्वीकार किया है। सरकारी खर्च बढऩे में इसका कितना योगदान होता है, यह देखना होगा। हालांकि उनके जीडीपी के 6.5 फीसद से ज्यादा के राजकोषीय घाटे के अनुमान को भी कुछ अर्थशास्त्री कमतर मानते हैं। उनके हिसाब से यह 10 फीसदी तक हो सकता है। तो, बजट का संदेश साफ है कि राजस्व उगाही का बड़ा तरीका घर का सामान बेचो और कर्ज उठाओ ही रह गया है। वैसे, देखना यह भी है कि इस बार विनिवेश से जो 1 लाख 76 हजार करोड़ रु. का जो लक्ष्य रखा गया है, वह कितना सार्थक हो पाता है, क्योंकि पिछले बार 2 लाख करोड़ रु. के लक्ष्य में सिर्फ 14,000 करोड़ रु. के आसपास ही जुटाए जा सके। अंत में, गौरतलब यह भी है कि बहुत सारे ऐलानों की अवधि पांच साल की है जबकि बजट का लक्ष्य अमूमन साल भर का ही होता है। तो, इस बजट को क्या कहेंगे!