''प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी से मैं आग्रह करूंगा कि आइए इन आंकड़ों को गले लगाइए, स्वागत करिए नए भारत, समावेशी भारत के निर्माण में''
राष्ट्रीय जनता दल के राज्यसभा सदस्य तथा दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मनोज झा विपक्ष खेमे में सबसे संजीदा आवाजों में है। बिहार के जातिगत सर्वेक्षण, उसके राष्ट्रीय असर और विपक्ष की चुनावी चुनौतियों पर हरिमोहन मिश्र ने उनसे विस्तृत बातचीत की। प्रमुख अंश:
अगला कदम क्या होगा? क्या राज्य सरकार नतीजों के मुताबिक नीतियां बनाएगी? इन आंकड़ों का सरकार क्या करने जा रही है?
सबसे पहले जानना होगा कि ऐतिहासिक नाइंसाफी हो गई थी, 1931 के बाद देश में जाति जनगणना नहीं हुई। जाति जनगणना की कोशिश शुरू हुई थी लालू जी के समय से। इधर नीतीश जी और तेजस्वी जी की तमाम कोशिश के बावजूद इसमें कई तरह की रुकावट डाली गईं। विधानसभा में प्रस्ताव पास करने, सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के साथ प्रधानमंत्री से मिलने के बाद भी आखिर तक रुकावटें जारी रहीं। आखिर में सुप्रीम कोर्ट में एडवोकेट जनरल तुषार मेहता खुद खड़े हो गए और 28 अगस्त को दो हलफनामे दिए। पहले हलफनामे में कहा कि किसी भी राज्य सरकार को जनगणना या ऐसी कोई भी कवायद करने का अधिकार ही नहीं है। बवेला मचा तो दूसरा हलफनामा उसी दिन शाम चार-पांच बजे आया कि पहले हलफनामे में पांचवा पैराग्राफ गलती से डल गया था। मैं यह पृष्ठभूमि इसलिए बता रहा हूं कि तमाम रोड ब्लॉक के बावजूद यह संभव हुआ। जब यह आंकड़े सार्वजनिक जीवन में आ जाते हैं तो इन आंकड़ों की ओर से कोई नहीं बोलेगा, ये आंकड़े खुद बोलेंगे। हिस्सेदारी और भागीदारी तय करने के लिए ये आंकड़े आए हैं। ये आंकड़े अपनी अवस्थिति देखेंगे और उसके आलोक में समकालीन सरकारों से क्या मांग की जानी चाहिए, वह हुआ करेगी। मैं समझता हूं कि एक तरह की सिनर्जी आंकड़ों और सरकार के बीच होगी। इस सिनर्जी के बाद पूरे देश में भी यह उभार हो रहा है कि इस तरह का जातिगत सर्वेक्षण या जनगणना अखिल भारतीय स्तर पर हो, ताकि लोगों की लंबित मांगों का निबटारा हो सके और विकास चेहरों के साथ, इन समुदायों की भागीदारी के साथ हो।
बिहार सरकार इसके आधार पर क्या कदम उठाएगी? वहां सरकारी नौकरियों में क्या इसी आधार पर आरक्षण तय किया जाएगा?
देखिए, बिहार सरकार की ओर से बोलना मेरे लिए उचित नहीं होगा। ये आंकड़े ड्रॉइंग रूम में रखने या एक्वेरियम के लिए नहीं आए हैं। इनके पीछे की हकीकत डेढ़ महीने में पता चल जाएगी, जो सामाजिक-आर्थिक चेहरे को भी उजागर करेगी। इन आंकड़ों के बाद आरक्षण, सरकारी कार्यक्रम, खासकर लक्षित योजनाएं तथा कार्यक्रमों की आप शृंखला देखेंगे। ऐसी उम्मीद मुझे है और ऐसी संभावनाएं मैं देख रहा हूं।
इन आंकड़ों की कुछ आलोचनाएं भी हो रही हैं। एक, सवर्णों की संख्या कम दिखाई गई है। दूसरे, रोहिणी आयोग के सदस्य प्रो. बजाज का कहना है कि इन आंकड़ों से ओबीसी 46 फीसदी बैठते हैं, जबकि मंडल आयोग की गणना के हिसाब से 44 फीसदी थे, लेकिन मौजूदा सर्वे में 17 फीसद मुसलमान जातियों को जोड़ा गया है जबकि मंडल आयोग ने 8 फीसदी जोड़ा था इसलिए आंकड़े बढ़े हुए दिख रहे हैं। आपका क्या कहना है?
दरअसल हमारा समाज मिथकों में जी रहा था। मिथकों में जीने वाले समाज को जब यर्थाथबोध होता है तो वह थोड़ा असहज होता है। उसका नतीजा होता है कि क्रिटिकल रियल्टी से सामना होता है। मैं व्यक्तिगत तौर पर इसमें ऊपर से लेकर नीचे तक शामिल अधिकारियों को जानता हूं। यह सर्वेक्षण बहुत डिटेल में किया गया है। किसी भी आंकड़े में प्लस-माइनस 0.5 से ज्यादा फर्क नहीं होता है। अगर आप चुनाव के सैंपल सर्वे देखें तो उसमें भी 0.5 का फर्क हो सकता है। अब 1931 की जनगणना किसी को मिले तो उसके आधार पर चीजों को देख ले। महत्वपूर्ण सवाल यह है कि जो भी समुदाय असहज है, वह मिथक में जी रहा था। एक बात और जान लीजिए कि अमूमन कुछ समुदाय चौक-चौराहे, शादी-ब्याह, मंदिर, कीर्तन, चुनाव वगैरह में ज्यादा विजिबल होते हैं, चाहे उनकी संख्या कम हो। वे उसे ही यथार्थ मान लेते हैं। इसलिए मेरा मानना है कि ऐसी बातें बेमानी हैं। कोई भी सरकार जब ऐसी कवायद करती है तो सारे लूप होल्स को पहले से चेक करके करती है। मैं रोहिणी आयोग के बारे में क्या कहूं, उसका तो गठन ही गलत था। वजह यह है कि आप उप-वर्गीकरण बिना जातिगत आंकड़ों के कर ही नहीं सकते हैं। आपके पास समकालीन आंकड़े ही नहीं हैं, लेकिन आप वर्गीकरण कर रहे हैं। तो, अंग्रेजी में जो कहावत है कि ‘पुटिंग द कार्ट बिफोर द हॉर्स’ (घोड़े के आगे गाड़ी को बांधने), यह उस तरह की बात है।
चुनावी संभावनाओं के मद्देनजर यह किया गया?
नहीं, यह बताइए कि 2010-11 में क्या कोई चुनाव था, जब लालू जी, शरद जी और मुलायम सिंह जी ने यूपीए सरकार से आग्रह किया और सामजिक-आर्थिक तथा जाति जनगणना हुई। जब नतीजे आने का समय हुआ तो मोदी जी आ गए। उनकी सरकार ने कह दिया कि डेटा करप्ट हो गया है, यह ठीक नहीं हो सकता। कल मैं प्रधानमंत्री को सुन रहा था। वह फिर हिंदू बनाम मुसलमान करने लगे हैं। मैं उनसे आग्रह करूंगा कि क्या आपको ऐसा हिंदू समाज नहीं चाहिए, जिसमें सीवर में उतरने वाले की एक ही जाति न हो; क्या आपको ऐसा हिंदू समाज नहीं चाहिए, जिसमें विश्वविद्यालयों में नौकरी सिर्फ इसलिए न मिले कि ‘नन फाउंड सुटेबल’ कह दिया जाए क्योंकि आप अनुसूचित जाति-जनजाति या अति पिछड़े समाज से आते हैं; क्या आपको ऐसा हिंदू समाज नहीं चाहिए, जिसमें पूजा पद्धति में किसी के लिए कोई व्यवधान न हो, किसी को रोका न जाए; क्या आपको ऐसा हिंदू समाज नहीं चाहिए जो पाखंड के चक्कर में रेशनल डिसकोर्स प्रगतिशील धारा न भूल जाए। आज देश को ऐसा हिंदू चाहिए जो प्रगतिशील हो, प्रतिगामी न हो। प्रधानमंत्री चाहते हैं कि समाज उलटे पांव की यात्रा करे और ये आंकड़े चाहते हैं कि हिंदू समाज आगे की यात्रा आंख खोलकर करे।
नरेंद्र मोदी की भाजपा के दौर में यह चुनावी गणित तो दिखता है क्योंकि भाजपा ने आपके मंडल फॉर्मेशन की बहुत सारी जातियों या उनके मतदाताओं की बड़ी संख्या को अपने पक्ष में कर लिया है। उसे 2014 और 2019 में उनके वोट भी मिले। तो, क्या यह पहल उन ओबीसी समुदायों को अपनी ओर वापस लाने की है?
मैं ईमानदारी से बता रहा हूं कि अगर उसके लिए यह किया गया है तो इन आंकड़ों को तुच्छ करता हूं, इन आंकड़ों के पीछे के जिंदा लोगों को कमतर आंकता है। अब प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी से मैं आग्रह करूंगा कि आइए इन आंकड़ों को गले लगाइए, स्वागत करिए नए भारत, समावेशी भारत के निर्माण में। आपको इन आंकड़ों से डरना नहीं चाहिए। जो भी इन आंकड़ों से डर रहा है, असहज हो रहा है, वह हिंदुस्तान की हकीकत को स्वीकार नहीं करना चाहता, वह मिथकों में जीना चाहता है, वह चाहता है कि मध्ययुगीन मान्यताएं बरकरार रहें।
इस साल पांच राज्यों के चुनाव और 2024 में लोकसभा चुनाव में इसका क्या फर्क देखते हैं?
अगर प्रधानमंत्री के फेवरिट टॉपिक हिंदू बनाम मुसलमान पर भी बात करें न, तो हिंदू अधिकार के दृष्टिकोण से आगे का रास्ता देखेंगे, वे मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारे को ध्यान में रखकर वोट नहीं करेंगे।
मतलब कि चुनाव में इसका फर्क दिखेगा...
अगर फर्क नहीं दिखेगा तो जिंदा लोगों के इन आंकड़ों को हम किस तरह से देख रहे हैं। ये आंकड़े तो भाजपा के अंदर भी दिखाए जाएंगे न।
भाजपा के कई नेता भी जाति जनगणना की मांग कर रहे हैं...
बिलकुल, कई लोगों ने मुझे भी फोन किया कि हम लोगों को दबाया जाता था कि आंकड़े तुम्हारे कम हैं। अब सब कागज लेकर जाएंगे।
भाजपा क्यों नहीं चाहती जाति जनगणना?
मेरा सीधा मानना है कि भाजपा का मूल चरित्र सामाजिक न्याय के विरोध का है। उसने मंडल आयोग का भी विरोध किया था। आपके मुताबिक प्रधानमंत्री जो 2014 और 2019 में वोट ले गए, तो वे प्रतीकात्मकता में वोट ले गए। आप गला काटने की नीति बनाइए, लेकिन उसका पांव धो दीजिए। इसे पॉलिटिक्स में सिंबालिज्म कहा जाता है।
लेकिन वेलफेयरिज्म के जरिए भी तो किया गया है?
जिसे वेलफेयरिज्म कहते हैं, वह हमारे संविधान में है। वे जो कर रहे हैं, वह वेलफेयरिज्म नहीं है, उसे हम चैरिटी कहते हैं। वह राजतंत्र का मॉडल है। भाजपा और मीडिया के प्लेटफॉर्म पर लिखा यह जाता है कि मोदी जी ने सौगात दी, सौगात क्या अपने घर से निकालकर दी। यह जनता की तिजोरी है। एक-एक पैसा उसका भरता है। मैंने सदन में भी कहा था कि गांव का कोई गरीब माचिस की डिब्बी खरीदता है तो वह टैक्स पेयर है। आंबेडकर के शब्दों में ‘वन मैन, वन वोट, वन वैल्यू’ की हकीकत को अगर नहीं समझते हैं तो मोदी जी के अंदर बादशाहों वाले तत्व हैं। उनका रहन-सहन, मन-मिजाज सब राजा-महाराजा का है।
कहा जा रहा है कि मोदी सरकार ने योजनाओं का लाभ सीधे और सटीक तरीके से पहुंचाकर एक लाभार्थी वर्ग तैयार किया है, जिससे उसे लाभ मिल रहा है और इसी के जरिए वह आपके जाति जनगणना का मुकाबला कर लेगी।
सोचिए, लाभार्थी शब्द में किस चीज की बू आती है। सामने वाले की कोई हैसियत ही नहीं है। नागरिक लाभार्थी नहीं, स्टेकहोल्डर होता है। दोनों में फर्क है।
क्या इससे भाजापा ओबीसी जातियों को गोलबंद होने से रोक पाएगी?
यह आंकड़ा अपनी जुबान बोलेगा, अपने हक मांगेगा हर दल में, हर संस्था में, हर संगठन में। इसके लिए अब किसी को बोलने की जरूरत नहीं है। हर दल, संस्थान को इन आंकड़ों के साथ संवाद करना चाहिए।
कहा यह भी जा रहा है कि इन आंकड़ों की परीक्षा राजस्थान, छत्तीसगढ़, राजस्थान वगैरह के चुनावों में भी होने जा रही है?
नहीं, ये आंकड़े तो बिहार के हैं। बिहार के आंकड़ों की परीक्षा बिहार में होगी, लेकिन आंकड़ों की मांग पूरे देश में हो रही है, इस बात का असर हो सकता है। हो सकता है कि बिहार के आंकड़े देश की शत प्रतिशत या नब्बे प्रतिशत हकीकत हों।
तृणमूल कांग्रेस जाति जनगणना का क्यों विरोध कर रही है?
उस दल के बारे में कोई टिप्पणी नहीं करूंगा लेकिन मैं बंगाल का छात्र रहा हूं। बंगाल में एक भद्रलोक पॉलिटिक्स रही है, चाहे वह कांग्रेस का शासनकाल हो या कम्युनिस्टों का हो या फिर तृणमूल का। जाति को लेकर वहां कई तरह के विरोधाभास और विसंगतियां हैं। हालांकि भाजपा वहां जाति कार्ड खेलती है, खासकर उत्तर बंगाल में इलाके में राजवंशी और मटुआ पॉलिटिक्स भाजपा की उसी दिशा में है। इस पर बेहतर टिप्पणी टीएमसी के लोग करेंगे। लेकिन मेरा मानना है कि अंतत: हम सब लोग एक साथ होंगे, जो थोड़े-बहुत मतभेद होंगे, वे दूर कर लिए जाएंगे।
इसी वजह से गिरफ्तारियों का सिलसिला शुरू हुआ है?
वह तो साफ दिखता है। 2 अक्टूबर को जाति सर्वेक्षण की रिपोर्ट आई, 3 तारीख को न्यूजक्लिक और पत्रकारों पर दबिश हुई, 4 को संजय भाई (आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह) को गिरफ्तार किया। और अभी न जाने कितने भाई, कितनी बहनें जाएंगी जेल में।