“इरफान को मैं उसी तरह याद कर रहा हूं जैसे कोई अपने दिल के सबसे करीबी को याद करता है। जिस तरह के किरदार वो पर्दे पर निभाते थे, निजी जिन्दगी में बिल्कुल अलग थे। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (एनएसडी) में तीन साल हम दोनों साथ रहे। उसके बाद करीब 20 मंचों पर हमने नाटक किया। कभी वो नाटक के सबसे अहले किरदार को निभाते थे तो कभी मैं। लेकिन, हम दोनों में कभी प्रतिस्पर्धा नहीं हुई।” जाने-माने थिएटर आर्टिस्ट आलोक चटर्जी इरफान खान के निधन के बाद एनएसडी में बिताए अपने तीन साल के समय को याद करते हुए भावुक हो जाते हैं। महज तीन दिन पहले इरफान की मां सईदा बेगम का निधन जयपुर में हो गया था लेकिन लॉकडाउन की वजह से वो अपने मां के अंतिम दर्शन के लिए नहीं पहुंच पाए।
'लॉकडाउन की वजह से उनके अंतिम दर्शन नहीं कर पाया'
लॉकडाउन की वजह से वो अपनी मां के अंतिम संस्कार में नहीं जा पाए और आज हमलोग नहीं जा पा रहे हैं। इस दर्द को आसुंओं के जरिए भी नहीं बयां किया जा सकता है। इरफान की मां से भी मैं रंगमंच के दौरान ही मिला था। एनएसडी में तीन साल तक एक साथ खाना-पीना, उठना बैठना, यहां तक कि हॉस्टल में भी हम दोनों साथ थे। आज भी उनसे काफी लगाव था। जब भी मैं मुंबई जाता था तो उनसे जरूर मिलता था। जो मंजिल उन्होंने पाई वो उन्हें आसानी से नहीं मिली। इसके लिए उन्होंने काफी संघर्ष किया। लगातार पांच साल तक इरफान ने रंगमंच किया। उसके बाद टेलीविजन में काम किया। दस साल बाद उन्हें सिनेमा में जगह मिली। और उसके बाद अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उन्होंने अपनी एक अलग पहचान बनाई।
'अपने स्टाइल का एक्टर बनूंगा'
एनएसडी के दिनों में ही वह कहा करता था कि आलोक मैं अपने स्टाइल का एक्टर बनूंगा। अपने अंदाज में ही अभिनय करूंगा, जिसे पंसद कर डायरेक्टर और प्रोड्यूसर खुद आएंगे और इरफान ने वो कर दिखाया। जब 1988 में उनकी पहली फिल्म "सलाम बॉम्बे" आई थी तो मैं भी अपने काम के सिलसिले में काफी बाहर ही रहता था। इसलिए मैंने वो फिल्म कुछ साल बाद देखी थी। सलाम बॉम्बे से पहले उन्होंने डिस्कवरी ऑफ इंडिया में हवलदार का किरदार निभाया था जो काफी चर्चित रहा। चंद्रकांता और चाणक्य में भी उन्होंने अभिनय कर अमिट छाप छोड़ी और अपने संघर्ष की बदौलत वो आगे बढ़ते चले गए।
'इरफान के इश्क का इजहार मैने सुतापा को बताया था'
इसलिए मैंने जैसा उन्हें जाना कि वो ऐसे आदमी थे कि अपने काम और संघर्ष के लिए किसी भी हद तक जा सकते थे। पर्दे पर इरफान जितने गंभीर होकर बोलते थे, वैसे वो वास्तविक जिन्दगी में नहीं थे। वो किसी के जब नजदीक आते थे तो फिर पूरी तरह से मिल जाते थे। एनएसडी के दिनों में ही इरफान ने सुतापा सिकदर को पसंद किया था। और मैंने ही सुतापा को बताया था कि इरफान उससे प्यार करता है। इरफान ये इजहार करने में डरते थे। क्योंकि वो दूसरे समुदाय से आते थे और सुतापा बंगाली थी। अचानक एक दिन उन्होंने मुझसे बोला कि मैं सुतापा को पसंद करता हूं, क्योंकि मैं भी बंगाली हूं। फिर मैंने सुतापा को बताया।
इरफान को खोना हीरे में नगीने को खोने जैसा
इरफान को खोना हीरे में नगीने को खोने जैसा है, जो हमने आज खो दिया। उन्होंने जीवन कितना जिया यह महत्वपूर्ण नहीं है, सार्थक कितना जिया यह महत्वपूर्ण है और इरफान ने वो किया।
(आलोक चटर्जी ने जैसा नीरज झा को बताया)