अखिलेश यादव पिछली बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे, तब एक चुटकुला चलता था कि राज्य साढ़े तीन मुख्यमंत्री चलाते हैं जिनमें अखिलेश सिर्फ आधी हैसियत वाले हैं। इस चुटकुले पर उनका जबाब था कि साढ़े तीन क्यों, मैं तो साढ़े सात लोगों में आधा हूं। यह माना जाता था कि तब खुद मुलायम सिंह की इच्छा मुख्यमंत्री बनने की थी, लेकिन अखिलेश ने कुछ बाहुबली नेताओं की पार्टी में इंट्री रोककर अपने पक्ष में ऐसी हवा बना ली थी कि मुलायम भी मन मसोसकर रह गए और शिवपाल, रामगोपाल या आजम खां जैसे लोग तो गिनती कराने लायक भर रह गए। बाद में शिवपाल अलग पार्टी बनाकर किनारे हो गए। उस हिसाब से देखें तो इस चुनाव में अखिलेश ने बहुत अच्छी लडाई लड़ी। भाजपा की विशाल फौज और अपार संसाधनों के मुकाबले अपनी पार्टी को काफी मजबूती से उभार लाए। लेकिन केन्द्र तथा राज्य सरकार से जो असंतोष था, अखिलेश को लेकर जो आम उत्साह और खास तौर से नौजवानों में जोश दिखा वह स्वाभाविक परिणाम तक नहीं पहुंचा। भाजपा के कुशल मैनेजरों ने जायज-नाजायज तरीकों से जीत हासिल की।
अखिलेश की पराजय का सूत्र भी इसी साढ़े तीन या साढ़े सात बनाम एक नेता में लगता है। अगर मुलायम के समय पार्टी एक परिवार वाली बताई जाती है तो उनके सहयोगी दिग्गजों की भी पूरी पांत थी जो वैसे ही नहीं आ जाती। वह व्यवहार से, राजनैतिक संघर्ष से, विचारों के चलते और सबसे बढ़कर सम्भावित सत्त्ता के साथ पार्टी के कामकाज में भी ज्यादा से ज्यादा लोगों/समूहों को भागीदारी देने से बनती है। अखिलेश के आसपास नजर डालेंगे तो ऐसा एक भी सहयोगी या साथी दिखाई नहीं देगा। इस चुनाव में जो कोई भी अखिलेश के साथ गठजोड़ करने आया उनके काफी सारे उम्मीदवारों को सपा के चुनाव चिह्न पर लड़ाने का दांव खेला गया। भाजपा का चुनाव प्रबंधन तो बेमिसाल था। हर बूथ के प्रबंधन से लेकर छोटी-छोटी बातों (जिनमें कई को हम बेइमानी की श्रेणी में भी डाल सकते हैं) से लेकर मुद्दों और रणनीति में क्षेत्र और समय के अनुसार बदलाव और नरेंद्र मोदी समेत सब वजनदार लोगों को मैदान में लगाकर कारपेट बाम्बिंग करना इस प्रबंधन का कमाल था। इसके सूत्रधार खुद नरेंद्र मोदी थे और संघ से लेकर भाजपा के हर वर्ग का अनुशासित सहयोग उन्हें मिला।
दूसरी तरफ साढ़े चार साल क्लास से नदारद रहकर परीक्षा के समय कुंजियों के भरोसे परीक्षा में अव्वल आने की अखिलेश की रणनीति ने भले ही उनके वोट प्रतिशत में अपूर्व वृद्धि की, उनके विधायकों की संख्या तीन गुनी कर दी लेकिन इस तरीके की सीमा भी बता दी। अखिलेश के पक्ष में जिस तरह का उत्साह और शासन से नाराजगी का जुनून दिखता था, वह वोट में न बदला हो यह नहीं कहा जा सकता। इसी चीज ने भाजपा से ज्यादा बसपा और कांग्रेस का लगभग सफाया कर दिया, लेकिन यह मोदी और योगी के प्रबंधन और पर्सनालिटी के जादू से पार न पा सका। सीएसडीएस के पोस्ट-पोल सर्वे के आंकड़े बताते हैं कि अखिलेश को मुसलमानों और अहीरों का वोट मुलायम वाले दौर की सपा से भी ज्यादा मिला, उन्होंने एक बार कई नेताओं का दलबदल कराके गैर-यादव पिछड़ों का समर्थन न मिलने का मिथ तोड़ने की कोशिश की, लेकिन वे भूल गए कि मुलायम के दौर में सपा में दिग्गज अगड़ा और दलित समेत सभी जातियों के जनाधार वाले नेता थे। उन्होंने यादव-मुसलमान गठजोड़ से जितना बड़ा वोटबैंक तैयार किया, उसकी प्रतिक्रिया में अकेले अगड़ों का उससे ज्यादा बड़ा आधार भाजपा के पास बना रहा। हर किसी को दिख रहा था कि मायावती कुछ ज्ञात-अज्ञात कारणों से यह चुनाव ‘गंवाने’ और बसपा के वजूद को ही दांव पर लगा रही हैं, लेकिन अखिलेश ने दलितों की इस जमात को अपनी ओर खींचने की कोशिश नहीं की।
सपा को अपने इतिहास से भी नुकसान हुआ। अपराध से मुलायम की पार्टी का जो रिश्ता था वह अखिलेश की पार्टी का नहीं है, लेकिन अखिलेश यह बता-जता न सके। उनकी पिछली जीत में सपा में अपराधियों की इंट्री रोकने से बनी हवा का बहुत योगदान था, यह बात वे भूल गए। उन्होंने मुलायम या एक दौर की बसपा की तरह ढूंढ-ढूंढकर अपराधियों को टिकट नहीं दिया, लेकिन एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार उनके गठबंधन से अपराधी उम्मीदवारों का अनुपात भाजपा गठबंधन से ज्यादा रहा। अखिलेश अपनी पिछली सरकार की उपलब्धियों को भी मुद्दा बनाने से चूके। महिला सुरक्षा और छात्रों को लैपटाप देने से लेकर अनेक ऐसे मसले थे जिसमें सपा सरकार का रिकार्ड भाजपा से बेहतर था। लेकिन अखिलेश सिर्फ योगी सरकार के कामकाज पर चोट करते रहे।
पर इस चुनाव से जो हासिल हुआ वह भी कम नहीं है। जरूरत है नजरिया बदलने की, जनता के मुद्दे लेकर सड़क पर उतरने की, संगठन पर ध्यान देने की। भाजपा और संघ से मुकाबला करना हो तो प्रबंधक न हो तब भी काम चलेगा, लेकिन वैचारिक प्रशिक्षण न हो तो काम नहीं चलेगा।