Advertisement

स्मृति शेष : महामहोपाध्याय आचार्य डॉ. कमलेशदत्त त्रिपाठी की अनुपस्थिति का अर्थ

काशी की वैदुष्य परंपरा के शिखर आचार्य महामहोपाध्याय डॉ. कमलेशदत्त त्रिपाठी (4 अगस्त, 1938-3 दिसंबर, 2023) शिव...
स्मृति शेष : महामहोपाध्याय आचार्य  डॉ. कमलेशदत्त त्रिपाठी की अनुपस्थिति का अर्थ

काशी की वैदुष्य परंपरा के शिखर आचार्य महामहोपाध्याय डॉ. कमलेशदत्त त्रिपाठी (4 अगस्त, 1938-3 दिसंबर, 2023) शिव सायुज्य को प्राप्त हो गए। मध्यप्रदेश के दतिया में अपने छोटे पुत्र परिजात त्रिपाठी के घर उनका निधन हुआ। काशी में चार दिसंबर को हरिश्चंद्र घाट पर परिजनों व विद्वत समाज, लेखक-बुद्धिधर्मियों की शोकाकुल उपस्थिति में उनका नश्वर शरीर पंचतत्व में विलीन हो गया। 

तीर्थराज प्रयागराज में उनका जन्म हुआ और काशी उनकी कर्मभूमि रही। उनके चरणों में बैठकर उनके चिंतन और स्मृतियों को लिपिबद्ध करने और उनके रहते ही अधिकृत प्रामाणिक जीवनी लिखने की मेरी इच्छा पूरी नहीं हो पाई! 

डॉ. देवब्रत चौबे जी (पूर्व प्रोफेसर, दर्शन एवं धर्म विभाग, बीएचयू) के संग बहुत अर्से बाद श्रद्धेय त्रिपाठी जी का दर्शन करने गया था। यह 29 जुलाई, 2022 की बात है। लंबे समय से वह स्वास्थ्य परेशानियों से जूझ रहे थे। 

उनके स्वास्थ्य का ख्याल रखते हुए हम बस तनिक दर्शन, बातचीत के लिए गए थे। स्वास्थ्य कारणों से संकोच भी हो रहा था कि उन्हें हमारे कारण कोई कष्ट न हो! उन्हें निकट से बैठकर सुनने की इच्छा लंबे समय से थी। बनारस छुटने के बाद उनके प्रत्यक्ष दर्शन और बातचीत से मैं वंचित रह गया था। मुझे उनका औपचारिक विद्यार्थी होने का सौभाग्य हासिल न था। लेकिन पत्रकारिता पढ़ते हुए और 'स्वान्तः सुखाय' पत्रकारिता-लेखन करते हुए उनके प्रायः हर व्याख्यान और जिन कार्यक्रमों में उनकी उपस्थिति रहती थी , उन्हें सुनने जाता था। सरस बोलते थे। बहुत संदर्भ के साथ बोलते थे। उनके व्याख्यान या छोटे से वक्तव्य में भी चिंतन-विचार की पर्याप्त सामग्री होती थी। साहित्य, दर्शन, कला और विविध ज्ञानानुशासनों से संबंधित विपुल संदर्भ-विचार से लैस विशिष्ट प्रातिभ आचार्य थे।

आदरणीय डॉ. चौबे जी साथ थे तो मुझे आश्वस्ति थी कि सहजता से मिलना हो जाएगा। वाराणसी के प्रज्ञापुरम कॉलोनी, सुसुवाही के अपने आवास में उस समय वह निपट अकेले थे। उनके सहयोगी विशाल भी उस दिन किन्हीं कार्यवश वहाँ नहीं थे। प्रो. त्रिपाठी जी से मिलना हुआ। उनके कुशल क्षेम की जानकारी लेने के बाद अतिशय संकोच में हम वहाँ से थोड़ी ही देर बाद निकल जाना चाहते थे। पर, जब वे खुले तो लंबी बात चली। 

वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अपने गुरु उद्भट विद्वान डॉ. क्षेत्रेशचन्द्र चट्टोपाध्याय (1896-1974) जो संस्कृत, वेद , व्याकरण, पाली , प्राकृत और भाषाशास्त्र के प्रकांड विद्वान थे, से लेकर अपने अग्रज गुरु भाई पंडित विद्यानिवास मिश्र (1926-2005) , बीएचयू के (पूर्व) कुलपति डॉ. कालूलाल श्रीमाली, आचार्य डॉ. भोलाशंकर व्यास आदि अनेक स्मृतियों को खंगालने लगे। 

प्रयागराज में अध्ययन-अध्यापन, बीएचयू में अपनी नियुक्ति, साक्षात्कार, अध्यापन , मध्य प्रदेश सरकार के कालिदास अकादमी , उज्जैन से बुलावे (1981) और फिर बीएचयू वापसी और अध्यापन-लेखन-चिंतन के अनेक संदर्भों को याद करने लगे। 

हम बैठे रहते तो गुरुदेव अपनी ओर से उन स्मृतियों को बंद नहीं करना चाहते थे। हम ही उन्हें यह कहकर कि अब आप आराम करें --चलने की अनुमति माँगी। मेरा आग्रह था कि जब आप स्वस्थ हो जाएँ तो रोज आधी घन्टे, एक घन्टे जैसी आपकी सुविधा होगी आपके साथ बैठेंगे। बात करेंगे। 

और इसके लिए आपकी समय-सुविधा, अनुकूलता अनुसार लंबे समय तक के लिए दिल्ली से इसी निमित्त आ जाएँगे। यह मेरा सौभाग्य होगा। उन्होंने इसके लिए सहज स्वीकृति दी। 

'थोड़ा स्वस्थ हो जाने दीजिए...' 

 

उन्होंने कहा था कि मैं रोज ही ईमेल चेक कराता हूँ। 

तय हुआ कि जब तक संग-साथ बैठने लायक स्थिति नहीं हो जाती मैं ईमेल से प्रश्नावली भेज दिया करूँ। जैसे जैसे समय-सुविधा होगी उत्तर लिखवा कर भेजते जाएँगे। ऐसा मैंने किया भी। उनका स्नेह भरा जवाबी मेल भी आया।

 

"आपके प्रश्नों के उत्तर थोड़ा और सम्हलते ही भेजता रहूँगा।" 

फिर वह बनारस से अपने पुत्र के पास दतिया चले गए थे। उनका बनारस आना-जाना लगा रहा। जून, 2023 में भी वे बीएचयू अस्पताल में भर्ती हुए थे। अस्पताल के बेड पर होकर भी यदा-कदा कुछ-कुछ लिखते रहते थे। फिर कुछ दिनों बाद से दतिया अपने पुत्र के पास ही रहते थे। 

11-12 फरवरी, 2023 को काशी हिंदू विश्वविद्यालय के स्वतंत्रता भवन में आयोजित प्रथम "बनारस लिट् फेस्ट : काशी साहित्य-कला उत्सव-2023" का उद्घाटन उन्हीं से कराना था। लेकिन उस समय स्वास्थय लाभ के लिए उन्हें दतिया जाना पड़ा था। अस्वस्थता के बावजूद वह हाल फिलहाल तक सचेत और सक्रिय थे। बताया जाता है कि अंतिम समय तक वह सचेत अध्येता, शिक्षक , बुद्धिधर्मी के रूप में मानसिक रूप से सक्रिय थे। अब जबकि सदेह वे नहीं हैं तो एक बड़ी रिक्तता और किसी बरगद छतनार के न होने का अहसास हो रहा है। 

उनके न होने से काशी की वैदुष्य परम्परा की एक शिखर उपस्थिति नहीं रही।डॉ कमलेश दत्त त्रिपाठी जी जी एम. ए.; डी फिल, व्याकरण-धर्मशास्त्राचार्य, नाट्यशास्त्री थे। डॉ. क्षेत्रेशचंद्र चट्टोपाध्याय के इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रिय विद्यार्थी होने के साथ उन्होंने प्रयाग के अत्यंत प्राचीन श्रीधर्मज्ञानोपदेश संस्कृत महाविद्यालय में व्याकरण एवं काशी में महामहोपाध्याय पंडित रामेश्वर झा से 'वाक्यपदीयम' तथा काश्मीर शैव दर्शन की शिक्षा ली। 

महाकविविल्हण रचित विक्रमांकदेवचरितम की विस्तृत व्याख्या , टीका , हिंदी अनुवाद हो या मगकवि भास रचित बालचरितम नाटक का अनुवाद , व्याख्या या महाकवि कालिदास के अभिज्ञानशाकुंतलम का मंचन, निर्देशन उनकी विद्वत्ता का परिक्षेत्र व्यापक था। अमरुशतक का हिंदी अनुवाद (1962), संस्कृत थिएयर (1998), नाट्यशास्त्र, भाग-1 (नेपाली संस्करण संपादन), संस्कृत वांग्मय का वृहद इतिहास के छठे खण्ड नाट्य , मीनिंग एंड ब्यूटी : शास्त्रिक फाउंडेशन ऑफ इंडियन एस्थेटिक्स(2019) --आदि अनेक ग्रंथों पर उन्होंने महत्त्वपूर्ण कार्य किए। भारतीय दार्शनिक तथा कलागत चिंतन के शिखर आचार्य अभिनवगुप्त त्रिपाठी जी के आदर्श थे। 

संस्कृत साहित्य , नाट्य शास्त्र, धर्म एवं दर्शन के तो वह विशिष्ट विद्वान थे ही --आधुनिक भारतीय एवं पाश्चात्य साहित्य के भी वह मर्मज्ञ थे। दरअसल, पारम्परिक शास्त्रीय विधि और आधुनिक समालोचन विधि से उन्हें शिक्षा मिली थी। उन्होंने नेपाल में 20 वीं शती के अंतिम चरण में खोजी गई भरत मुनि रचित पंचम वेद 'नाट्यशास्त्र' की 13 वीं के प्रथम चरण से 19 वीं शती ई. के प्रथम चरण तक अबाध धारा में प्रवाहित पांडुलिपियों की छायाप्रतियाँ प्राप्त कर 1982 से महत्वपूर्ण कार्य की शुरुआत की। उन्होंने नाट्यशास्त्र के अभिनवगुप्त रचित भाष्य 'अभिनव भारती' का गहन अनुशीलन कर समालोचनात्मक संपादन कार्य किया। 

नाट्यशास्त्र भाग-1 (नेपाली वर्ज़न) इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र व मोतीलाल बनारसी दास द्वारा 2015 में प्रकाशित है। नाट्यशास्त्र का दूसरा भाग (नेवाली वर्ज़न) भी 2021 में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र से प्रकाशित है। तीसरे भाग पर भी कार्य पूर्ण हो गया था। "Paramarthasara of Abhinavagupta" अंग्रेजी में अनुवादित कृति है जो उन्होंने Prof. Lyne Bansat Boudon के साथ मिलकर किया है और लंदन व न्यूयॉर्क से 2011 में प्रकाशित हुई। 'Indian and Western Philosophy of Language' संपादित कृति है जो पी के मुखोपाध्याय के साथ मिलकर है।यह कृति इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कलाकेंद्र से 2019 में प्रकाशित हुई। 

उन्हें काशी की पांडित्य परंपरा के उद्भट विद्वान और बीएचयू के संस्कृत महाविद्यालय के अध्यापक पंडित रामावतार शर्मा और विशिष्ट विद्वान, साहित्यकार आचार्य चन्द्रधर शर्मा गुलेरी जी की कड़ी के रूप में उन्हें देखना मानना चाहिए। समकालीन समय में पंडित विद्यानिवास मिश्र, डॉ भोलाशंकर व्यास के बाद कमलेश दत्त जी काशी की वैदुष्य परम्परा की शिखर कड़ी थे।उत्तरआधुनिकता जैसे विषय पर भी वे साधिकार बोलते थे। समकालीन लेखकों, साहित्यकारों, विचारकों, आलोचकों, कलाविदों, रंग निर्देशकों , कलाकारों के साथ उनका सतत संवाद रहा है। "हंस" , "आलोचना" और अनेक पत्र-पत्रिकाओं में भी वह समय-समय पर लिखते रहते थे। 

डॉ. नामवर सिंह जी प्रख्यात प्रगतिशील आलोचक, विद्वान, अध्यापक थे। उनकी दृष्टि अलग थी। लेकिन वे भी अपने से वय में छोटे लेकिन ज्ञान में अगाध आचार्य कमलेश दत्त जी की मेधा और ज्ञान को मित्रवत स्नेह-सम्मान देते थे। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एमेरिटस कमलेश दत्त त्रिपाठी को डॉ श्रीराम लागू , वासुदेवन पिल्लई आदि ख्यात हस्तियों के साथ राष्ट्रपति द्वारा केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी के फेलो-2009 के रूप में चुना और सम्मानित किया गया था।

विभिन्न विश्वविद्यालयों, सांस्कृतिक संस्थानों तथा उच्चानुशीलन केंद्रों में संस्कृत साहित्य, भारतीय धर्म-दर्शन में उनके महत्त्वपूर्ण योगदानों के लिए उन्हें 2007 में राष्ट्रपति ने 'सर्टिफिकेट ऑफ मेरिट' सम्मान दिया। राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ, तिरुपति ने उन्हें 2015 में महामहोपाध्याय की उपाधि से विभूषित किया। डॉ. त्रिपाठी जी संस्कृत रंगमंच परंपरा और सौंदर्यशास्त्र के पर्याय थे।आगमिक दर्शन और प्राचीन भारतीय सौंदर्यशास्त्र में भी उनकी रुचि थी और उस पर उन्होंने काम भी किया। यह बहुत कम लोगों को पता होगा कि वे ख्यात संस्कृत नाट्य निर्देशक, मर्मज्ञ अध्येता, व्याख्याकार, संपादक ही नहीं बल्कि अभिनेता भी थे। संस्कृत और हिंदी नाटकों में वे अभिनय भी करते थे। सत्यवादी हरिश्चंद्र नाटक में वे हरिश्चंद्र की भूमिका भी निभाए थे। 

बीएचयू जैसे विश्वविद्यालय में प्रोफेसर, विभागाध्यक्ष, संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय प्रमुख, कालिदास संस्कृत अकादमी के निदेशक, बीएचयू से सेवानिवृत्ति के बाद विश्वविद्यालय में एमरिट्स प्रोफेसर, 'भारत अध्ययन केंद्र' में 'शताब्दीपीठ आचार्य' (Centenary chair professor), इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के सलाहकार अनेक भूमिकाओं में वह रहे। जहाँ जिस भूमिका में रहे उन्होंने अपना विद्वत कार्य उत्कृष्टता से किया और कराया। 

उनके कार्यकाल में कालिदास अकादमी, उज्जैन की प्रतिष्ठा में अपूर्व श्रीवृद्धि हुई। अभी वे महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलाधिपति (चान्सलर) थे। अकादमिक व सांस्कृतिक जगत के प्रतिष्ठित व शिखर पदों पर आसीन रहे। लेकिन, मैंने उन्हें अपरिग्रही व्यक्तित्व के रूप में हमेशा देखा। पद व प्रतिष्ठा के घर-घमंड से परे एक सहज अध्यापक व विद्वान के रूप में उन्हें देखा-जाना। उनके सम्पूर्ण व्याख्यानों, छिटपुट आलेखों, शोध पत्रों को संगृहीत कर एक जगह प्रकाशित हो तो वह अनमोल कार्य होगा। उनके कितने अपूर्ण कार्य, अप्रकाशित ग्रंथ, टीकाएँ भी शामिल हैं। वे भौतिक रूप से हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी कृतियाँ सदैव हमारा मार्गदर्शन करती रहेंगी। वे रहेंगे सदैव!

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोर से
Advertisement
Advertisement
Advertisement
  Close Ad