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दशहरा स्पेशल: कौन हैं राम और क्या है उनकी कहानी?

एक आदर्श मनुष्‍य। एक रूमानी पति। एक भगवान। एक राजनीतिक औजार। या फिर वह जैसा हम उन्‍हें देखना चाहते...
दशहरा स्पेशल: कौन हैं राम और क्या है उनकी कहानी?

एक आदर्श मनुष्‍य। एक रूमानी पति। एक भगवान। एक राजनीतिक औजार। या फिर वह जैसा हम उन्‍हें देखना चाहते हैं। हमारा सामूहिक भविष्‍य इसी चुनाव पर निर्भर करता है।

‘’अब स्‍वर्ग तक सीढ़ी कौन बनाएगा?”
‘’लोग खुद बनाएंगे’’, मां ने कहा,‘’पर वक्‍त लगेगा।‘’

उस शाम पटना के गांधी मैदान में रावण धू-धू कर जल रहा था। तभी वहां भगदड़ मच गई। यह घटना कई साल पहले की है। तब मैं पहली और अंतिम बार रावण-दहन देखने गई थी। मेरी मां ने मुझे एक बार बताया था कि रावण एक ऐसी सीढ़ी बना रहा है जो स्‍वर्ग तक जाएगी। फिर हर कोई स्‍वर्ग पहुंच सकेगा।

मैंने मां से पूछा, क्‍या वह समाजवादी था? ऐसा कह सकती हो, उनका जवाब था।

कहते हैं कि रावण बीच में ही इतना थक गया कि सीढ़ी का काम अधूरा रह गया, पर यह खयाल शानदार था। एक ऐसा विचार, जो समानता स्‍थापित करने और इस मिथक को तोड़ने के उद्देश्‍य से था कि स्‍वर्ग कुछ मुट्ठी भर पवित्र लोगों की बपौती है- जैसे कोई गेटेड कॉलोनी हो। वही, अवसर-संपन्‍न और उससे महरूम लोगों वाला पुराना खयाल। एक शाश्‍वत बंटवारा।

मैंने मां से कई बार पूछा कि उस समय धर्म का मतलब क्‍या होता था। उनका कहना था कि पाप-पुण्‍य और मोक्ष की अवधारणाओं से इतर प्रेम और आशा के मूल्‍य कहीं ज्‍यादा टिकाऊ होते हैं। फिर उन्‍होंने मुझे चेताया कि एकतरफा अफसानों पर आंख मूंद के भरोसा नहीं करना है, हमेशा सवाल पूछना जरूरी है।

उन्‍होंने कहा था, ‘’इसीलिए मैं तुम्‍हें ये कहानियां सुनाती हूं।‘’

मैंने जब पूछा कि राम कौन हैं, तब उन्‍होंने बताया कि वे विष्‍णु के सातवें अवतार थे जो धरती पर आदर्श राज्‍य की स्‍थापना करने आए थे। वे धर्म का पालन करने वाले मनुष्‍य थे।उन्‍हें निर्वासित किया गया।बाद में उन्‍होंने अपनी पत्‍नी सीता का इसलिए परित्‍याग कर दिया क्‍योंकि रावण द्वारा सीता-हरण के बाद उनकी प्रजा को सीता के चरित्र पर शक हो गया था।

‘’क्‍या राम को सीता की कमी अखरी होगी?” मां को ऐसा लगा होगा, तभी उन्‍होंने यहपूछा।

फिर वे बोलीं, ‘’उन्‍हें सीता को छोड़ना नहीं चाहिए था।‘’यह एक स्‍त्री की नजर से रामायण की व्‍याख्‍या थी। वह स्‍त्री मेरी मां थी।

यह बात अस्‍सी के दशक के बिहार की है। तब मनोरंजन के लिए हमारे पास केवल कहानियां हुआ करती थीं। टीवी उस वक्‍त इतना प्रचलित नहीं था और दुनिया भी इतनी सिमटी हुई नहीं थी। उस बड़ी-सी दुनिया में राम के मिथक के तमाम संस्‍करणों को समेट लेने के लिए पर्याप्‍त जगह थी। ऐसा लगता है कि वह सब अब ‘’इतिहास’’ हो चुका।

हम लोग साहित्‍य को कैसे देखते-समझते हैं, खासकर महाग्रंथों को, यह इस पर निर्भर करता है कि हम आते कहां से हैं। मेरी मां ने बताया था कि सीता बिहारमें जन्‍मी थीं। वे बताती थीं कि रावण के पसीने की एक बूंद जब धरती पर गिरी तो उससे सीता का जन्‍म हुआ। इसके बाद ही यह भविष्‍यवाणी हुई कि सीता को पाने की चाह ही रावण के अंतका कारण बनेगी।

मैंने पूछा था, ‘’क्‍या रावण को पता था कि सीता उसकी बेटी है?” ‘’नहीं’’, उन्‍होंने जवाब दिया।

मुझे याद है कि स्‍कूल या कॉलेज में सीता नाम की एक भी लड़की नहीं थी। मां ने बताया था कि लोग अपनी बेटियों का नाम सीता इस डर से नहीं रखते कि कहीं उसकी किस्‍मत में भी परित्‍यक्‍ता होना न लिखा जाय। बिहार के सीतामढ़ी में हालांकि सीता का एक मंदिर जरूर है, शायद अपने किस्‍म का इकलौता। मिथकीय किरदारों की स्‍मृतियों को हमारा समाज ऐसे ही संजो कर रखता है। राम मंदिर आंदोलन के दौर में भी बिहार ने सीता को नहीं भुलाया। मेरी मां अब भी एक नोटबुक में जय सियाराम लिखती हैं। पड़ोस के मंदिर में औरतें इकट्ठा होकर जब भजन गाती हैं तो राम के पहले सीता का नाम लेती हैं। राम द्वारा सीता के परित्‍याग की कथा को हमने कभी नहीं भुलाया। सीता का त्‍याग महानतम था। सीता, रामायण में हमारा प्रवेश-द्वार हैं।

मां के मुताबिक जितनी कहानियां हैं, उतने ही प्रवेश-द्वार भी हो सकते हैं।जैसे महाभारत, कर्ण, द्रौपदी या शिखण्‍डी किसी की भी कहानी हो सकती है। ‘’मैं तो बस तुम्‍हें संभावनाएं गिनवा रही हूं’’, वे बोलीं।

लिहाजा मेरे लिए रामायण अपने इर्द-गिर्द के लोगों की सुनाई कहानियों की एक समग्र गाथा है। यह कहानी बहुत सुंदर थी। इसमें जादुई यथार्थवाद जैसा कुछ था, मसलन रावण के पास हवाई जहाज था और वह चंद्रमा को उसकी जग‍ह बदलने का फरमान सुना सकता था। या फिर, राम ने एक शिला को छूकर अहिल्‍या नाम की जीती-जागती औरत बना डाला।

ऐसी तमाम संभावनाओं को संकीर्ण व्‍याख्‍याओं और अस्‍सी के दशक के उत्‍तरार्द्ध में आए एक टीवी धारावाहिक रामायण ने समाप्‍त कर डाला। इसने एक ऐसे ठस आख्‍यान को प्रसारित किया जो किसी अन्‍य व्‍याख्‍या की गुंजाइश को सीमित करता था। यही वह दौर था जब सियासी दायरे में मिथक का प्रवेश होता है और अयोध्‍या ‘’राष्‍ट्र’’व ‘’संस्‍कृति’’के संरक्षण का भौगोलिक केंद्र बन जाती है। यहीं से ‘’परायापन’’रोजमर्रा की बात बनता चला गया। ऐसा नहीं है कि पहले यह नहीं था पर इसमें अब तेजी आई। अंतत: इसे राज्‍य की औपचारिक स्‍वीकृति हासिल हो गई। दक्षिणपंथ के हिंदू धड़े ने रामकथा के प्रति लोगों की श्रद्धा का दोहन करते हुए उसे काट-छांट कर अपनी जरूरत के हिसाब से गढ़ लिया। अब सवाल यह है कि इसे कैसे पढ़ने और समझने की अपेक्षा हमसे की जा रही है।

मैंने यह बात अपनी मां से पूछी। उनका कहना था कि कोई नहीं पढ़ता, चाहे अलग-अलग रामायण हों, संविधान हो या कुछ और। उन्‍होंने कहा कि सबके पास अपनी रामायण पहले से होती है।

स्‍मृतियों में बहुत ताकत होती है। टीवी वाली रामायण में हमें अयोध्‍या का भव्‍य राजदरबार दिखाया गया, आदर्श पुरुष बनने का तरीका दिखाया गया, विजय-प्राप्ति के लिए अश्‍वमेध यज्ञ करने से लेकर धर्म की रक्षा के लिए हर चीज को दांव पर लगाने और यहां तक कि एक समूचे साम्राज्‍य का नाश करने के लिए पुल बनाना भी दिखाया गया। उन्‍होंने हमें अतीत का लोभ दिखाया और हम फंस गए। इसकी कीमत भी हमने चुकाई। राम के चरित्र को दोबारा गढ़े जाने के सनकी अभियान में हमारे अपने-अपने राम कहीं खो गए। मुझे वे पुराने कैलेंडर याद हैं जिन्‍हें देखकर लगता था कि वे हमें वाकई आशीर्वाद दे रहे हों। वह छवि आजकल हर तरफ छाई उनकी आक्रामक तस्‍वीरों से एकदम उलट थी।   

यह कहानी हमारी सबसे पसंदीदा थी-बुराई पर अच्‍छाई की जीत की कहानी, नैतिकता की एक गाथा। मेरी मां कहती हैं कि सच कभी निरपेक्ष नहीं होता। राम एक त्रासद नायक हैं, तो रावण बागी है और सीता नारीवादी हैं।  

अपने नए स्‍वरूप में राम 78 अध्‍यायों वाले टीवी धारावाहिक में पहली बार हमारे सामने आए थे।यह नाटक हर इतवार की सुबह दूरदर्शन पर आता था। यह सिलसिला 25 जनवरी, 1987 से 31 जनवरी, 1988 तक चला। इसके निर्देशक रामानंद सागर थे। यह धारावाहिक एक ऐसे समय में आया जब देश में हिंदू राष्‍ट्रवाद अपने उभार पर था। लिहाजा बहुत जल्‍द रामायण करोड़ों लोगों की आस्‍था का केंद्र बन गया। हमारे यहां बुश कंपनी की एक पुरानी टीवी हुआ करती थी। इसी पर हम लोग हर इतवार को यह सीरियल देखते थे। पड़ोसी भी हमारे यहां रामायण देखने आते थे और हाथ जोड़ कर बैठ जाते थे। अकसर वे नहा कर आते और टीवी पर फूल-माला भी चढ़ाते थे।

काफी बाद में मेरी मां ने अपनी कहानी में थोड़ा सुधार किया। वे कहती थीं कि रावण ने तो सीता को छुआ तक नहीं था। वह सीता की सहमति की प्रतीक्षा करता रहा था। उसे इस बात का गुस्‍सा था कि उसकी बहन शूर्पणखा का लक्ष्‍मण ने अंग-भंग कर दिया था, चूंकि वह राम या लक्ष्‍मण में किसी एक से विवाह रचाना चाहती थी। इस पर मेरी प्रतिक्रिया थी कि यह तो बड़ी ज्‍यादती है।   

रामानंद सागर ने सीरियल में शूर्पणखा को जैसा दिखाया वह मेरी मां के वर्णन से अलहदा था। शूर्पणखा का किरदार निभा रही अभिनेत्री को महाकाय दिखाने के लिए उसकी पैडिंग की गई थी, चेहरे पर काला रंग पोता गया था और असुरों जैसा दिखाने के लिए दांत बाहर की ओर निकाले गए थे। मां ने बताया था कि शूर्पणखा बहुत सुंदर थी और विधवा थी।

मैंने पूछा था, ‘’क्‍या विधवाओं को दोबारा विवाह करने की मनाही है?”

पवित्र ग्रंथों की तरह ही पितृसत्‍ता भी हमें विरासत में मिली है। स्‍कूल में हमने विधवा पुनर्विवाह जैसे सामाजिक सुधारों के बारे में पढ़ना शुरू किया था। दुनिया बदल रही थी। मेरे प्रिय लेखक मार्खेज ने कहा था, ‘’नैतिकता भी समय के साथ बदलती है।‘’

रामायण के अपने-अपने आख्‍यान हमने इसी तरह अपने-अपने दौर और संदर्भों में गढ़े हैं। आज एक नहीं, कई रामायणें हैं जिन्‍हें विद्वानों, संतोंऔरकवियों ने लिखा है। फिर हमारी अपनी-अपनी रामायण भी है। कहते हैं कि विचारों पर किसी का कॉपीराइट नहीं होता। रामायण भी मूलत: एक विचार है। 

मेरे लिए तो शूर्पणखा की उदासी भी रामायण का ही अभिन्‍न अंग थी। उसने औरतों के जीने के स्‍थापित ढर्रे को चुनौती दी थी। उसे दंडित किया गया, इसीलिए वह बदला लेना चाहती थी। दोबारा शादी करने की उसकी चाहत में ऐसा भी क्‍या घृणास्‍पद था, लेकिन टीवी की रामायण ने ही यह विचार हिंदुओं में पोसा कि उनके बीच राक्षसों का वास है।

अयोध्‍या में राम के कथित जन्‍मस्‍थल पर खड़ी बाबरी मस्जिद को हिंदू राष्‍ट्रवादियों ने 6 दिसंबर, 1992 को गिरा दिया। इसके बाद हुए दंगों में हजारों लोग मारे गए।

उसी साल मैंने अपनी जिंदगी का पहला कर्फ्यू देखा। डर क्‍या होता है, मैंने पहली बार प्रत्‍यक्ष जाना। मैंने देखा कि कैसे हम लोग दूसरों को अलग-थलग छोड़ देते हैं। मुझे याद है कि लाउडस्‍पीकरों से उन दिनों चौबीस घंटे धार्मिक नारे लगाए जाते थे। हमारे जय सियाराम से अलग उन नारों में जय श्रीराम होता था। फिर अचानक ही कहीं आग लग जाती, धुआं उठता था और चप्‍पे-चप्‍पे पर पुलिस तैनात।

एल. के. आडवानी ने 1990 में गुजरात के सोमनाथ से अपनी रथयात्रा शुरू की थी। कहने को रथ, लेकिन वह एक वातानुकूलित बस थी। उनकी योजना थी कि यात्रा का समापन अयोध्‍या में कर के वहां बाबरी मस्जिद के स्‍थल पर राम मंदिर के निर्माण की नींव रखेंगे। इसी के हिसाब से नारा गढ़ा गया था, ‘’कसम राम की खाते हैं, मंदिर वहीं बनाएंगे।‘’केवल सात महीने पहले बिहार के मुख्‍यमंत्री बने लालू प्रसाद यादव ने आडवानी को राज्‍य में न घुसने को लेकर हिदायत दी थी, पर वे नहीं माने। आडवानी के रथ ने 23 अक्‍टूबर को बिहार में प्रवेश किया। लालू का मानना था कि यह रथयात्रा दंगे भड़का सकती है।

लालू प्रसाद की सरकार ने आडवानी को समस्‍तीपुर में 24 अक्‍टूबर, 1990 को तड़के हिरासत में ले लिया। इसके बाद बीजेपी ने केंद्र से समर्थन वापस ले लिया और वी. पी. सिंह की 11 महीने पुरानी राष्‍ट्रीय मोर्चा सरकार गिर गई। इसके बाद का सब कुछ इतिहास है।

कालांतर में हम खुद से एक सवाल पूछना भूल गए, कि राम कौन हैं? हमने धारावाहिक में दिखाए गए राम को ही अपना लिया। राम की छवि को विकृत करने का यह सिलसिला कांग्रेस की पिछली सरकार में रामायण सीरियल के प्रसारण से शुरू हुआ था, जब दो अहम घटनाएं हुई थीं- एक, शाह बानो के मामले में आया फैसला और दूसरा 1986 में बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाया जाना। कांग्रेस ने जो शुरुआत की, उसका लाभ बाद में भाजपा को मिला।

मुझे याद हैं वे कारसेवक, जो सीरियल वाले राम, लक्ष्‍मण और हनुमान की तरह कपड़े पहने होते थे। आडवानी का रथ एकदम धारावाहिक में दिखाए गए रथ की तर्ज पर बनाया गया था। यह सीरियल कोविड-19 के कारण लगाए गए लॉकडाउन में फिर से प्रसारित हुआ। करोड़ों लोगों ने दोबारा इसे देखा। एक बार फिर उसी रामायण का इस्‍तेमाल किया गया।

हम लोग हिंदू जागरण के एक ऐसे दौर में जी रहे हैं जहां धार्मिक आस्‍था को राजनीतिक शक्‍ल अख्तियार करने में पल भर का वक्‍त नहीं लगता, जैसा कि हमने सीरियल के मामले में देखा भी है। यह धारावाहिक हमारे धर्मनिरपेक्ष सामूहिक मानस से पहला बड़ा प्रस्‍थान था।क्‍या यही राम राज्‍य है? मैंने मां से यह सवाल पूछा था। उनका जवाब था, ‘’टीवी पर महंगाई और बाकी बुरी खबरें भी तो हैं।‘’

मैं बचपन की कहानी इस उम्‍मीद में सुना रही हूं कि शायद मौजूदा सूरत कुछ बदले। मैं ऐसा चाहती हूं। लोग कहते हैं कि भगवान का नाम बेकार में नहीं लेना चाहिए, लेकिन मैं तो राम के नाम के साथ ही बड़ी हुई हूं। मैं अपने भगवान से नहीं डरती।

मेरे घर में एक दलित लड़की काम करती थी। उसका नाम था मरनी। मैं मनाती थी कि मरनी और उसकी मां स्‍वर्ग चली जाएं। अपने पड़ोस के दर्जी इदरीस मियां और उनके बच्‍चों के लिए भी मैं यही मनाती थी। स्‍वर्ग में इन्‍हें कम से कम खाने को तो मिलेगा। कई साल बाद इदरीस मियां ने रेल से कटकर अपनी जान दे दी। इनके लिए स्‍वर्ग की कोई सीढ़ी कभी नहीं होगी। न तो कोई स्‍वर्ग है, न ही कोई नर्क।

ऐसी बहुत सी कहानियां हैं। इन तमाम कहानियों में हम मौजूद हैं। मसलन, बिहार में हम महिषासुर पर दुर्गा की विजय का जश्‍न भी मनाते हैं। 

हाल ही में झारखंड के उस सुदूर गांव में मुझे अपने जवाब मिले, जहां असुर समुदाय रहता है।

इस समुदाय की एक कवियत्री सुषमा असुर कहती हैं, ‘’हमारी चमड़ी काली है पर हम भी इंसान हैं। महिषासुर हमारे पूर्वज थे।‘’

वे और हम। हम उनसे श्रेष्‍ठ। और न जाने क्‍या-क्‍या। देवता और दानव। आर्य और द्रविड़। आदमी और औरत। इन सब को एक शाश्‍वत युद्ध में एक-दूसरे के खिलाफ झोंक दिया गया है। कहीं कोई मुक्ति है?

इसका जवाब मुझे आदिवासियों से ही मिला।आदिवासी लेखिका जसिंता केरकेट्टा कहती हैं, ‘’स्‍वर्ग और नर्क जैसा कुछ भी नहीं होता। हम लोग मानते हैं कि मरने के बाद भी धरती से बेहतर जगह कोई नहीं है। इसीलिए हम अपने मर चुके पुरखों के साथ जीते हैं।‘’

मेरे लिए रामायण उन तमाम लोगों की एक कहानी है जो अपनी जिंदगी में कुछ निश्चित चुनाव करते हैं। यह कहानी प्रेम, बिछोह और उस स्‍वप्‍न की है, जो सरयू में राम के समाधिस्‍थ होने के साथ ही टूट जाता है। आदर्श हमेशा ही भ्रामक होता है। उसे पाना और कायम रखना युद्धों के एक अंतहीन सिलसिले जैसा है। इसलिए युद्ध खत्‍म हो जाएं, हमें इसकी दरकार नहीं। मेरी रामायण समाज द्वारा थोपी गई उन राजा-रानियों की नैतिकता के खिलाफ संघर्ष की गाथा है, जो अपनी परिस्थितियों और चुनावों की पैदाइश हैं। यह मेरी अपनी कहानी है। यही हमारी कहानी है।

यह अंक ऐसी ही कुछ कहानियों और किरदारों का एक संकलन है। कोशिश बस इतनी है कि इन कहानियों को किसी एक अफसाने तक सीमित न कर दिया जाय। ऐसा करना हमेशा जोखिम भरा होता है।

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