बलात्कार और हत्या की नृशंसता जिस किस्म की प्रतिक्रियाओं को जन्म देती है, वे केवल नैतिक और राजनैतिक नहीं होतीं। वीभत्सता की तात्कालिक छवियों से, जो दैहिक और मानसिक एहसास पैदा होते हैं, वह भी प्रतिक्रिया ही है। जैसे, फर्श पर पड़ी देह के आसपास पसरे हिंसा के सुराग, आंखों के इर्द-गिर्द जमे खून के थक्के, या अंग-भंग के दृश्य- जहां सब कुछ अपनी कोरी नग्नता में उपस्थित होता है, जबकि कपड़े एक कोने में कहीं फेंके हुए हों। ऐसे दृश्य हमारी सभ्यता की उस आदिम और स्याह स्मृति को जगा देते हैं, जिसमें मर्द-सत्ता लगातार अपने नाखूनों से औरतों के जिस्म और रूह पर जख्मों की इबारत कुरेदती रही है। स्मृति से लेकर वर्तमान तक पसरे ऐसे दृश्यों में केवल एक चीज ही स्थायी हकीकत के रूप में उपस्थित है- एक औरत की बलत्कृत देह।
यह नग्न हकीकत इतनी तगड़ी होती है कि अपने इर्द-गिर्द के तमाम अफसानों पर भारी पड़ जाती है। इसलिए, एक औरत के साथ की गई हिंसा पर एक राष्ट्र के बतौर यदि हम निस्तब्ध नहीं रह जाते, चौंकते नहीं या रोष में नहीं आते, तो सवाल हमारी समूची मनुष्यता पर ही खड़ा हो जाता है। दूसरी ओर यही रोष कुछ ऐसी सच्चाइयों से ध्यान भी भटकाने का काम कर सकता है जो तात्कालिक घटना से बहुत व्यापक होती हैं। ऐसी सच्चाइयों का एक मौन इतिहास और तय भूगोल होता है, जिनसे बच पाना मुश्किल है। मौजूदा संदर्भ में यह दूसरी सच्चाई पश्चिम बंगाल में मेडिकल शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार की है।
हो सकता है कि हम इस बहाने पूरे सूबे में चौतरफा कायम भ्रष्टाचार की बात कर रहे हों। यह भी हो सकता है कि बात पूरे देश में मेडिकल शिक्षा के भ्रष्टाचार से जाकर जुड़ती हो, लेकिन इस समस्या को किसी महाकाय ब्लैकहोल की तरह देखना हमें कहीं नहीं पहुंचा पाएगा। फिर तो यह हमें निगल ही जाएगा और चूस कर फेंक देगा। इसलिए इस मसले पर बात करने के लिए बहुत खास किस्म के भ्रष्टाचार पर फोकस करना होगा, जिसकी सच्चाई पर तात्कालिक घटना की बर्बरता ने परदा डाल रखा है। साथ ही यह भी जरूरी है कि बलात्कार और उसकी वीभत्सता पर अपने भीतर फूटते गुस्से में हम अपनी निगाह से जरायम के उस विशाल तंत्र को ओझल न हो जाने दें, जिसने पूरे राज्य को अपने आगोश में ले रखा है और जिसे एक भ्रष्ट सरकार की शह प्राप्त है। यह बहुत जरूरी है क्योंकि मुजरिम दरअसल यही तो चाहते थे, कि उनके कुकृत्य तत्काल ऐसा सदमा पेश करें कि हम उस समूची मशीनरी से ही गाफिल हो जाएं जो ऐसी हैवानियत को मुमकिन बनाती है।
जब एक सड़ता-मरता हुआ राज्य अपराधी बन जाता है, तब वह खुद को ही खाने लग जाता है। पश्चिम बंगाल ऐसा ही राज्य है। यहां अब कुछ भी लूटने के लिए नहीं बचा है, तो जिस्म की लूट हो रही है। कारोबार जा चुके हैं। राज्य की कमाई डूब चुकी है। सफेदपोश जरायम के लिए जगह ही नहीं है क्योंकि उसके लिए यहां उतना पैसा नहीं है। और जब जिस्म की लूट होती है, तो उसका शिकार सबसे गरीब और कमजोर बनता है। फिर वेश्यावृत्ति, इंसानों की तस्करी, शरीर के अंगों का अवैध कारोबार जन्म लेता है। मेडिकल क्षेत्र का भ्रष्टाचार इन्हीं पर पलता है क्योंकि यहां अब यही बच रहा है। इंसान की देह और उसका दैहिक दुख मेडिकल क्षेत्र का निवाला बन चुका है और इस भ्रष्टाचार की फसल महामारी की तरह लहलहा रही है।
मेडिकल बिरादरी के लिए यह एक खुला रहस्य है। आरजी कर नाम के मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में जो बलात्कार कांड हुआ है, उसके प्रशासक यानी प्रिंसिपल संदीप घोष के खिलाफ आरोपों की फेहरिस्त बहुत जघन्य है- परीक्षाओं और मेडिकल की सीटों में रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार, प्रशासनिक तबादलों को नियंत्रित करना, दवाइयों का अवैध कारोबारी नेटवर्क चलाना, यहां तक कि टीवी पर रिश्वत की रकम प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा बताया जाने के बावजूद अब तक इसमें से कुछ भी साबित नहीं हुआ है। यानी कानूनन कहें, तो यह सब अभी अटकलबाजी है। घोष के सत्ताधारी दल के साथ रिश्ते ऐसे हैं कि आरजी कर अस्पताल से निकाले जाने के बावजूद वे शहर के एक अन्य मेडिकल कॉलेज के सिर पर जाकर बैठ गए थे। जब वहां के छात्रों ने अपने यहां इस ‘‘कचरे’’ को स्वीकार करने से इनकार कर दिया, तब उनकी नियुक्ति रोकी गई।
मैं जिस जगह पर बड़ा हुआ, आरजी कर अस्पताल वहां से पैदल दूरी पर है। मेरे कुछ दोस्त यहीं से पढ़े हुए हैं। मेरी उनसे बात होती है। ये सब अब राज्य और शहर में मेडिकल पेशे में आला पदों पर हैं। विरोध प्रदर्शनों के बारे में तो सोशल मीडिया आदि में खबरें खूब चल ही रही हैं। इस कांड पर लोग खूब बातें कर रहे हैं। यह कोई छुपी हुई बात नहीं है कि आरजी कर में जो हुआ, वह सभी मेडिकल कॉलेजों में होता रहा है, न सिर्फ शहर में बल्कि पूरे राज्य में। मेडिकल ट्रेनिंग की परीक्षाओं, इनटर्नशिप, प्रशिक्षण आदि से पहले लाखों रुपये रिश्वत और लेन-देन के रूप में ऐंठे जा रहे हैं। दवाइयों के अवैध कारोबार के रैकेट चल रहे हैं जहां बाजार दर से पांच गुना दाम पर उन्हें बेचा और फिर से बेचा जा रहा है। यह दवा कंपनियों और डॉक्टरों की मिलीभगत से हो रहा है। बीच में मरीज पिस रहे हैं।
यह सब कुछ आरजी कर में संदीप घोष की निरंकुश सत्ता के दौरान एक दुःस्वप्न की तरह घिरता चला गया था। उस सत्ता के अंधेरों को उजागर करने वाली तमाम शिकायतें मौजूद हैं, आरोप हैं, लेकिन उन्होंने जिस हद तक बिना किसी दंड के डर से यह सब किया और जिस तरह से उन्होंने बार-बार अपना तबादला रुकवाया, सब कुछ सिर्फ राज्य की सत्ताधारी पार्टी के साथ गठजोड़ की ओर संकेत करता है बल्कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व तक भी इसका सिरा जाता है।
इसी बीच एक हिम्मती और ईमानदार औरत आती है। वह भ्रष्टाचार और धमकियों की सत्ता के सामने घुटने टेकने से इनकार कर देती है। यह कौन सी दुनिया है, जहां आपको अपनी थीसिस जमा करवाने के लिए भी भारी-भरकम रकम चुकानी पड़ती है, ताकि आप परीक्षा निकाल सकें। उसने ऐसा करने से इनकार कर दिया। उसका इनकार जवाबी हमला बनकर उसी के ऊपर गिर पड़ा। उसके काम करने के घंटों में तब्दीली की जाने लगी, धमकियां दी गईं, उसके माता-पिता को संदेश भेजे गए। और न जाने क्या-क्या हुआ। जब सब बेकार चला गया, तब एक रात उसके ऊपर जुर्म की तलवार चुपके से गिरी। इसकी तैयारी बहुत करीने से की गई थी। अस्पताल के लोगों को, गलती से वहां चले आने वालों को और राहगीरों को पहले ही वहां से हटा दिया गया था कि कहीं वे गलती से भी गवाह न बन जाएं। जाहिर है, यह सब अस्पताल के प्रशासन के बगैर किया जाना मुमकिन नहीं था। हो सकता है और ऊपर से भी किसी का इसमें हाथ रहा हो।
बहरहाल, अगली सुबह उसकी लाश बरामद हुई। उसकी मौत को खुदकशी बता दिया गया। इसके बाद पुलिस का अजीबोगरीब बरताव, लाश को परिवार से दूर रखा जाना, ताबड़तोड़ पंचनामा और बिजली-सी गति से किया गया क्रियाकर्म- सब कुछ इस अपराध में आला दरजे के अधिकारियों की संलिप्तता की गवाही दे रहा था। ओटीटी चैनलों पर अपराध कथा देखने वाले जानते हैं कि जुर्म और सियासत के बीच चोली-दामन का ऐसा साथ तभी संभव है जब सारे खिलाड़ी एक ही पाले में हों, वरना ताश का महल ढहने में वक्त नहीं लगता।
बंगाल में पुरानी पीढ़ी के डॉक्टर मानते हैं कि आज के डॉक्टरों को आपस में जोड़ने वाली केवल एक चीज है- लालच। कभी-कभार ऐसा कहते हैं कि स्वास्थ्य उद्योग और स्वास्थ्य शिक्षा के निजीकरण ने ही इस लालच को बढ़ावा दिया है। अगर एक निजी मेडिकल कॉलेज में दाखिला लेने में ही करोड़ों रुपये लगते हैं, तो वहां से पढ़ कर निकला डॉक्टर इलाज का लाइसेंस हासिल करने के बाद अपने मुनाफे को हर चीज से ऊपर क्यों न रखे? ऐसे मुनाफे की चिंता में दवाओं का अवैध कारोबार जल्दी पैसा बनाने का आसान और अनिवार्य नुस्खा बनकर उभरता है। एक बार मुंह में पैसे का स्वाद लग गया, तब कौन रुकता है?
मेडिकल शिक्षा के क्षेत्र में कायम खामियों और बुराइयों को जितना ज्यादा हालिया नीट परीक्षा घोटाले ने उजागर किया, उतना शायद ही पहले किसी और प्रसंग ने किया हो। कोई सरकार जब अपने नागरिकों की जिंदगी को चलाने वाली दो बुनियादी जरूरतों शिक्षा और स्वास्थ्य पर अपने दावे को ही पूरी तरह छोड़ दे, तब क्या होता है? हमने देश के सरकारी विश्वविद्यालयों की तबाही तो देख ही ली है, चाहे सरकारें किसी भी रंग की रही हों। जब तक मुर्दे में एक बूंद भी खून बचा रहेगा, गिद्ध मंडराते रहेंगे। कभी ये गिद्ध डॉक्टरों की शक्लों में आएंगे, कभी प्रशासकों की, कभी पुलिस की, तो कभी वे सत्ताधारी दल बनकर लाश पर छा जाएंगे।
और इसी बीच कोई हिम्मती लड़की इस हकीकत से इनकार करेगी तो मार दी जाएगी। आजादी के अठहत्तर साल बाद आया अगस्त हमें याद दिलाकर जा रहा है कि इस देश में हिम्मती और ईमानदार लोगों का क्या हश्र होता है।
(लेखक शिक्षाशास्त्री हैं। विचार निजी हैं)