अप्रतिम, विरले उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की कहानियों में उनकी नायिकाएं संवेदनशील, करुणामय पर पुरुष पात्रों से अधिक सशक्त, मानसिक रूप से सबल, उनपर हावी रहती थीं।उनकी अधिकांश रचनाएं गंवई जीवनशैली, त्रासदी, संघर्ष और बंगाल में प्रचलित प्रथाओं-कुप्रथाओं, अंधविश्वासों पर आधारित हैं। वे सर्वाधिक लोकप्रिय बंगाली उपन्यासकार हुए जिनके उपन्यासों के कई भाषाओं में अनुवाद हुए और कथानकों को चुराकर बहुतेरे लेखकों ने रचनाएं रचीं।
15 सितंबर, 1876 को हुगली जिले के गाँव देवानंदपुर में जन्मे शरतचंद्र, माता-पिता की नौ संतानों में एक थे। बाल्यकाल से चिंतन-मनन वाले शरतचंद्र घर के हंगामों से विचलित, अक्सर घर से भाग जाते पर लौटने पर पिटाई होती। शरतचंद्र के पिता मोतीलाल बेफिक्र, लापरवाह इंसान थे जो किसी नौकरी में नहीं टिकते थे, परिणामस्वरूप परिवार के हालात दिनोंदिन बदतर होते गए, फलस्वरूप उन्होंने परिवार सहित ससुराल में डेरा डाला। ननिहाल में नाना केदारनाथ गांगुली का खाता-पीता संभ्रांत परिवार था। शरतचंद्र नटखट थे और हमउम्र मामाओं के साथ बालसुलभ शरारतें करते थे जिनका उल्लेख ‘देवदास, श्रीकांत, दुर्दान्त राम, सत्यसाची’ के चरित्रों में है। नाना विद्यालय के मंत्री थे इसलिए 1883 में छात्रवृत्ति क्लास में उनका दाखिला हो गया। उन्होंने बोधोदय के अलावा ‘सीता बनवास’, ‘चारू पाठ’, ‘सद्भाव सद्गुरू’ और ‘प्रकांड व्याकरण’ पढ़ा। छात्रवृत्ति परीक्षा पास करने के बाद उनका अंग्रेज़ी स्कूल में दाखिला हुआ जहां उत्तरोत्तर लेखन प्रतिभा निखरती गयी।
शरतचंद्र ने विद्यार्थी काल के दौरान साहित्य-साधना का सूत्रपात किया, साहित्य-सभा की स्थापना की और ‘बासा’ (घर) उपन्यास लिखा पर प्रकाशित नहीं हुआ। कॉलेज की पढ़ाई छोड़कर क्लब के सदस्यों संग खेलकूद, अभिनय और साहित्य-सभा का संचालन किया। इसी समय ‘बड़ी दीदी’, ‘देवदास’, ‘चन्द्रनाथ’, ‘शुभदा’ उपन्यास एवं ‘अनुपमार प्रेम’, ‘आलो ओ छाया’, ‘बोझा’, ‘हरिचरण’ गल्प की रचना की तथा ‘बनेली एस्टेट’ में नौकरी की। उन्होंने 1900 में पिता से नाराज़ होकर सन्यासी वेष में घर छोड़ा पर पिता की मृत्यु होने पर वापस आकर पिता का श्राद्ध किया। 1902 में मामा के पास कलकत्ता पहुंचे, यहां हिंदी पुस्तकों का अंग्रेजी अनुवाद करने पर उन्हें 30 रुपये प्रतिमाह मिलते थे।
शरतचंद्र 1903 में धनोपार्जन हेतु बर्मा चले गए और रंगून में रेलवे के ऑडिट कार्यालय में अस्थायी नौकरी की। यहां बंगचंद्र से संपर्क हुआ जो विद्वान, पर शराबी और आवारा था। ‘चरित्रहीन’ में मेस की नौकरानी से प्रेम की कहानी की प्रेरणा यहीं मिली। ‘चरित्रहीन’ की कहानी खुले भावों वाली, सदाचार के ख़िलाफ़ थी अतः संपादक ने छापने से मना कर दिया। पर जब उपन्यास प्रकाशित हुआ तो मान्यताओं, परंपराओं के खिलाफ चुनौतीपूर्ण और विवादास्पद होने से काफ़ी विरोध हुआ।
शरतचंद्र से ‘यमुना’ के संपादक फणीन्द्रनाथ ने लेख मांगा, उन्होंने ‘रामेर सुमति’ कहानी भेजी जो ‘यमुना’ में प्रकाशित हुई। शरतचंद्र ने कुछ रचनाएं मित्र के पास छोड़ दीं और मित्र ने उन्हें सूचित किए बिना कहानी ‘बड़ी दीदी’ एक पत्रिका में धारावाहिक रूप में प्रकाशित कराना शुरू किया। एक-दो किस्तें पढ़के पाठकों को लगा कि रवीन्द्रनाथ नाम बदलकर लिख रहे हैं, पर शरतचंद्र के संज्ञान में बात पांच साल बाद आयी। उनका प्रथम मुद्रित उपन्यास, फणीन्द्रनाथ द्वारा प्रकाशित ‘बड़ी दीदी’ था। उन्होंने रंगून से वापस आकर ‘श्रीकांत’ उपन्यास लिखना शुरू किया जो १९१७ में प्रकाशित हुआ। १९२२ में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ने ‘श्रीकांत’ का अंग्रेजी रूपांतरण प्रकाशित किया जिसके कारण अत्यधिक यश फैल गया। वे कई सभाओं, संस्थाओं के अध्यक्ष तथा मान्य सदस्य बने और उन्हें ढाका विश्वविद्यालय ने ऑनरेरी डी.लिट. की उपाधि प्रदान की।
उनके कथानकों में स्त्री शक्ति का प्रतिनिधित्व करती नायिकाएं, पुरुष पात्रों से अधिक सशक्त, दृढ़, मानसिक सबलता की प्रतिरूप, करुणामयी, स्नेहिल होते हुए भी नायकों पर हावी प्रतीत होती थीं। शरतचंद्र कलात्मकता, शब्दों की मितव्ययता या जीवनानुभव से उपजी घटनाओं के कारण नहीं, अपितु परंपरागत बंधनों की जकड़न से मुक्त होने को छटपटाती नारी को नए अंदाज़ में प्रस्तुत करने और स्त्री-पुरुष संबंधों के अनदेखे पक्ष लिखने के कारण बहुत लोकप्रिय हुए। उनकी रचनाओं में नवरस के विभिन्न रस निहित थे। ‘पंडित मोशाय, बैकुंठेर बिल, मेज दीदी, दर्पचूर्ण, श्रीकांत, अरक्षणीया, निष्कृति, मामलार फल, गृहदाह, शेष प्रश्न, दत्ता, देवदास, बाम्हन की लड़की, विप्रदास, देना पावना’ प्रमुख उपन्यास हैं पर उन्होंने नाटक, गल्प और निबंध भी लिखे।
शरतचंद्र की विचारधारा सर्वथा अलग थी क्योंकि उन्होंने निचले तबके को उनके अधिकारों के प्रति सचेत करके उनकी पहचान से अवगत कराया। तब ऐसा सोचना भी विद्रोह की श्रेणी में आता था अतः इस दुस्साहस के लिए वे समाज के ठेकेदारों द्वारा दोषी ठहराए गए और उच्च वर्ग के कोपभाजन बने। उन्होंने रचनाओं में निम्न वर्ग को उभारा, सौंदर्य की जगह कुरूपता को प्रमुखता दी, यही वजह है कि उनकी रचनाएँ आज भी प्रासंगिक हैं। विष्णु प्रभाकर ने इसी विद्रोही लेखन के मद्देनज़र उनकी जीवनी ‘आवारा मसीहा’ प्रकाशित की। शरतचंद्र, ‘प्रेमचंद कथा सम्मान’ सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित हुए।
शरतचंद्र ने लेखकीय कौशल से समाज को मर्यादा पालन हेतु प्रेरित किया, परिणामस्वरूप तथाकथित परंपराओं के अंतर्गत समाज द्वारा उपेक्षित, शोषित, दमित नारी पात्रों के अनसुने रूदन की अनुगूँज स्पष्ट सुनायी दी। उन्होंने महिलाओं, शोषितों के पराधीन, आक्रांत जीवन का चित्रण कर, उनके नीरस, बोझिल जीवन में इन्दधनुषी वर्ण बिखेरने का प्रयास किया। उन्होंने पीड़ितों-पराभूतों के आर्तनाद, मौन चीत्कार, हृदयविदारक विलाप को देख-सुनकर महसूस किया कि जाति, वंश और धर्म के नाम पर बलि चढ़ा हुआ एक पूरा वर्ग मानव श्रेणी से पदच्युत, उपेक्षित है। उन्होंने वंचितों के प्रति घृणित षड्यंत्र के तहत पनपी सामूहिक सहमति पर रचनात्मक हस्तक्षेप रुपी वार किया, जिसके चलते पाठक उनके मुरीद हो गए। शरतचंद्र ने प्रेम और आध्यात्मिकता को एकाकार किया। शरत-साहित्य, हताशा-निराशा से उबारकर जीवंतता की ओर उन्मुख करने में औषधीय बूटी की तरह सहायक था, वहीं मर्मस्पर्शी रचनाएं मर्म को उद्वेलित करती थीं। शरतचंद्र बंगाली साहित्यकार होने के उपरांत भी सर्वाधिक पढ़े जाने वाले अतिशय चर्चित लेखक थे जिनके कई भाषाओं में अनुवादित उपन्यास, कहानियां बेहद पसंद किए गए और रुचिपूर्वक पढ़े गए। उनके संवेदनशील, साहसी, नए कलेवर युक्त कथानकों पर असंख्य पाठक मोहित हुए। बकौल प्रशंसकों के, उनकी लोकप्रियता, बंकिमचंद्र चटर्जी और रवीन्द्रनाथ ठाकुर से भी अधिक थी।
शरतचंद्र ऐसे गौरवांवित कथाकार हैं, जिनकी कालजयी कृतियों पर चलचित्र तथा सीरियल बने। ‘चरित्रहीन’ पर १९७४ में फिल्म बनी। ‘देवदास’ पर 12 से अधिक भाषाओं में फिल्में बनीं। ‘देवदास’ पर हिंदी में तीन बार फिल्म निर्माण हुआ। ‘परिणीता’ दो बार हिंदी में तथा बंगाली और तेलुगु में बनी। 'बड़ी दीदी' पर चलचित्र निर्मित हुआ। ‘मंझली दीदी’ तथा ‘स्वामी’ फिल्म सर्वश्रेष्ठ कहानी के लिए फिल्मफेयर से सम्मानित हुयीं। ‘छोटी बहू’ उपन्यास ‘बिंदूर छेले’ पर आधारित थी। 'दत्ता' पर इसी नाम से बंगाली फिल्म बनी। ‘निष्कृति’ उपन्यास पर आधारित फिल्म ‘अपने पराये’ बनी। ‘पंडित मोशाय’ पर ‘ख़ुश्बू’ फिल्म का निर्माण हुआ। ‘वाग्दानम’ तेलुगू फिल्म थी जो ‘दत्ता’ उपन्यास पर आधारित थी। ‘आलो छाया’ छोटी कहानी पर आधारित है। ‘चरित्रहीन’ पर आधारित धारावाहिक दूरदर्शन पर प्रसारित हुआ।
शरतचंद्र ने अच्छे-बुरे अनुभवों को प्रश्रय देकर साहित्य में नई परिपाटी कायम की। मध्यवर्गीय समाज के यथार्थपरक चित्रण से सामाजिक रूढ़ियों पर प्रहार करते हुए, लोगों को घिसी-पिटी लीक छोड़कर प्रगतिशील होकर सोचने को प्रेरित किया। उनकी कृतियों में समाज की उथल-पुथल की सुस्पष्ट छाप है। कुशल चितेरे शरतचंद्र ने प्रेम संबंधों का अद्भुत चित्रण किया। उनकी कुछ मार्मिक कहानियों में कोमल भावनाएं परिलक्षित हैं। बचपन के संस्मरण, मित्रों की मित्रता से प्रेरित कहानियां जीवन का अभिन्न अंग प्रतीत होती हैं।
शरतचंद्र महिलाओं का बेतरह सम्मान करते थे इसलिए ‘‘पाप से घृणा करो, पापी से नही’’ कथन को आत्मसात करके साहित्य में समाहित किया और बिना घृणा किएपतिता, कुलटा, पीड़ित-प्रताड़ित, अपयश के दंश झेलती नारियों की अव्यक्त, अनकही पीड़ा रची।नारी हृदय के सच्चे पारखी शरतचंद्र ने स्त्री के रहस्यमय चरित्रों, कोमल भावनाओं, दमित इच्छाओं, अपूर्ण आशाओं, अतृप्त आकांक्षाओं, भग्न-अधूरे स्वप्नों, मानसिक उलझनों और महत्वाकांक्षाओं का जैसा सूक्ष्म, सच्चा, खरा, मनोवैज्ञानिक चित्रण और विश्लेषण किया है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है।
शरतचंद्र की साहित्यिक यात्रा और सामाजिक चेतना के जागरण के साथ राष्ट्रीय आंदोलन, साथ ही गतिशील हुए। बंगाल के क्रांतिकारी आंदोलन पर आधारित उनका "पथेर दावी" उपन्यास "बंग वाणी" पत्रिका में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ जिसने आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। तीन हज़ार प्रतियां, तीन महीने में वितरित होकर समाप्त हुयीं तो ब्रिटिश सरकार ने उसे जब्त कर लिया। मानवीय एहसासों के अप्रतिम, उत्कृष्ट चितेरे शरतचंद्र का १६ जनवरी १९३८ को कलकत्ता के नर्सिंग होम में निधन हो गया और साहित्याकाश का ये दैदीप्यमान सितारा सदा के लिए नीले अम्बर में अवस्थित हो गया।
(लेखिका कला, साहित्य और सिनेमा समीक्षक हैं।)