इस अस्पताल में होने वाली लीच थेरेपी का मरीजों को फायदा मिल रहा है। वेरीकोज वेंस, न भरने वाले घावों के जख्मों पर इस पद्धति के अच्छे परिणाम सामने आए हैं। आयुर्वेद की एक और इलाज पद्धति अग्नि कर्म की सुविधा भी यहां है। इस पद्धति में पंच लौ शलाका यानी 5 धातुओं के मिश्रण से बनी एक छोटी सी छड़ी को तपा कर लाल कर लिया जाता है। इस गर्म छड़ी को हलके से त्वचा पर छुआ देते हैं, एक छोटे से बिंदु की तरह त्वचा जल जाती है। यह श्याटिका, पीठ और कंधे के दर्द में फायदेमंद होता है। इसी तरह क्षार यानी दवा और सूत्र यानी धागा। यह फिशुला में बहुत कारगर है। फिशुला में गुदा द्वार के पास संक्रमण से कभी-कभी एक या दो छेद बन जाते हैं। दवा लगा धागा गुदा द्वार और फिशुला के छेद के आरपार निकाल कर बांध दिया जाता है। धीरे-धीरे इस छेद का घाव भरने लगता है।
यह आम आदमी का अस्पताल है
चौधरी ब्रह्म प्रकाश आयुर्वेद चरक संस्थान की एडिशनल डायरेक्टर (एकेडमिक्स) प्रोफेसर तनुजा नेसरी बताती हैं कि सन 2010 में यह संस्थान सुचारु रूप से शुरू हो पाया था। यहां 14 विभाग हैं। जिन्हें नॉन क्लिनिकल, पैरा क्लिनिकल और क्लिनिकल विभाग में बांटा गया है। इसके लिए पूरे भारत मे प्रवेश परीक्षा आयोजित होती हैं। दिल्ली के स्थानीय निवासियों के लिए बड़ा प्रतिशत आरक्षित है। भारतीय सांस्कृतिक परिषद के तहत भी 5 सीटें विदेशी छात्रों के लिए आरक्षित है। गुरु गोबिंद सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय से संस्थान को मान्यता प्राप्त है। सौ एकड़ में फैला यह पूरे भारत में श्रेष्ठ आधारभूत संरचना वाला संस्थान है। पंद्रह एकड़ में कॉलेज बना है और बाकी में औषधीय पौधे उगाए जाते हैं। यहां 210 बिस्तरों वाला अस्पताल है। जहां निजी, सुईट और सामान्य वार्ड हैं। यहां पंचकर्म, फिजियोथेरेपी, क्षार सूत्र, लीच एप्लीकेशन यूनिट आदि हैं। यहां लगभग 1500 मरीज रोज आते हैं। ओपीडी के लिए दस रुपये की पर्ची बनती है। दवाएं मुफ्त हैं। किसी को अस्पताल में भर्ती करना पड़े तो 200 रुपये से 1000 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से कमरे हैं। पंचकर्म के लिए 30 रुपये प्रतिदिन का अनुमानित खर्च है।
बीएएमएस की तरफ रुझान
आयुर्वेद चिकित्सक बनने के लिए बीएएमएस (बैचलर इन आयुर्वेदिक मेडिसिन इन सर्जरी) की डिग्री दी जाती है। सभी राज्य कॉमन मेडिकल प्रवेश परीक्षा आयोजित करते हैं। अब भारत में इसका ट्रेंड बदल रहा है और छात्र पहले विकल्प के रूप में ही बीएएमएस का चयन करने लगे हैं। आयुर्वेद के प्रति बढ़ती विश्वसनीयता ने छात्रों में इसके प्रति रुझान बढ़ाया है। फिलहाल भारतीय चिकित्सा पद्धति के सभी कॉलेज देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों से संबद्ध हैं। सभी कॉलेजों को परिषद की ओर से दिए गए शिक्षा के न्यूनतम मानक और सिलेबस का पालन अनिवार्य है।
परिषद का मुख्य काम है:- आयुर्वेद सहित अन्य भारतीय चिकित्सा पद्धतियों की शिक्षा में गुणवत्ता बनाए रखें, भारतीय मेडिकल काउंसिल एक्ट, 1970 के अंतर्गत आने वाले मामलों में केंद्र सरकार को प्रस्ताव देना, चिकित्सकों के लिए मानक, नियम और नीति या आचार संहिता तय करना, भारत सरकार के विभिन्न संस्थानों से नए महाविद्यालयों के लिए आने वाले अनुमोदनों, विचारों पर काम करना और स्नातक, स्तनातकोत्तर स्तर पर नए संस्थानों, विषयों पर काम करना और उन्हें पूरा करना।
आयुर्वेद चिकित्सा के कुछ शीर्ष संस्थान:- धन्वंतरि आयुर्वेदिक कॉलेज, चंडीगढ़, राजीव गांधी यूनिर्वसिटी ऑफ हेल्थ एंड साइंस, बेंगलूरु, गुजरात आयुर्वेद विश्वविद्यालय, जामनगर, जेबी रॉय स्टेट मेडिकल, कोलकाता, आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेज, कोल्हापुर, स्टेट आयुर्वेदिक कॉलेज ऑफ लखनऊ, श्री आयुर्वेद महाविद्यालय, नागपुर, ऋषिकुल गवर्नमेंट पीजी आयुर्वेदिक कॉलेज एंड हॉस्पिटल, हरिद्वार, दयानंद आयुर्वेदिक कॉलेज, जालंधर आदि।
आयुर्वेद का मतलब समग्र स्वास्थ्य
डॉ. प्रणव पांड्या
आयुर्वेद में इतनी क्षमता है कि रोगों का समूल नाश कर सके और उनकी सृष्टि भी कर दे जो कि देवलोक में थी। भगवान शंकर ने ही 'ज्वर’ की सृष्टि की। आयुर्विद्या के ज्ञाता शिव सृजन-संहार और उपचार सभी के प्रणेता थे। रस औषधियों का प्रारंभ भी शिवांश पारद के रूप में हुआ। शिव के अतिरिक्त अश्विनी कुमारों की प्रसिद्धि भी आयुर्वेद में वर्णित है, अश्विनी कुमारों के संबंध में उपलब्ध तथ्य है, उनके चमत्कारों का वर्णन सबसे ज्यादा अथर्ववेद में मिलते हैं, ये जुड़वां भाई थे जो सभी विद्या में निपुण थे, वैदिक वांग्मय में सभी प्रकार की आयुर्विद्या के तथ्य मिलते हैं जिनमें प्रमुख हैं- कटे हुए सिर का जोडऩा, शरीर के तीन टुकड़ों को जोडऩा, कटी हुई जांघ के स्थान पर लोहे की जांघ लगाना, च्यवन ऋषि को यौवन प्रदान करना, घोषा को युवावस्था प्रदान करना, श्याव ऋषि का कुष्ठ ठीक करना, अंधों का नेत्र प्रदान करना आदि। आयुर्वेद चिकित्सा का स्वरूप रामायण में स्पष्ट रूप से मिलता है। विशल्यकरणी, संजीवकरणी, सावर्ण्यकरणी और संधानी नामक औषधियों के उल्लेख हैं, जो युद्ध में हताहत सैनिकों के उपचार हेतु प्रयुक्त होती थी। लक्ष्मण जी की मूर्च्छा हेतु प्रयुक्त संजीवनी इन्हीं में से थी।
श्रेत्रीय (व्यक्तिगत) आर्थिक लाभ हेतु इसका दुष्प्रचार किया गया तथा वनौषधियों एवं रस-भस्मों के प्रयोग के स्थान पर मिश्रण वर्ग तैयार किया गया, जिसमें अमृत सम वनौषधियों का अनेक विद्य मिश्रण और सभी प्रकार के द्रव्यों का सम्मिश्रण की प्रथा प्रचलित की गई। आज जो आयुर्वेद का स्वरूप है, वह मात्र व्यावसायिक है। आयुर्वेद के सिद्धांतों से कोई तालमेल नहीं है। मशीनों द्वारा दवाएं हर दिन तैयार हो रही हैं, जबकि आयुर्वेद में निर्देश है- रस, गुण, वीर्य विपाक प्रभाव के अनुसार ऋतु में संग्रह, संरक्षण किया जाए, शुद्धता का परीक्षण अवधि के बाद उपयोग किया जाए।
शांतिकुंज तीर्थ को परम पूज्य गुरुदेव ने एक आदर्श मॉडल के रूप में स्थापित किया है। शांतिकुंज फार्मेसी में औषधियों की निर्माण प्रक्रिया में साफ-सफाई, गुणवत्ता निर्धारण आदि का पूरा ध्यान रखा जाता है। 250 से अधिक औषधियां तैयार चूर्ण, वटी और ताजा औषधियों के रूप में सदा गायत्री तीर्थ शांतिकुंज में उपलब्ध रहती हैं व इन औषधियों को देश व विदेश में भी भेजने की व्यवस्था बनाई जाती है। फार्मेसी में औषधियों के साथ हवन सामग्री तथा प्रज्ञा पेय हर्बल टी का भी निर्माण किया जाता है।
डॉ. प्रणव पांड्या
(शांतिकुंज, हरिद्वार के संचालक)
आयुर्वेदिक औषधि और उनके फायदे
त्रिफला: बेहड़ा, आंवला और हरड़ इन तीनों के मिश्रण से बना चूर्ण त्रिफला कहा जाता है। यह एंटिबायोटिक है।
शतावरी: इसे शुक्रजनन, शीतल, मधुर एवं दिव्य रसायन माना गया है।
अश्वगंधा: यह डायबिटीज, गठिया, पर्किंसंस, हाई ब्लड प्रेशर, कैंसर और ट्यूमर, कफ-खांसी और दमा, अनिद्रा, स्त्री रोग और आंखों की रोशनी बढ़ाने के भी काम आती है।
पुष्करमूल: दमा या श्वास रोग के इलाज में मुख्य रूप से काम आता है। दांतों के दर्द, खांसी, पायरिया, हिचकी, लीवर बढऩे, गठिया, हृदय रोग में इसका इस्तेमाल किया जाता है।
अर्जुन: हाई बीपी, बढ़ा हुआ कोलेस्ट्रॉल, हृदय रोग तथा मोटापे की बीमारी ठीक हो जाती है। श्वेतप्रदर, पेट दर्द, कान दर्द, झांइयां, बुखार, क्षय और खांसी में भी यह लाभप्रद है।
भूम्यमालकी: लीवर से संबंधित बीमारियों में इस्तेमाल किया जाता है। यह चूर्ण शरीर के इस खास अंग को साफ करने और उसे मजबूत बनाने का काम करता है।
कुटकी: पारासिटामोल के इस्तेमाल से लीवर पर होने वाले उलटे असर को थामने में भी यह बेहद कारगर है।
पुनर्नवा: यह पीलिया, पेट के रोग, खून के विकार, सूजन, सूजाक (गिनोरिया), मूत्राल्पता, बुखार में काम आता है।
सदाबहार: सदाबहार की जड़ों में रक्त शर्करा को कम करने की क्षमता होती है। जड़ का उपयोग उदर टॉनिक के रूप में भी होता है।