प्रदर्शनकारियों के एक प्रतिनिधिमंडल ने आंदोलन के संयोजक मनोज कुमार पाठक के नेतृत्व मे सूचना और प्रसारण मंत्रालय में ज्ञापन दिया। प्रदर्शनकारियों में से कई 10 से लेकर 20 साल से अपनी सेवाएं दे रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट अपने एक फैसले में बता चुका है कि 10 साल तक कैजुअल काम करने वाले कर्मियों को स्थायी तौर पर मान्यता दे दी जानी चाहिए, लेकिन केंद्र सरकार इन के साथ लगातार सौतेला बर्ताव करती रही है।
कैजुअल एनाउंसर और कंपीयर को साल भर में अधिकतम 72 ड्यूटी दी जाती है और प्रति ड्यूटी के हिसाब से महज 13,00 रुपए का भुगतान किया जाता है। जंतर-मतंर पहुंचने वाले हजारों एनाउंसर्स और कंपीयर की शिकायत ये है कि उन्होंने अपने जीवन का एक अहम समय आकशवाणी की सेवा में लगा दी, लेकिन सरकार के दोहरे मापदंड और सौतेले बर्ताव की वजह से वो और उनके परिवार का भरण-पोषण नहीं हो पा रहा है। उनका परिवार पूरी तरह बर्बादी की कगार पर है।
आंदोलनकर्मियों ने सरकार और प्रसार भारती पर इस मामले में पूरी तरह भेदभाव का आरोप लगाया है। उनका कहना है कि 72 ड्यूटी करने की बाध्यता के बावजूद इससे कम ड्य़ूटी करने वाले आकावाणी के दूसरे अस्थायी कर्मियों को बहाल कर दिया गया है, लेकिन एनाउंसर और कंपीयर की नौकरी स्थायी नहीं की गई है। कैज़ुअल रेडियो एनाउंसर, स्थायी एनाउंसर की तरह अपनी ड्यूटी करता है, लेकिन सरकार उससे दोयम दर्जे का बर्ताव करती है।
आकाशवाणी की विडंबना ये है कि 1992 के नोटिफिकेशन के बाद स्थाई एनाउंसर की बहाली नहीं की गई, क्यूंकि इसी दरम्यान 1996 में प्रसार भारती के हवाले आकाशवाणी और दूरदर्शन को कर दिया गया। स्थायी एनाउंसर रिटायर्ड होते गए और कैज़ुअल एनाउंसर का काम लगातार बढ़ता गया, लेकिन बहालियां नहीं हुईं, ऐसे में रिटायर्ड हुए स्थायी एनाउंसर के काम का बोझ भी उनके हिस्से आ गया।