बिहार का 2025 का जनादेश नीतीश कुमार के रिकॉर्ड दसवें कार्यकाल से कहीं बढ़कर अभूतपूर्व महिला भागीदारी का है, जिसने चुपचाप राज्य के राजनैतिक और आर्थिक परिदृश्य को नया रूप दिया
नतीजा राजनैतिक सूनामी की तरह आया, जिसमें महागठबंधन के भारी सामाजिक समीकरण और जन सुराज की बहुप्रचारित नई आकांक्षा जगाने की राजनीति, दोनों बह गए। जदयू-भाजपा गठबंधन की प्रचंड जीत सिर्फ सत्ता में होने की वजह से नहीं, बल्कि राजनीति में व्यक्तित्व-केंद्रित, विरासत और सामुदायिक व्याकरण का महा खंडन भी है। जनादेश 2025 को दो निर्णायक ताकतों के संगम ने ऐतिहासिक बना दिया। एक, नीतीश कुमार का असाधारण राजनैतिक सफर, जो वैचारिक टूटन, गठबंधन बदलने और सेहत तथा भविष्य को लेकर लगातार अटकलों के बावजूद टिके रहे हैं। दूसरे, महिलाओं का अभूतपूर्व 71.6 प्रतिशत मतदान (जो पुरुषों के 62.8 प्रतिशत से अधिक है) गहरे पितृसत्तात्मक ढांचे की राजनीति में निर्णायक चुनावी समूह के रूप में महिलाओं के उदय का संकेत है। विस्तृत आंकड़ों के आने में तो समय लगेगा, लेकिन जदयू की 2020 के मुकाबले विशाल जीत एक निष्कर्ष अपरिहार्य बनाती है कि लगभग 1.7 करोड़ महिला मतदाताओं की निर्णायक बहुसंख्या ने रोजगार और पलायन को लेकर गूंजती चिंताओं के बावजूद नीतीश कुमार और एनडीए का समर्थन किया है।
नीतीश कुमार की जीत ऐसे नेता के धैर्य की भी बानगी है, जो करिश्मे या दिखावे पर नहीं, बल्कि संयम और नैतिक आग्रह पर टिका है। वे गठबंधन के अंतर्विरोधों को शांत ढंग से नियंत्रित करने की कला में माहिर हैं। उनके जीवनी लेखक संकर्षण ठाकुर उन्हें राजनैतिक कीमियागर बताते हैं, ऐसा नेता जो अंतर्विरोधों को व्यावहारिक गठबंधनों, नैतिक विश्वसनीयता और व्यावहारिक शासन में बदलकर अपना अस्तित्व बनाए रखता है। भारी तड़क-भड़क, दिखावे और लोकलुभावनवाद के इस दौर में नीतीश सत्ता के लिए उलट या अलग व्याकरण का प्रतीक हैं, जो लचीलेपन के साथ दृढ़ विश्वास, संयम-सक्रियता के तालमेल और मजबूत जड़ों के साथ सुधार को जोड़ता है।
नीतीश का स्थायित्व ठीक इसी व्यावहारिक राजनीति से उपजा है। यही वह तरीका है जिसने उन्हें बिहार के पितृसत्तात्मक समाज से स्त्री-सहभागिता की दिशा में बदलाव लाने में सक्षम बनाया है, जो नारीवादी लोकतंत्र की बुनियाद की तरह है। यह उनके समाजवादी गुरु कर्पूरी ठाकुर के समता के भीतर समता के विचार पर आधारित है। इस अर्थ में, बिहार का नारीवादी लोकतंत्र एक अलग विकास अर्थशास्त्र पेश करता है, जिसमें विकास को सिर्फ औद्योगीकीकरण या शहरीकरण के जरिए नहीं, बल्कि लोगों की क्षमता के विस्तार, बुनियादी ढांचे और महिलाओं की आर्थिक मजबूती की कोशिश के जरिए भी मापा जाता है।
उनके नेतृत्व में महिलाएं बतौर लाभार्थी नहीं, बल्कि शासन की शिल्पकार के रूप में उभरी हैं। आज, वे लगभग 52 प्रतिशत पंचायती राज पदों पर काबिज हैं, जिनमें हजारों मुखिया भी शामिल हैं। वे बिहार की लोक-सेवा अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं: लगभग 90,000 आशा कार्यकर्ता; 1,12,000 आंगनवाड़ी कार्यकर्ता; 2,48,000 मध्याह्न भोजन रसोइया (90 प्रतिशत महिलाएं); 2,61,000 से अधिक महिला शिक्षिकाएं; और 25,000 से अधिक महिला पुलिसकर्मी, जिन्हें पुलिस भर्ती में 35 प्रतिशत आरक्षण का लाभ प्राप्त है। ये आंकड़े एक गहरे परिवर्तन की ओर इशारा करते हैं: महिलाएं राज्य का चेहरा, सेवा विस्तार की अग्रिम पंक्ति और शासन का नैतिक ढांचा बन गई हैं।
यह नारीकृत परिवर्तन जीविका (बिहार की ग्रामीण आजीविका विकास संस्था) में सबसे स्पष्ट अभिव्यक्ति पाता है, जो 2005 के बाद की अवधि में बिहार का सबसे महत्वपूर्ण सामाजिक विचार है। विश्व बैंक के सहयोग से 2006 में शुरू की गई जीविका योजना देश में व्यापक स्वयं सहायता समूह आंदोलन के हिस्से के रूप में शुरू हुई थी। लेकिन बिहार में यह अलग रूप में विकसित हुई और सहभागी मातृ कल्याण राज्य का संस्थागत मूल बनी।
देश के सबसे गरीब और ऐतिहासिक रूप से सबसे कमजोर प्रशासनिक क्षेत्रों में एक में उसकी सफलता राजनैतिक पुनर्गठन, स्त्री सामाजिक पूंजी और संस्थागत स्वायत्तता के अनोखे समन्वय में निहित है। 2005 के बाद बिहार के प्रशासनिक पुनरुत्थान ने ऐसे प्रयोगों की नींव रखी। नीतीश ने न केवल राज्य के भौतिक बुनियादी ढांचे का पुनर्निर्माण किया, बल्कि पंचायतों में महिला आरक्षण, स्कूली छात्राओं के लिए साइकिल योजना, शराबबंदी और महिला समूहों के जरिए कल्याण योजनाओं के नए लक्ष्यों के माध्यम से लोगों के साथ नैतिक जुड़ाव भी स्थापित किया।
भाजपा ने अपने व्यावहारिक सहयोग के जरिए इन स्त्री-केंद्रित हस्तक्षेपों को व्यापक बनाने में मदद की। भाजपा ने महिला सशक्तीकरण को साझा चुनावी साधन माना, जिससे इन कार्यक्रमों को बिना किसी वैचारिक टकराव के आगे बढ़ने का मौका मिला।
आज, जीविका दीदी सभी 38 जिलों में 1.4 करोड़ से ज्यादा हैं, जिनमें मुख्यतः दलित, ओबीसी और ईबीसी परिवारों की महिलाएं हैं। बचत और ऋण के रूप में शुरू हुआ यह संगठन कल्याणकारी योजनाओं को स्थानीय एकजुटता से जोड़ने वाला बहुस्तरीय नेटवर्क बन गया है। काम और रोजगार के लिए पलायन कर गए ज्यादातर पुरुषों की गैर-मौजूदगी में महिलाएं अब अपने सामूहिक श्रम से घरेलू आय में वृद्धि और स्थिरता ला रही हैं।
महिलाएं सामुदायिक निधियों का प्रबंधन करती हैं, पोषण अभियानों की देखरेख करती हैं, मनरेगा की निगरानी करती हैं, खेती-किसानी में मदद करती हैं और सामाजिक ऑडिटर की तरह काम करती हैं। कई डेयरी, मुर्गी पालन, सिलाई, मशरूम की खेती और खाद्य प्रसंस्करण जैसे छोटे-मोटे उद्यम भी चलाती हैं, जो ग्रामीण अर्थव्यवस्था को क्षेत्रीय बाजारों से जोड़ते हैं। अध्ययनों से पता चलता है कि मजबूत ऋण चुकौती और निवेश पर सकारात्मक प्रतिफल से उपभोग, बचत और आय में सुधार होता है।
जीविका स्वयं सहायता समूहों का 2025 के मध्य तक संयुक्त वित्तीय आकार 1 लाख करोड़ रुपये को पार कर गया है, जिससे स्थानीय खपत में वृद्धि हुई है। इस पृष्ठभूमि में मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना के तहत जीविका दीदियों को 10,000 रुपये के हस्तांतरण को मतदाता रिश्वत बताकर की गई आलोचना ने न केवल विपक्षी दलों के लिए चुनावी संकट पैदा किया, बल्कि यह भी उजागर किया कि मुख्यधारा के अर्थशास्त्री बिहार की अर्थव्यवस्था को कितना गलत समझते हैं।
इस प्रकार, 2025 में बिहार के चुनावी नतीजे सामाजिक जनमत संग्रह जैसे हैं। नीतीश कुमार की उपलब्धि केवल चुनाव जीतने में ही नहीं, बल्कि मतदाताओं की बनावट को बदलने में भी निहित है। ऐसा करके उन्होंने देश के सबसे शांत, लेकिन सबसे परिवर्तनकारी राजनैतिक प्रयोगों में एक की पटकथा लिखी है: एक नारीवादी लोकतंत्र जो नागरिक अधिकार, नैतिक संयम और उन महिलाओं के दैनिक श्रम पर आधारित है जो अब राज्य को संभालती हैं।

(कवि, राजनीति विज्ञानी और ‘कम्युनिटी वॉरियर्स: स्टेट, पीजेंट्स ऐंड कास्ट आर्मीज इन बिहार’ के लेखक । विचार निजी हैं)